सबके करीब
सबसे दूर
कितने मजबूर!
कभी बन कर
कोल्हू के बैल
घूमते रहे गोल-गोल
ख्वाबों में रही
हरी-भरी घास
बंधी रही आस
होते रहे चूर-चूर
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
कभी सूरज ने
झुलसाया तन-मन
जला डाला निवाला
लू के थपेड़ों में चपेट
भूख-प्यास ने मार डाला
समझ न पाए
क्यों जमाना
इतना क्रूर!
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
कभी कहर बना आसमाँ
बहा ले गया वजूद सारा
डूबते-उतराते निकला दम
पाया नहीं कोई किनारा
निरीह, वेबस आँखों में
उमड़ती रही बाढ़
फिर भी पेट की आग
बुझाने से रहे बहुत दूर
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
कभी कोई बवंडर
उजाड़ कर घरौंदा
पल भर में मिटा गया हस्ती!
तिनका तिनका पैरों तले रौंदा
सोचते ही रह गए
क्यों! हर कोई हम पर ही
करके जोर आजमाइश अपनी
दिखाता है इतना ग़रूर!
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
सबसे दूर
कितने मजबूर!
कभी बन कर
कोल्हू के बैल
घूमते रहे गोल-गोल
ख्वाबों में रही
हरी-भरी घास
बंधी रही आस
होते रहे चूर-चूर
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
कभी सूरज ने
झुलसाया तन-मन
जला डाला निवाला
लू के थपेड़ों में चपेट
भूख-प्यास ने मार डाला
समझ न पाए
क्यों जमाना
इतना क्रूर!
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
कभी कहर बना आसमाँ
बहा ले गया वजूद सारा
डूबते-उतराते निकला दम
पाया नहीं कोई किनारा
निरीह, वेबस आँखों में
उमड़ती रही बाढ़
फिर भी पेट की आग
बुझाने से रहे बहुत दूर
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
कभी कोई बवंडर
उजाड़ कर घरौंदा
पल भर में मिटा गया हस्ती!
तिनका तिनका पैरों तले रौंदा
सोचते ही रह गए
क्यों! हर कोई हम पर ही
करके जोर आजमाइश अपनी
दिखाता है इतना ग़रूर!
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
66 टिप्पणियां:
मजदूर के नाम पर हम सिर्फ कुछ प्रकार के मजदूर ही दिखाते हैं जबकि हम सब मजदूर हैं, मैं भी एक मजदूर हूँ
अभी टिप्पणियां करने की मजदूरी कर रहा हूँ, और इसका पारिश्रमिक जानता हूँ
samvedansheel abhivykti........
ati sunder .
'माँ' उपन्यास के प्रथम पृष्ठ का वह अंश याद आ गया जिसके अंत में यह वाक्य है:
"ऐसे ही कोई पचास वर्ष जीने के बाद आदमी मर जाता था। "
..मुझे ऐसी रचनाएँ बहुत पसन्द हैं जो सम्वेदित कर कालजयी कृतियों के भूले अंशों की याद दिला देती हैं।
धन्यवाद।
मजदूरों की दयनीय स्थिति को चित्रित और उस पर सार्थक विवेचना करती आपके इस रचना को सरकार में बैठे निति निर्माताओं को पढना चाहिए /अच्छी वैचारिक रचना के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद /
बहुत बड़ी है मजदूरों की जमात
रोना ये है कि
उन में से तीन चौथाई
ये बात जानते नहीं
जानते हैं तो
मानते नहीं
sahi kaha kavita ji majdoor aaj ham ek shoshit samaaj ki paribhasha samajhte hai...aapne bada hriday vidarak chitran kiya....
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/2010/03/blog-post_31.html
ye kavitapadhe majdooro ke haalaat bayan karti...
संक्षेप में यही कहूँगा एक मजदूर की मज़बूरी का बखूबी चित्रण किया है आपने , सुंदर अभिव्यक्ति .........
Mazdoor Mazboor aur sahansheelta ka chalta phirta stambh?
संवेदनाओं को झकझोरकर रख देने वाली कविता...!
har pal marne ko majboor
lekin fir bhi maut se dur
ye majdooor...........:(
Kavita jee.......samvedanseel rachna......!!
kabhi yahan bhi aayen
jindagi ka kainvess
www.jindagikeerahen.blogspot.com
.एक मजदूर के दिल में उतर कर उसकी असली पीड़ा को रेखांकित किया है आपने
ख्वाबों में आती रही
हरी-भरी घास
बंधी रही आस
पर दिन-रात पिसते रहे
हर दिन देखे ख्वाब
जो होते चूर-चूर
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
superb
"हरी-भरी घास
बंधी रही आस" यही है मजदूर की धुन।
आज मजदूर दिवस पर आपकी रचना पढकर यह सोचने पर विवश हो गया कि इन मजदूरों के मसीहा वातानुकूलित कक्ष में दुनिया के मज़दूरों एक हो का नारा बुलंद कर रहे हैं और वो मज़दूर गर्मी में पिघलती डामर के साथ उलझा है… कैसी विडम्बना है... जनाब मुनव्वर राना का शेर याद आ गया
शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको
इतने में तो बच्चे का गुब्बारा नहीं मिलता.
कविता जी आपके विचारों को सलाम!! लाल सलाम नहीं कहुँ गा..क्योंकि इसपर तो कालिख पुती है!!
... बेहद प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!
मजदूर या मजबूर ?
बहुत ही मार्मिक रचना।
आपने मजदूरों की पीड़ा को, उसकी मजबूरी को सही शब्द दिया है-
मजदूर!
सबके करीब
सबसे दूर
कितने मजबूर!
कम शब्दों में कितने सघन भाव।
Kavita ji, jo pagaar pata hai woh majdoor hi hai . yeh alg baat hai ki sharirik shram ko hum doosri drishti se dekhte hain .
Appki kavita aur vichar dono hi prashansniya hain
बहुत संवेदनशील अभिव्यक्ति!
majdooro ki sthithi ka sahi aklan karti man ko choo gai yh rachna .
majdoro ki sthiti ka sahi aklan karti man ko choo gai ye rachna .
मार्मिक और संवेदनशील रचना! 'उगली दी आग' की जगह 'उगल दी आग' करें!
वाह... सुंदर भावाभिव्यक्ति... मार्मिक यथार्थ... साधुवाद...
kavita ji,jab bhi koi inke prati itani gambhirata se sohata hai to pata nahi unke prati samvedan shilata mere dil ko dravit kar jati hai. aapki yah post mujhe bahut hi achhi lagi shayad aap bhi meri tarah samvedan sheel hain.bahut hi achhi rachna.
poonam
उच्च स्तरीय संवदेनशील रचना - बधाई
अति सुन्दर आपने सच मे उनकी समस्याऒ को दिल से महसूस किया हॆ..आभार
मार्मिक और संवेदनशील रचना!
इतनी संवेदनशीलता
बड़े गहरे उतरी हैं आप सागर में
अगर आपकी नजर में कोई सोरायसिस का मरीज हो तो हमारे पास भेजिए ,हम उसका फ्री ईलाज करेंगे दो महीने हमारे पास रहना होगा
www.sahity.merasamast.com
क्या कहने साहब
जबाब नहीं
प्रसंशनीय प्रस्तुति
satguru-satykikhoj.blogspot.com
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी उच्च स्तरीय
पहला पद ही शानदार कितने पास कितने दूर ।कविता शुरु करने के पूर्व जो विवरण दिया है उसमे जो दयनीय दशा का चित्रण किया है चित्रण के लिये जो शब्द चुने है वे बेहद मार्मिक है ।कोल्हू के बैल बन घूमते और हरी घास का सपना देखते (अधिकांश लोगों ने तो कोल्हू देखा भी न होगा कि कैसा होता है )।भूखे प्यासे गर्मी का मौसम क्या यही आदमी होने की सजा है ।(गत ग्रीषम बरसा रितु आई) उसका भी बहुत भावुक व मार्मिक चित्रण है इस रचना में ।इतने मे बबंडर आया और सब कुछ उडा ले गया यह चित्रन भी लाजवाब ।जहां तक सबल का निर्बल पर जोर आजमाइश का सबाल है तो क्या कीजियेगा यह प्रक्रति का ही नियम है ""सबै सहायक सबल के निबल न कोउ सहाय /पवन जलावत आग को दीपहिं देत बुझाय//बहुत ही अच्छी रचना ।
मजदूरों की व्यथा का सही चित्रण ।
bahut khoob......
मजदूर नहीं मजबूर पर इस सुन्दर रचना के लिए साधुवाद.
कभी आकर कोई बवंडर
उजाड़ कर घरौंदा
उड़ा ले गया तिनका-तिनका
पल भर में मिटा गया हस्ती!
देख यह सब असहाय बन
हरदम सोचते ही रह गए
क्यों! सबल सदा ही निर्बलों पर
करके जोर आजमाइश अपनी
दिखाता है इतना ग़रूर!
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
Achchha sachchaa chitran
आपकी कविता को पढ़ कर अपनी लिखी इक कविता याद आ गयी .....
ओ महलों में सोने वालो
कभी देखी है ..
फुटपाथों पे सोई गरीबी ....?
मजदूरों की करूँ गात ... उनकी मजबूरियों को बहुत करीब से देखा और लिखा है आपने ... बहुत ही संवेदनशील है ...
बहुत ही संवेदनशील और मार्मिक रचना....मजदूरों की मजबूरी को बड़ी गहनता से उभारा है
जिन महलों को ये मजदूर बनाते हैं, तैयार होने के बाद उनमे ये जाने का ख्याल भी नहीं ला सकते...
संवेदनशील, भावपूर्ण!
kaavya mei
ythaarth hai...
aur ythaarth hi
sachchaa kaavyaa hai
अति संवेदन शील चित्रण । प्रशंसनीयता ।
kavita jee,
aapkee is kavita ka upyog ham ek lekh men karnaa chahte hain. aap apna mobail number den, taaki bat ho sake
RK Nirad
9431177865
आपने लिखा....हमने पढ़ा
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 02/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
मानवीय सम्वेदनाओं से भरपूर
गजब है दुनियाँ
अजब है दस्तूर..........
bahut sundar warnan ..majdooron ki wyatha ka ....
सोचते ही रह गए
क्यों! हर कोई हम पर ही
करके जोर आजमाइश अपनी
दिखाता है इतना ग़रूर!
बहुत खूब....बहुत सच्चा.
भावनापूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर
संवदेनशील रचना - बधाई
मजदूरों की स्थिति का चित्रण करती संवेदनशील रचना।
Savendansheel vishayo per Jahan aajkal likhana khatm SA ho Gaya hai, aise me lekhani ka Maan rakahne walo ko badhai. Bahut achche bhav avam abhivyakti.
किसी मजदूर का जीवन और उसकी व्यथा एक संवेदनशील नज़र के देखने बाद समझ आती है ...
सब कुछ होते हुए भी वो मजदूर रहता है ... कमाल की रचना है ...
ब्लॉग बुलेटिन टीम और मेरी ओर से आप सब को मजदूर दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएँ !!
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 01/05/2019 की बुलेटिन, " १ मई - मजदूर दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरूवार 2 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
मजदूरों की पीड़ा को व्यक्त करती बेहद मर्मस्पर्शी रचना
मजदूरों की स्थिति को दर्शाती भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
मजदूर की निरक्षरता, पारिवारिक मजबूरियाँ उसकी आर्थिक स्थिति को कभी बेहतर नहीं होने देती। कर्ज के बोझ तले दबा जीवन कब खत्म हो जाता है पता ही नहीं चलता। मजदूर की दुर्दशा के लिए हमारे देश की सरकारी नीतियाँ भी जिम्मेदार हैं। हमारे यहाँ सरकारी एसी ऑफिसों में बैठे निठ्ठलों को अधिक वेतन के लायक समझा जाता है और मजदूर के हाड़तोड़ मेहनत के काम को तो बस बेगार ही माना गया है।
आपकी यह रचना मजदूर की दुर्दशा को मार्मिक शैली में व्यक़्त करती है।
सबके करीब
सबसे दूर
मजदूर!
मजदूरो की तो यही कहानी है
श्रमिकों को उनका उचित सम्मान मिलना चाहिए श्रमिक दिवस पर बहुत प्रभावी और सशक्त प्रस्तुति
मजदूर
सबके करीब
सबसे दूर
कितना मजबूर
बहुत ही हृदयस्पर्शी सटीक एवं सार्थक रचना...।
वाह!
बहुत सुन्दर कविता जी. 'मज़दूर' और 'मजबूर' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
मज़दूर दिवस पर मज़दूर की मजबूरी पर मैंने भी कुछ कहा है -
जिस दिन मज़दूरी मिलती है,
उस दिन चूल्हा मुस्काता है.
बाक़ी दिन तो मन-मसोसकर,
बिन लकड़ी ही सो जाता है.
https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html
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