घुटन - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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बुधवार, 23 जनवरी 2013

घुटन

आखिर देबू  ने घर से भागने की ठान ली। वह आधी रात को भारी मन से चुपके से उठा और एक थैले में मैले-कुचैले कपड़े-लत्ते ठूंस-ठांसकर घर से चल पड़ा। सूनसान रात, गांव की गलियों में पसरा गहन अंधकार। अंधकार जैसे निगलने आ रहा हो। आसमान में गरजते बादल और भयानक चमकती बिजली की कड़कड़ाहट से उसका दुःखी मन और भी भारी होता जा रहा था। भारी दुःख में जिस तरह डर कहीं दूर भाग खड़ा होता है, उसी तरह आज डर -डर, सहम-सहम कर रहने वाले देबू के मन से डर कोसों दूर था। वह गांव की सुनसान तंग गलियों से निकलकर बाजार की पगडंडी पर आ पहुंचा। उसका मन इतना व्यथित था कि वह एक नज़र भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता था। कभी सहसा चल पड़ता कभी रूक जाता। उसके आंखों में आसूं थे किन्तु सूखे हुए। वह सहमा-सहमा बाजार की ओर भारी कदम बढ़ाता जा रहा था। उसकी आंखों में चाचा-चाची की हर दिन की मारपीट का मंजर और कानों में गाली-गलौज की कर्कश आवाज बार-बार गूंज रही थी। बाजार पहुंचकर उसने निश्चय किया कि वह शहर की ओर जाने वाली सड़क के सहारे चलता रहेगा। वह दुर्गम पहाड़ी को काटकर बनाई सड़क को कोस रहा था। उसके जेहन में वह खौफनाक याद आज भी ताजी थी जब इसी सड़क ने एक हादसे में एक झटके में उससे उसके मां-बाप को निगल लिया, जिसने उसके बचपन के साथ उसका सुख-चैन सबकुछ उससे छीन लिया। जिसके कारण उसे चाचा-चाची के टुकड़ों पर पलने के लिए मजबूर होना पड़ा। 
वह अपने गांव से कोसों दूर निकल चुका था। एकाएक जोरों की बारिश होने लगी और फिर ओले गिरने शुरू हो गए। अपने ही ख्यालों में खोया वह भींगकर कांपने लगा। सड़क किनारे उसे एक गौशाला दिखाई दी। वह जान बचाने की खातिर उसके भीतर जा घुसा। आखिर जीने की तमन्ना बाकी जो थी। वहीं उसने इधर-उधर बिखरे पड़े घास-फूंस को बटोर कर उसके अंदर घुसकर कुछ राहत महसूस की। बाहर ओलों का गिरना थमा भी नहीं था कि बर्फवारी शुरू हो गई।  उसे याद आने लगा कि  किस तरह माँ-बाप के बिछुड़ने पर पूरे  गाँव के सामने चाचा-चाची ने बड़ी सहानुभूति दिखाते हुए उसे गले लगाकर अपना बेटा  कहा और प्यार-दुलार कर जाने कितने ही दिलासे देकर चुप कराया था। सहानुभूति का ज्वार सालभर बाद ही पूरी तरह उतर हो जाएगा इस बात की समझ उसके बूते की बात न थी। स्कूल जाना बंद करवाकर छोटे-छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी और घर के छोटे-बड़े काम तले  उसका मासूम बचपन घुट कर रह जाएगा, यह उसने कभी सोचा ही न था। जाने कितनी ही दुखद भरी बातों में वह उलझता चला गया।     

जनवरी का प्रथम सप्ताह। निष्ठुर सर्दी का मौसम। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ बिछ गई थी। घुप्प अंधेरी रात बर्फबारी से चांदनी रात सी बन पड़ी थी। देबू वहीं ठण्ड से बचने के लिए घास-फूस अपने ऊपर समेटे हुए ठिठुरा रहा था। कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? बडी जटिल समस्या थी! सोचता! काश अगर मेरे मां-बाप जीवित होते तो मुझे यह दिन नहीं देखने पड़ते। घर में इकलौता जो था! मजे से स्कूल जाता, खाता-पीता और खूब मौज मस्ती करता। कौन रोकने-टोकने वाला बैठा था। उसके उत्पीडि़त मन में और भी जाने कितनी बातें आकर उसे और भी व्यथित कर रही थी। इसी उधेड़बुन में लेटे -लेटे  एक  नींद का झौंकें ने आकर उसे  अपने आगोश में ले लिया। जब किसी का भी दुःख गहराता है तो उस समय उसके सबसे करीब उसकी माँ होती है। देबू भी रात भर अपनी मां के आंचल की सुखद छांव की भूल-भुलैया में करवट बदल-बदल कर भटकता रहा। सुबह जब एक तेज हॉर्न की आवाज उसके कानों में गूंजी तो वह हड़बड़ाकर उठा और फ़ौरन अपनी पोटली थामे उस ओर तेजी से भाग निकला। हांफते-हांफते वह बस तक पहुंचा लेकिन बस ठसाठस भरी थी। वह किसी भी हाल में वापस घर नहीं लौटना चाहता था। कोई उसे पकड़कर वापस घर न भेज दे इसलिए वह चुपके से बस के पीछे खड़े होकर उसके चलने का इंतज़ार करने लगा। जैसे ही घीरे से बस आगे बढ़ी वह बड़ी फुर्ती से सीढियों के सहारे छत पर चढ़ गया। कभी अपने दोस्तों के साथ वह जब भी बाजार आता था तो मस्ती में इसी तरह बस की सीढियों पर लटकते हुए अगले मोड़ तक मस्ताते हुए चल  पड़ता फिर जैसे ही मोड़ पर बस धीमी होती झटपट  कूद जाता। तब कभी उसने  यह कभी सोचा भी न होगा कि यह मस्ती भरा खेल उसके काम भी आ सकता है। वह छत पर रखे सामान के बीच छुपकर तब तक लेटा रहा जब तक बस शहर के बस स्टैंड पर नहीं रुकी। कोई उसे देख न लें, पहचान न ले, इससे पहले ही वह बस से फुर्ती से उतरकर सरपट भाग खड़ा हुआ। गांव की घुटन भरी जिन्दगी को भूल वह शहर की घुटन से बेखबर उसकी चकाचौंध में कहाँ गुम हो गया, यह खबर लेने वाला कोई न था। 

         ..कविता रावत