राजकुमार- तू अपने और मैं अपने घर का - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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मंगलवार, 2 अगस्त 2022

राजकुमार- तू अपने और मैं अपने घर का

कड़ाकी की सर्दी का मौसम था। घनी पहाड़ियों के बीच बसी सपेरों की बस्ती में एक कच्चे मकान में बाबा दीनानाथ अपने बेटे-बहू और इकलौते पोता और उसके एक छोटे से कुत्ते के पिल्ले के साथ दुबका पड़ा था। पिछले दो दिन की बारिश के बाद ठण्ड बढ़ गयी थी।  बाबा दीनानाथ का पोता बबलू उससे चिपका हुआ था और उसके बगल में उसका प्यारा पिल्ला छैलू  दुबका पड़ा था। ठण्ड के मारे किसी को भी नींद नहीं आ रही थी। बबलू अपने दादा दीनानाथ को बाबा कहकर ही पुकारता था। वह बार-बार उठकर उससे पूछता- “बाबा! बड़ी ठण्डी लग रही है, सुबेरा कब होगा? कब सूरज निकलेगा? कब धूप निकलेगी और कब वे  बड़े शहर जायेंगे और वहाँ से गरम कपड़े और पैसे माँगकर लाएँगे।" बाबा दीनानाथ उसे थपकी देकर सुलाते हुए कहते कि बेटा जल्दी ही सुबह होगी और वे शहर जाएँगे और वहाँ से ढेर सारे कपड़े और पैसे लाएँगे, अभी सो जा, नहीं तो सुबह नींद कैसे खुलेगी तेरी हाँ। बबलू हूँ, हां करता और अपनी छैलू को अपने सीने से चिपकाते हुए सो जाता, लेकिन फिर थोड़ी देर में ठण्ड की मारे जाग उठता और फिर वही रट लगाते बैठ जाता। बाबा फिर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता तो वह जैसे ही झपकी लेता बाबा बाहर जाकर आसमान देख आता। सोचता जाने, कब सुबह होगी? कभी वहीं बैठकर अपने अतीत के बारे में सोचने बैठ जाता। वह बार-बार भगवान को याद करता और सरकार को कोसने लगता। वह सोचता जब से सरकार ने उनके साँप का खेल दिखाने पर रोक लगाई है, तब से उनके बुरे दिन शुरू हो गए हैं। उन्हें दो जून की रोटी के लिए तरसना पड़ रहा है। बेटा जवान है तो उसे तो कभी-कभार मजदूरी मिल जाती है, लेकिन हम बूढें अब इस उम्र में क्या करें? बेटे की कभी-कभार की अकेले की कमाई से तो परिवार का पेट नहीं भरता, फिर कपड़े-लत्ते कहाँ से आएंगे। खेती-पाती भी कुछ नहीं है।  पुस्तों से यही तो एक हुनर था हमारे पास, जिसे इस सरकार ने बिना हमारे बारे में कुछ सोचे हमसे वह भी छीन लिया। अब जाएँ तो कहाँ जाएँ? और करें तो भी क्या करें? कुछ नहीं सूझता।

बाबा और पोते की पूरी रात ठण्ड में उठते-जगते कटी और जैसे ही सुबह हुई उनका खुशी का ठिकाना न रहा। बबलू को उसके दादा ने बताया था कि वे आज शहर जाएंगे, तो इस ख़ुशी में उसके कदम जमीन पर नहीं टिक रहे थे।  धूप अभी उनकी झोपड़ी से दूर थी, लेकिन जैसे ही दूर पहाड़ी टीले पर धूप क्या निकली कि बबलू और उसका पिल्ला छैलू उछलते-कूदते उस ओर दौड़ पड़े। बाबा भी उनको देख उनके पीछे-पीछे चले और थोड़ी देर बाद जब उन्हें धूप से कुछ राहत मिली तो तीनों वापस घर लौट आये।  जल्दी से बहु से दो रोटी बनवाई और प्याज नमक के साथ खाकर तीनों शहर के ओर चल पड़े। बाबा दीनानाथ सपेरा अपने कंधे पर एक झोला लटकाये हुए और बबलू अपने प्यारे छैलू साथ संकरी-संकरी पगडंडियों में उछल-कूद, धमाचौकड़ी मचाता चला जा रहा था। वह जब कभी बहुत आगे निकलकर बाबा की नजरों से ओझल हो जाता, तो वह चिंतित होकर उसे आवाज लगाता और जल्दी-जल्दी अपने बूढ़े कदम उसकी ओर बढ़ाता जाता। वह सोचता कहीं वह रास्ता भटक गया तो उसका तो जीना ही बेकार हो जायेगा।  ले-देके एक ही तो सहारा है जो उसका साथ देता है तो थोड़ा बहुत मैं भी कमा लेता हूँ। बबलू बाबा की आवाज सुनता तो और तेजी से भागते हुए कहता- “बाबा मैं बच्चा नहीं हूँ, जो रास्ता भटक जाऊंगा।" और फिर वह बहुत आगे निकल जाता।

बाबा उसकी मासूमियत भरी बात सुनकर मुस्करा कर रह जाता और सोचने लगता, सच ही तो कहता है कि वह बच्चा नहीं है। वह तो इस संसार में बूढ़ा होकर ही तो आया है। भला फिर वह बच्चा कैसे होगा? कुछ देर बाबा चुपचाप उसका पीछा करता रहता और फिर उसकी चिन्ता करने बैठता कि कहीं अगर उसके पैर में कांटा गड़ गया, रास्ता भूल गया, तो फिर .. , वह भयातुर तेजी से कदम बढ़ता और जब उसे वह दिखाई देता तो उसकी दिल की बढ़ती धड़कने वापस आ जाती।

पहाड़ियों से होते हुए वे शहर वाली सड़क पर पहुंचे और वहां से उन्होंने शहर की बस पकड़ी और शहर के बस स्टैंड पर पहुँच गए। बस स्टैंड पर काफी भीड़-भाड़ देखकर बाबा ने वहीँ अपना झोला उतरा और बीन बजाने शुरू की तो बबलू अपना करतब दिखाने लगा। बीच-बीच में उसका प्यारा छैलू भी उसका साथ देता।  बीन की मधुर आवाज सुनकर आस-पास के बहुत लोग इधर-उधर से आकर उनके पास इकट्ठे हुए। बीन के साथ एक बच्चे के करतब और छैलू की उछल-कूद लोगों के मन बहुत भायी। वे बाबा की बीन की मधुर आवाज और बबलू-छैलू की एक से बढ़कर करतब देख बार-बार हँसते हुए तालियाँ बजाते तो बाबा का चेहरा खिल उठता। लोगों को सपेरे की यह नई जुगलबंदी पहली बार देखने को मिली तो वे उनकी बड़ी सराहना भी कर रहे थे। खेल ख़त्म हुआ तो सबने ताली बजाई तो बाबा सबके आगे अपना झोला फैलाकर पैसे मांगने लगे। कुछ लोगों को उन पर दया आई तो उन्होंने उनकी झोली में कुछ चिल्लर डाले तो कुछ चुपके से एक-एक कर खिसकते चले गये। सबके जाने के बाद बाबा ने झोली उठाई और वे बबलू साथ लेकर आगे बढ़ने लगे। बाबा की बीन की आवाज में बड़ी मधुरता थी और बबलू-छैलू के करतब भी कम नहीं थे। बीन की मधुर स्वर और बबलू-छैलू के करतब वहीँ पास के एक बड़े मकान में खड़ी एक औरत बड़े ध्यान से सुन-देख रही थी। उन्हें वहां से आगे बढ़ते देख उसको उन पर बड़ी  दया आयी और उसने आवाज दी- "अरे सुनो, इधर आओ।" बाबा ने एक नजर उधर घुमाई और फिर बबलू की ओर जाने का इशार किया। बबलू अपने छैलू को लेकर उसके पास पहुंचा और चहकते हुए बोला- "मेम साहब आपने बुलाया क्या?"

"हाँ बुलाया, तुम एक मिनट यहीं रूको," कहकर वह घर के अंदर गई और कुछ पुराने कपड़े की एक पोटली लाकर उसे देते हुए बोली,- "ये गरम कपड़े हैं, ठण्ड बहुत है न, इसलिए पहन-ओढ़ लेना तुम लोग, ठीक हैं न।“

"हाँ" की मुद्रा में सिर हिलाते हुए बबलू बहुत खुश हुआ उसे लगा जैसे उसके हाथ कारूँ का खजाना लग गया। अपने बाबा को चहकते हुए बोला, "देखो बाबा! इधर आओ, देखो क्या मिला है मुझे? बहुत भारी है।  जल्दी आओ न। देखो, नए-नए गरम कपड़े हैं, अब मुझे ठण्ड नहीं लगेगी न?" बाबा ने पास आकर देखा तो मुस्कराकर उसके सर पर हाथ फेरते हुए 'हां  बेटा' कहते हुए पोटली उठाई और आगे निकल पड़े।  बाबा सोचता भले ही कपड़े पुराने हैं, किन्तु बबलू बच्चा जो ठहरा! कभी नए कपड़े तो देखे नहीं इसने, इसलिए समझ रहा है उसे आज नए कपड़े मिल गए हैं, उसकी ख्वाईश जो पूरी हो गई।

दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक बंगले के सामने काफी लोगों की भीड़़ जमा थी।  वे उसी ओर चल दिए। सोचा अच्छे खासे लोग हैं, कोई तो दया करके दो-चार रूपए-धेले तो दे ही देगा। यही सोचकर जब वे उस बंगले के गेट तक पहुंचे तो उन्होंने देखा एक छोटा बच्चा अपने हाथ-पैर जमीन पर पटक-पटक कर रो रहा था। उसे बहुत सारे लोग मना रहे थे, लेकिन वह है कि किसी की सुन ही नहीं है, बस रोये जा रहा रोये जा रहा है। एक महिला की नजर बाबा पर पड़ी तो वह उससे कहने लगी- "चुपके से पढ़ने बैठ जा बैठे, नहीं तो वो जो बाबा हैं न सामने, हम आपको उनको दे देंगे, समझे।"

बच्चे ने एक नज़र बाबा को देखा और फिर चिल्लाकर कहने लगा- "नहीं, नहीं, मुझे पढाई नहीं करनी, मुझे खेलना है" और फिर उसने हाथ पैर पटकना शुरू कर दिया।

"अगर अब तू सीधे से पढ़ने नहीं बैठा तो हम तुझे उस पिल्ले से कटवा देंगे।"  बच्चे की माँ ने बबलू के छैलू की ओर इशारा करते हुए कहा तो बच्चे का ध्यान जैसे ही बबलू के पिल्ले की ओर गया। वह चुप हो गया। यह देखकर सबने बड़ी राहत की साँस ली कि चलो आखिर बच्चा डरकर चुप हो ही गया।  किन्तु बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है, वे यह थोड़े समझते थे, बच्चे ने पिल्ले को देखकर फिर रोना-धोना शुरू कर दिया। उसकी मां ने जब उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा- “बेटा अब क्या हुआ, अभी तो तू चुप हो गया था, फिर क्या हुआ अचानक, बता मेरे राजकुमार?" तो वह मुँह बिचकाते हुए बबलू के पिल्ले की ओर इशारा करते हुए बोला- “डाॅगी-डॉगी।“ उसकी मां ने समझा उसे पिल्ला देखना है तो वह 'हां-हां' कहते हुए उसका हाथ पकड़कर पिल्ले के पास लाकर बोली- “छी, छी बड़ा गन्दा है न?“ अपने पिल्ले को गन्दा कहते सुनकर बबलू नाराज होकर बोला-"नहीं, नहीं  मेरा छैलू तो बहुत प्यारा है, गन्दा थोड़े ही है।" वह महिला 'हाँ, भई है, होगा? कहते हुए अपने बेटे का हाथ पकड़कर उसे वापस घर चलने को कहने लगी।

"नहीं, नहीं ....." बच्चे ने बड़ी मासूमियत से कहा और उससे अपना हाथ छुड़वाते हुए चिल्ला-चिल्ला कर 'डाॅगी-डॉगी' कहता हुए उसके पीछे-पीछे भागने लगा।

बाबा और बबलू उसे देख रहे थे। छैलू आगे-आगे और बच्चा पीछे-पीछे लेकिन वह उसे पकड़ नहीं पाया तो जोर-जोर से रोते हुए बैठ गया। वह बैठकर भी "डाॅगी-डॉगी" की रट लगाए था, जिसे सुनकर बंगले के अंदर से एक चश्मेधारी साहब निकले और बाबा और बबलू को घूरने लगे।

“यह क्या बद्तमीजी है?"  वह रौबदार गुस्से भरी आवाज में बोला  “किसने तुम्हें यहाँ आने दिया? भागो यहां से।“

"जी साहब, वो बात यह है कि ........।“ बाबा कुछ कहना चाहता था लेकिन चश्मेधारी साहब ने उसे बोलने नहीं दिया।

"कोई बात नहीं सुनना, दफा हो जाओ।" वह चिल्लाकर बोला।

बाबा चश्तेधारी साहब का मुंह ताकते रह गए। उन्होंने वहां से खिसकने में नहीं अपनी भलाई समझी। वे अभी जैसे ही आगे बढ़ने को हुए बच्चा फिर जमीन पर वहीं मिट्टी में अपने हाथ-पैर पटकते हुए लोटपोट होकर चिल्लाने लगा-“मुझे डॉगी चाहिए, मुझे डाॅगी चाहिए।"

बाबा ने बबलू का हाथ पकड़ा और बबलू ने छैलू को गोदी में उठाया और वे वहां से सरपट भागने लगे तो वह बच्चा और ऊंची आवाज में चिल्लाने लगा। सभी उसे समझाने का असफल प्रयास करते रहे लेकिन वह अपनी जिद्द पर अड़ रहा और "डाॅगी-डाॅगी" चिल्लाता रहा।

बच्चे की मां को उसका रोना अच्छा नहीं लगा तो उसने अपने नौकर को बुलाया और जल्दी से उन्हें बुलवा लाने भेजा।

बाबा और बबलू अभी थोड़ी दूर से चले थे कि पीछे से नौकर ने आवाज दी तो वे आशंकित होकर और तेजी से भागने लगे। नौकर बहुत तेजी से दौड़कर उनके पास पहुंचा और उन्हें 'डरों नहीं' कहते हुए रोते बच्चे और उसकी मां की ओर इशारा करते हुए बोला- "मेरे साथ चलो, वो लोग बुला रहे हैं तुम्हें।"

नौकर की बात सुनकर बाबा बोला- "न बाबा न, हम नहीं चलेंगे।" वो चश्मीश साहब थे न वे किस तरह हम पर बेमतलब गुस्सा कर रहे थे, देखना नहीं तुमने हमें भगा रहे थे। तुम जाओ भैया, हमें नहीं आना तुम्हारे साथ,  हम तो जा रहे हैं"  कहते हुए वे जब आगे बढ़ने लगे तो नौकर को एक युक्ति सूझी वह उन्हें प्रलोभन देते हुए बोला-  "अरे, रूको तो बाबा, नाराज क्यों होते हो। तुम्हें वो साब नहीं मैमसाहब ने बुलाने भेजा है, चलो शायद कुछ देना चाहती हैं, वे बड़ी दयालु हैं।" नौकर की युक्ति काम आई और वह उन्हें मनाकर जब गेट के पास आया तो मैम साहब धीरे से उनसे बोली- “सुनो बाबा, ऐसा करो अपना ये पिल्ला मुझे दे दो। मेरा राजकुमार मान नहीं रहा है।  बोलो, कितने पैसे दे दूं इसके?“

बाबा थोड़ी दूर खड़ा था उसे थोड़ा कम सुनाई देता था इसलिए वह बोला- "दे दो मैमसाहब जो कुछ कुछ दया धर्म के नाम पर देना हो। भगवान आपका भला करेगा।“

"ओहो, मैं पूछ रही हूँ, अपना पिल्ला कितने में दोगे?“ बच्चे की मां खिन्न होकर बोली।

“पिल्ला, ये तो मेरे पोते का प्यारा छैलू है, वह इसी के साथ खाता-पीता, खेलता-कूदता और उसके साथ सोता है। बहुत प्यार करता है वह अपने छैलू से, फिर मैं ऐसे में मैं इसे आपको कैसे दे दूँ?" बाबा अपने पोते की ओर देखते हुए पिल्ले को सहलाते हुए बोला तो बबलू मुस्कुराया।

बच्चा "डाॅगी-डाॅगी" की रट लगाये सर आसमान यह उठाये जा रहा था। घर के सभी लोग उसे समझाने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन वह किसी की नहीं सुन रहा था।

"हे भगवान, कोई तो चुप कराओ इसे", झल्लाते हुए बच्चे की मां बोली और बाबा को समझाते हुए बोली- “ अरे तुम समझते क्यों नहीं बाबा, क्या करोगे तुम इस पिल्ले का, कितने में दोगे जल्दी से बताओ। मुझसे मेरे लाड़ले राजकुमार का रोना बर्दाश्त नहीं हो रहा है"

"नहीं, मैम साहब ये बेचने की चीज थोड़ी ही है, इसमें मेरे पोते की जान बसती है। उसका दिल टूट जायेगा।" बाबा अपने पोते के उतरे चेहरे की ओर देखते हुए बोला।

"अरे तुम एकदम पागल हो, पिल्ला ही तो मांग रही हूँ तुमसे और उसके बदले तुम्हें पैसे तो दे रही हूँ।“  बच्चे की मां अपना सर पकड़ते हुए बोली-" जल्दी बोलो, कितने में दोगे अपना पिल्ला, दो सौ, चार सौं .......पांच सौ .............  अरे कुछ तो बोलो न काठ के उल्लू।“

"काठ के उल्लू्! हूँ, चल बबलू " और वह अपने बबलू और छैलू को साथ लेकर वहां से जाने लगा। उसे आगे बढ़ते देख बच्चे ने और जोर-जोर से चिल्लाते हुए हाथ-पैर पटकने शुरू किये तो उसकी कर्कश आवाज सुनकर पीछे खड़े चश्मेधारी साहब ने उन्हें हाथ में एक हज़ार के नोट दिखाते हुआ कहा -" ऐ सपेरे सुन! मैं देख रहा हूँ कि तू बहुत ज्यादा भाव खा रहा है, अबे तेरी और तेरे पिल्ले की औकात है ही कितनी, अबे गधे दिमाग-उमाग है कि नहीं तुझमें, सोच जरा, ले एक हजार रूपए रख और पिल्ला यहीं छोड़ के चला जा। हम अपने पोते को इस तरह रोते नहीं देख सकते। "

"बड़ा आया तुम्हारा पोता,  हमें नहीं देना है अपने पोते का पिल्ला, चाहे एक हजार दो पांच हजार।" और वे वहां से तेजी से भाग खड़े हुए।

“अबे अगर फिर आओगे न कभी तो सीधे थाने में बंद करवा दूंगा, सिकाई करवा दूंगा। जेल डलवा दूंगा। तब पता चलेगा तुम्हें, साले भिखारी कहेंगे। कितने भाव बढ़ गए इनके आजकल।" चश्माधारी साहब चिल्लाते रह गए, लेकिन वे बड़ी तेजी से ऐसे भागे जैसे कोई आफत उनके पीछे पड़ी हो।

बाबा चश्माधारी साहब की बातों से समझ गए कि वे जरूर पहले पुलिस वाले साब रहे होंगे, तभी तो थाना,सिकाई, जेल और गाली देना नहीं भूले हैं। बंगले से बहुत दूर आने के बाद बबलू ने अपनी चुप्पी तोड़ी और अपने दादा के गले लगते हुए पूछा -" क्यों दादा! अगर तुम डर के मारे उन्हें पिल्ला दे देते तो मैं अकेले कैसे रहता उसके बिना?"

यह सुनकर बाबा ने उसका माथा चूमा और बोला-"अरे ऐसे कैसे दे देता। बाप का राज थोड़े ही है। उनका पोता होगा अपने घर का राजकुमार तू क्या कम है उससे मेरे लाड़ले।" यह सुनते ही बबलू ने बड़ी मासूमियत से अपने दादा की आँखों में झाँका और बड़ी मासूमियत से कहने लगा-"हाँ, तो वो उसके घर का राजकुमार और मैं मेरे घर का राजकुमार हुआ न बाबा?"  बाबा को उसकी मासूम बातें सुनकर हँसी आ गई, कहने लगे-"हाँ बेटा"  फिर उसे सुनाते हुए अपनी भड़ास निकालने लगे- "देखा तूने उस राजकुमार को कैसे अपनी जिद्द पर अड़ा था। कह रहा था पढाई नहीं करनी, खेलना है। और फिर देखो तो जैसे ही तेरे इस छैलू को देखा तो इसकी जिदद पकड़ ली, "डाॅगी दे दो,  डाॅगी दे दो, कैसे रो-रोकर एक ही रट लगा रहा था और उसकी माँ और दादा को तो देखो,  उसे मनाने का कोई दूसरा तरीका नहीं आया तो चले हमारे छैलू की बोली लगाने। माना की वे पैसे वाले हैं कुछ चीजें खरीद सकते है लेकिन आज तो वह डॉगी मांग रहा है कल अगर चाँद मांगेगा तो क्या उसे भी लाकर दे देंगे पैसों से खरीदकर? इतनी सी बात समझते नहीं और हमें गधे,उल्लू के पट्ठे, औकात नहीं है और भी जाने क्या-क्या बकते हुए अपने बहुत बड़ा समझ रहे थे। अरे नहीं चाहिए हमें ऐसे लोगों की हमदर्दी, हम अपने घर में जैसे-तैसे रह लेंगे।"  पैदल-पैदल चलते वे बस स्टैंड पहुंचे और वहां से उन्होंने बस में बैठकर अपनी दुनिया की राह पकड़ ली।  अपनी दुनिया में पहुंचकर बाबा और बबलू को इस बात कि बड़ी ख़ुशी थी कि कुछ पैसों के साथ कम से कम ठण्ड से बचने के लिए आज किसी ने तो उसका प्रबन्ध कर ही दिया।

.. कविता रावत 

# कहानी 'गरीबी में डॉक्‍टरी' कहानी संग्रह से ली गई है। 

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