साईं बाबा के शिर्डीधाम में - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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रविवार, 3 जून 2012

साईं बाबा के शिर्डीधाम में

गर्मियों की छुट्टियाँ लगते ही बच्चे किताब-कापी बस्ते में बंद कर एक कोने में ऐसे पटक देते हैं जैसे कोई पुराना कबाड़ हो और फिर दुनिया भर की सैर की जिद्द ठान लेते हैं। मन तो अपना भी होता है कि क्रोध में लाल-पीले हो रहे भास्कर देव की क्रोधाग्नि से थोड़ी लुका-छुपी का खेल खेलते हुए दूर कहीं खिसक कर राहत की साँस ले लें, लेकिन बहुत दूर भागकर भी राहत मिल ही जाए, यह बात आज के समय में तय नहीं है। कारण साफ़ है- एक तरफ, सुरसा की तरह मुहं बाये महंगाई है तो दूसरी तरफ गृहस्थी को पटरी पर बिठाये रखने की माथापच्ची के साथ ऑफिस की रस्साकशी। ऐसे में घर से बाहर निकलते ही सारे समीकरण गड़बड़ा जाते हैं। बावजूद इसके इस बार एक परिचित की मेहरबानी से शिर्डी के साईं बाबा के दर्शन करने की हसरत पूरी हो गई। गर्मी के मौसम में प्राय: सभी ट्रेनों में आरक्षण मिलना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है, लेकिन अचानक ही हमारे इन परिचित का कार्यक्रम बदल गया और हमें यह सुअवसर मिल गया। सुना था कि साईं बाबा जिसे जब बुलाते हैं तभी वे उनके दर्शन कर पाते हैं। 
किसी अन्य दिन दोनों बच्चे 7 बजे से पहले बहुत चिल्ला चोंट करने पर बमुश्किल उठते थे। पर 23 मई की सुबह 4 बजे से ही उनकी खुसर-फुसर शुरू हो गई। माँ जल्दी उठो, जल्दी उठो, नहीं तो ट्रेन छूट जाएगी। 7:45 पर कामायनी एक्सप्रेस से हमें जाना था। उठते ही रास्‍ते के लिए अलग-अलग फरमाईश अनुसार नाश्ता, खाना तैयार करने में जुट गई। भोपाल स्टेशन पर ट्रेन निर्धारित समय पर आई। बच्चों को पहले से ही समझा दिया था इसलिए बिना हड़बड़ी मचाए ट्रेन में आसानी से चढ़ते हुए अपनी सीट तलाशने में मशक्कत नहीं करनी पड़ी। 3 बर्थ क्रमवार थी। बच्चों को उनके मन मुताबिक ऊपर वाली बर्थ क्या मिली वे तो उस पर चढ़कर बिना किसी की परवाह किए हुए धमाल करने पर उतारू हो गए। अब बच्चों को क्या, वह तो हमें देखना होता है कि कहीं कोई आस-पास बैठा टोका-टाकी के मूड में तो नहीं है। हम बड़े लोग नई जगह पर सबके बीच देर से घुल-मिल पाते हैं वहीँ बच्चे अपने आस-पास के माहौल में इतनी जल्दी हिल-मिल जाते हैं। उन्हें देख लगता है काश! हम भी हमेशा बच्चे ही बने रहते तो कितना अच्छा होता। 
सबसे पहले हमने हल्का फुल्का नाश्ता किया। बच्चों को ट्रेन में बैठते ही इधर-उधर घूमते फेरी वाले क्या दिखे कि उनका चटोरापन जाग उठा। देखते ही शुरू हो जाते - माँ! ये ले लो, पापा! वो दिलवा दो। जैसे-जैसे ट्रेन की गति और भास्कर देव का प्रकोप बढ़ने लगा। बच्चे उछल-कूद भूलकर ठंडा पानी, कोल्ड ड्रिंक, चिप्स आदि की फरमाईश कर हमारा बजट बिगाड़ने पर आमदा हो गए। ऊँघते, सुस्ताते, जम्हाते हम 6 बजे ट्रेन सफ़र के अंतिम स्टेशन मनमाड़ पहुंचे। करीब आधा घंटा सुस्ताने के बाद टैक्सी से शिर्डीधाम को निकल पड़े। मनमाड से शिर्डीधाम लगभग 75 किमी की दूरी पर है। दिन ढल चुका था और अँधेरा हो चला था। दिन की तपन से राहत मिल गई। सड़क पर बहुत से स्थानीय लोगों को अपनी दिशा की ओर नंगे पांव पैदल चलते देख मैं समझ गई कि हमारी मंजिल नजदीक है। करीब ढाई घंटे के सफ़र के बाद हम शिर्डी पहुंचे। बाबा के पवित्र धाम पहुंचकर मन को बहुत शांति मिली। भक्तजनों का ताँता लगा हुआ था। मंदिर के पास ही ट्रस्ट की धर्मशाला है जिसमें ठहरने की व्यवस्था है लेकिन जगह नहीं होने से पास ही एक होटल में हमने शरण ली। यहाँ पर्याप्त मात्रा में यात्रियों के लिए होटल में ठहरने-खाने आदि की व्यवस्था है। अगले दिन सुबह 6 बजे नहा-धोकर हम बाबा जी के दर्शन को निकल पड़े। पूजन सामग्री लेकर हम 2 नंबर गेट से लाइन में लग गए। 7-8 सर्पाकार लाइन में घूमते-घामते मंदिर के बाहर ही एक घंटा बीत गया। फिर मंदिर के मुख्य भाग में प्रवेश किया। यहाँ भी 7-8 सर्पाकार लाइन से होकर धीरे-धीरे कछुवे के गति से आगे खिसकते चले। यह देखकर अच्छा लगा कि सभी भक्तजन बिना हड़बड़ी मचाए, ॐ साईं नमो नम:, श्री साईं नमो नम:, सतगुरु साईं नमो नम:, जय-जय साईं नमो नम: गाकर सारे वातावरण को भक्तिमय बनाते हुए शांति से धीरे-धीरे कदम बढ़ाते जा रहे थे। हाल की दीवार पर सजे बाबा के जीवन के सजीव चित्रों की झांकियों में डूबते-उतराते हुए हम अगले हाल में प्रविष्ट हुए। गुरुवार होने से भक्तों की तादाद बहुत अधिक थी। जैसे-जैसे दिन चढ़ रहा था, गर्मी का प्रकोप बढता जा रहा था और गला सूखता जा रहा था। पर यहाँ पानी और कोल्ड ड्रिंक की पर्याप्त व्यवस्था थी। हमने पानी से गला तर कर लिया। लेकिन बच्चों को उनका मन पसंद पेय दिखा तो 3-3 पैकेट लेने के बाद ही आगे चलने को तैयार हुए। 3 घंटे की जद्दोजहद के बाद हम बाबा जी के करीब थे। यहां केवल 2 मिनिट का समय मिला लेकिन अपने आपको धन्य पाया। भीड़-भाड़ ज्यादा होने से की वजह से सबको जल्‍दी जल्‍दी आगे बढाया जा रहा था। यह देखकर थोडा मलाल तो हुआ कि इतनी दूर से आए और सुकून से दर्शन भी नहीं हो पाए। 

हमारी ट्रेन मनमाड से सुबह 5 बजे थी। साईं भोजनालय देखने और प्रसाद ग्रहण करने की भी इच्‍छा थी। हम पैदल ही लगभग आधे घंटे बाद साईं बाबा भोजनालय के बाहर थे। गेट के अन्दर जाते ही साईं बाबा को देग में खाना बनाते देखना बड़ा ही सुखद लगा। थोड़ी देर यूँ ही साईंमय होते हुए 10 रुपये के कूपन लेकर भोजनालय में दाखिल हुए। यहाँ की साफ़ सुथरी और चुस्त-दुरुस्त व्यवस्था देखकर में दंग रह गई। हाल में एक साथ लगभग 2 हजार से अधिक भक्तजन साथ-साथ बैठकर बड़े आराम से स्वादिष्ट प्रसाद (भोजन) ग्रहण कर रहे थे। मशीन के तरह बड़ी फुर्ती से खाना परोसते कर्मचारी किसी आश्चर्य से कम नहीं थे। करीब आधे घंटे में एक साथ इतने लोगों को खाना खिलाना किसी चमत्कार से कम नहीं है। जो सिर्फ बाबा के भोजनालय में ही संभव हो सकता है। शादी-ब्याह, पार्टियों में देखती हूँ कि 400-500 लोगों को खाना खिलाने-पिलाने में ही दिन-रात एक करना पड़ता है। यहाँ से चलकर एक बार फिर रात 10 बजे साईं बाबा जी के मुख दर्शन करने के बाद हम मनमाड स्टेशन के लिए निकल पड़े। स्टेशन पर यात्री प्रतीक्षालय में ठहरने के बाद हम सुबह 5 बजे महानगरी एक्सप्रेस से भीषण गर्मी में उबते-उबलते 1 बजे इटारसी पहुंचे। इटारसी में आधा घंटे बाद दूसरी ट्रेन पठान कोट एक्सप्रेस से यात्रा की अंतिम पड़ाव भोपाल के लिए रवाना हुए। नौतपे की आग उगलती भीषण तपती दुपहरी में सबका हाल बेहाल था। बच्चे पसीने से लथपथ होकर पानी कोल्ड-ड्रिक के रट लगाए हुए थे। इधर एक का गला तर हुआ नहीं कि दूसरे का गला सूख जाता। ऐसे में गुप्त जी की यह पंक्तियाँ याद आई -

"सूखा कंठ,पसीना छूटा, मृगतृष्णा की माया। 

झुलसी दृष्टि, अँधेरा देखा, दूर गई वह छाया । "


होशंगाबाद में माँ नर्मदा को नमन करते हुए ट्रेन साँय-साँय करती बुधनी के जंगल के बीच से सरपट भाग रही थी। मुझे बरसात के दिनों की याद आने लगी। तब इस घने जंगल में हरे-भरे पत्तों से भरे पेड़ होते हैं। आज इन्हें भी गर्मी से उजाड़ देखा तो लगा कि ये भी हमारी तरह ही हैरान परेशान हैं। लेकिन थोड़ा चिंतन कर लगा जैसे पत्तों से विहीन ये पेड़ तपन सहन कर हमें अपनी मूक भाषा में भीषण कष्ट सहन करने के प्रेरणा दे रहे हैं। यही तो हम इंसानों और प्रकृति में अंतर है, हम तनिक कष्ट से घबरा उठते हैं और उससे बचने के लिए बहुतेरे उपाय ढूढने में लग जाते हैं।. बावजूद तमाम उपायों के हम प्रकृति के मुकाबले कितने कमजोर हैं। यह गहन चिंता का विषय है। घर पहुंचकर राहत मिली।

    ..कविता रावत