मानव के लिए आत्मसम्मान की रोटी जरुरी - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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सोमवार, 16 मार्च 2015

मानव के लिए आत्मसम्मान की रोटी जरुरी

एक बूढ़े कोढ़ी, लंगड़े को देखकर भला कौन काम देता। लेकिन पेट की आग जो लगातार धधकती रहती है, उसे बुझाने के लिए दो वक्त की रोटी तो जरूरी है। अब दो वक्त की रोटी के लिए पैसे और पैसे के लिए कुछ काम, पर बूढ़े, लंगड़े और कोढ़ी आदमी को कौन काम देगा! अगर दे भी दिया तो क्या वह काम कर पाएगा? लेकिन पेट की आग के सामने ये सारे प्रश्न बेवकूफाना लगते हैं और लगने भी चाहिए। यूं तो वह चाहता तो किसी ट्राॅफिक सिग्नल पर अपनी लाचारी जताकर भीख मांगकर अपनी बची-खुची जिन्दगी काट लेता, पर नहीं; वह बेशक बूढ़ा, कोढ़ी व लंगड़ा था, लेकिन लाचार नहीं। पेट की भूख के साथ आत्मसम्मान की चिन्गारी हरपल उसे काम ढूढ़ने को उकसाती।
आज वह फिर काम की तलाश में बस अड्डे गया और हमेशा की तरह निराश होकर लौटा।  उसने सोचा कहीं तो कुछ गड़बड़ है जो सफलता हाथ नहीं आ रही। फिर यह जानने की जद्दोजहद शुरू हुई कि आखिर कमी क्या है? पता चलाना लक्ष्य है, न योजना और न ही उस योजना को पूरा करने के लिए उपयुक्त साधन। इस सबके संयोजन के लिए बहुत सा साहस चाहिए जो इस उमर में उस बूढ़े के पास कम ही था, पर वही भूख, बेगारी, आत्मसम्मान की तलवार उसे काम की तलाश के लिए उकसा जाती।
एक बार फिर वह काम की तलाश में बस अड्डा पहुंचा। अब उसके सामने लक्ष्य, योजना और साधन भी था। उसे ग्राहकों से खचाखच भरी वह दुकान दिखी जो शहर में अपनी लजीज जलेबी, समोसे और कचौड़ियों के लिए जानी जाती थी। उसका मन यह सब रोज खाने को करने लगा पर उसके लिए पैसे, पैसों के लिए काम और काम के लिए स्वस्थ शरीर कहाँ से लाता वह बूढ़ा। लेकिन आज वह हिम्मत कर दुकानदार से बोला-, "सेठ जी मुझे काम पर रख लो"। लेकिन सेठ ने एक ही नजर से उसे लताड कर भगा दिया। अगले दिन फिर वह उसी दुकान पर पहुंचा लेकिन सेठ के नौकर ने डंडा दिखा दिया तो वह सोचने लगा कि अब क्या करुँ? लेकिन उस बूढ़े को तो जैसे हार स्वीकार न थी। वह तुरन्त उठा और कहीं से एक टूटी कुर्सी जुगाड़ लाया और अगली सुबह उस दुकान के सामने डेरा जमा कर बैठ गया। आज उसने न सेठ से कुछ मांगा न उसकी ओर देखा। बस जो तकलीफ सेठ के ग्राहकों को उस दुकान के सामने खड़ी बेतरतीब गाडि़यों से होती थी, उन्हें तरतीबी से लगाने लगा। अपनी बैशाखी से अख्खड़ बूढ़ा लोगों से यूं सलीके से गाडि़याँ लगवाता मानो वही सेठ हो। लोग भी यह सोचकर उसकी बात मान लेते कि असहाय, बूढ़ा कोढ़ी, बाबा कुछ बोल रहा है तो सुन लो। अब वह हर दिन सुबह शाम बड़ी तत्परता से  उस दुकान के सामने गाडि़यों को सलीका सिखाता रहा। सेठ की दुकान के ग्राहक अब आराम से खुली जगह में बिना किसी धक्का-मुक्की के नाश्ता, जलपान आदि करते । गाडि़यों तो यूं पंक्तिबद्ध लगी रहती मानो किसी शोरूम में खड़ी हों। एक दिन वह भी आया जब सेठ ने बूढ़े को बुलाकर कहा- "तुमने इस हालत में भी मेरी बहुत बड़ी समस्या का समाधान किया है, इसलिए मैं आज से तुम्हें दोनों वक्त की रोटी और चायपानी के साथ 1200 रुपये मासिक की दर से काम पर रखता हूँ।"
 मिडलाइन इंडिया पत्रिका से संकलित