होंठों पर तैरती मुस्कान! - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

होंठों पर तैरती मुस्कान!

हर शासकीय अवकाश के दिन सरकारी कामकाज  के लिए दफ्तर पूरी तरह से बंद हों, इस बात का पता लगाना आम आदमी के लिए कोई हँसी खेल का काम तो कतई नहीं हो सकता शासकीय कैलेंडर और डायरी में अंकित अवकाश के दिन कुछेक अधिकारी व कर्मचारी कितनी सफाई और मुस्तैदी के साथ कुछ गैर-जरुरी कामकाज निपटाते हुए इनका सदुपयोग करते हैं, यह बात जानना साधारण किस्म के लोगों के बूते से बाहर की बात है ऐसे ही रविवार के एक दिन प्राकृतिक छटा से पूरित एक छोटे से शहर के  ऑफिस में उसका चौकीदार मुँह में अपना पसंदीदा गुटका दबाये सिगरेट के कश लगता हुआ बड़े बाबू  की आराम कुर्सी से चिपका बड़े बाबू बनने के सुनहरे सपनों में खोया गोते लगाने में मग्न था  एकाएक बड़े साहब की जीप की खड़खड़ाहट के साथ तेज हार्न ने उसके सपनों पर जैसे पानी फेर दिया। वह हड़बड़ाकर ऑफिस बंद किए ही गेट की ओर भागा। साहब अकेले नहीं थे उनके साथ बड़े बाबू जी भी बैठे थे जो किसी बात पर मंद-मंद मुस्कराते नजर आ रहे थे। कहीं ऑफिस खुला देख साहब और बड़े बाबूजी नाराज न हो जाए इसलिए उसने जल्दी से सलाम ठोंकते हुए गेट खोला और जीप के अंदर घुसते ही जल्दी गेट बंद कर ऑफिस की ओर लपका। उसको यूं हड़बड़ी में भागते देख बड़े साहब और बाबू जी ने एक साथ आवाज लगाई- ‘'क्यों! क्या हो गया?'‘ जिसे सुन उसके कदम वहीं ऑफिस के दरवाजे पर ठिठक गए। उसका मन आंशकित हो उठा कि कहीं ऑफिस खुला देख डांट-फटकार न खानी पड़े। लेकिन ऐसी कोई नौबत आने के पहले ही बिजली गुल हो गई जिससे उसने गहरी राहत की सांस लेते हुए मन ही मन बिजली विभाग को तहे दिल से धन्यवाद दिया। 
          गर्मी बहुत थी इसलिए आफिस के अंदर बैठ पाना मुश्किल था, इसका भान होते ही बड़े बाबू जी ने चौकीदार  को दो कुर्सियाँ निकालकर वहीं बाहर आम के पेड़ की छांव में लगाने का फरमान जारी किया। चौकीदार तो जैसे पहले से ही इसके लिए तैयार खड़ा था वह फौरन दो कुर्सियां लगाकर ऑफिस से ट्रे में दो गिलास रखकर पानी लाने के लिए पास के हैंडपंप की ओर भागा और फौरन पानी पिलाते हुए चाय का कहकर गेट के बाहर खड़े चाय के ठेले की ओर कूच कर गया। उसकी फुर्ती देख बड़े साहब ने बड़े बाबू की ओर मुस्कराते हुए चुटकी ली- ‘"भई बहुत ट्रेंड कर रखा है आपने इसे! " इस पर बड़े बाबू जी भी सिर हिलाते हुए "जी सर" कहकर सगर्व मुस्करा उठे। 
          अब हर दिन ऑफिस के कामकाज और बातों में भला किसका मन रमता है। वे कर्मचारी विरले किस्म के जीव होते हैं जो हर समय ऑफिस-ऑफिस खेलकर खुश हो लेते हैं । बड़े साहब और बड़े बाबू जी भी ऑफिस की कुछ छोटी-मोटी बातों को दरकिनार करते हुए देश-दुनिया की बातों में रम गये। देश की राजनीति से लेकर आम आदमी की बिगड़ती दशा-दिशा पर दोनों ने खूब दिल खोलकर अपने-अपने विचारों का जमकर  आदान-प्रदान करने में कोई कोर-कसार बाकी नहीं छोड़ना गवारा नहीं समझा । दोनों महानुभावों के बीच चबूतरे पर बैठा एक बेचारा चौकीदार ही था जो उसमें शिरकत करने में सर्वथा असमर्थ था। बहरहाल वह एक आम अदने भले इंसान की तरह यह सोचकर कर एक अच्छा श्रोता बन चुपके से उनको सुन रहा था कि अवसर आने पर वह भी अपनी बिरादरी के बीच बैठकर जिस दिन यह सब पका-पकाया लम्बा-चौड़ा भाषण सुनायेगा तो उस दिन उसकी भी खूब वाहवाही होनी तय है और कुछ नहीं तो तब भी लोग उसे अपने मोहल्ले का नेता तो देर-सबेर बना ही लेंगे। फिर मुझे भला माननीय बनने में भला देर कितने लगने वाली ....  इधर वह इसी उधेड़बुन में अपनी दुनिया में खो गया तो उधर आम आदमी के लिए चिन्तित होकर हैरान-परेशान होते हुए बड़े साहब का ध्यान आम की घनी पत्तियों के ओट में छुपी हुई लटकती कैरियों पर जा अटकी, जिसे देख उनके होंठों पर हल्की मुस्कान तैरने लगी वे विषय परिवर्तन करते हुए बड़े बाबू जी की ओर मुखातिब हुए- ‘"क्यों? बड़े बाबू! इस वर्ष लग रहा है आम की पैदावार कुछ ज्यादा है।"  "जी सर! मुझे भी ऐसा ही लगता है।" बड़े साहब की मंशा भांपते हुए पेड़ का मुआयना करते हुए बड़े बाबू जोश में बोले। 
          "लेकिन इस पेड़ के आम पककर कहाँ जाते है? मुझे तो आज दिन तक कभी इसकी खबर तक नहीं हुई।" बड़े साहब ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए जैसे स्पष्टीकरण मांगा डाला।
        "सब बन्दर खा जाते हैं सर!"‘ बड़े बाबू जी ने भी तपाक से स्पष्टीरकण ऐसे दिया जैसे यह तो उनके रोजमर्रा का बाएं हाथ का खेल हो। 
        "बन्दर!"  यह बात हज़म न कर पाने की स्थिति में सहसा बड़े साहब की भौंहों पर बल पड़ा। जिसे देख बड़े बाबू जी पहले कुछ असहज हुए लेकिन जल्दी ही इत्मीनान से "जी सर! " कहकर मौन हो गए। 
       "उफ! ये कम्बख्त बन्दरअब देखो न! कितनी अच्छी कैरियां हैं! इनका तो बहुत अच्छा अचार बन सकता है? क्यों बड़े बाबू?"  कैरियों पर ललचाई दृष्टिपात करते हुए साहब ने बड़े बाबू के चेहरे पर अपने निगाहें जमा ली। 
        "जी सर! अभी तुड़वा लेता हूं।" बड़े बाबू जी को बड़े साहब की मन की बातें पढ़ने में कोई देर नहीं लगी। उन्होंने तुरन्त चौकीदार को एक भारी भरकम आवाज लगाई- 
        "अबे! सो गया क्या? कहाँ खो गया?  "कहीं नहीं सर!" उधर से एक मरियल सी  आवाज बाहर निकली। 
सुन! पेड़ पर तो चढ़ना आता हैं न?"  बड़े बाबू ने आम के पेड़ पर सरसरी निगाह डालते हुए कहा। "जी सर" ‘चौकीदार ने जैसे ही बड़े आत्मविश्वास से कहा बड़े बाबू ने अविलम्ब हुक्म फरमाया- "तो फटाफट पेड़ पर चढ़कर बड़े साहब के लिए कुछ कैरियां तोड़ ला! देखता नहीं कितनी अच्छी कैरियां हैं, अचार डालना है।" चौकीदार ‘जी सर' कहते हुए ऑफिस से एक थैला लाकर बड़ी फुर्ती से बन्दर की तरह फटाक से पेड़ पर चढ़ गया और दूर-पास लगी कैरियां तोड़कर थैला भरने लगा था। बड़े साहब और बड़े बाबू ‘संभल-संभल कर तोड़ना! शाबास! शाबास!' कहकर उसका हौंसला अफजाई तब तक करते रहे जब तक वह थैला भरकर नीचे नहीं उतर गया। बड़े साहब के सामने बड़े बाबू जी ने कैरियों का अच्छी तरह से निरीक्षण-परीक्षण कर अपनी टीप प्रस्तुत की तो बड़े साहब ने भी सहर्ष "ओके"‘ करते हुए जीप में रखने के लिए चौकीदार को आर्डर देने में कोई देर नहीं लगाई। थैला जीप पर लद गया यह देखकर बड़े साहब को ऑफिस के आँगन में फलते-फूलते  आम के पेड़ को देख अपार प्रसन्नता की अनुभूति हुई, उनके चेहरे पर आत्मतृप्ति के भाव उभरते देर नहीं लगी, जिन्हें पढ़ने में माहिर बड़े बाबू फूले न समाये। 
          दोपहर में गर्मी तेज हुई तो बड़े साहब ने घर चलने की इच्छा जाहिर की तो बड़े बाबू जी 'जी चलिए' कहते हुए उठ खड़े हुए और दोनों गप्पियाते हुए निकल पड़े। साहब का बंगला ऑफिस के नजदीक था जैसे ही उनका बंगला आया और वे उतरने लगे तो बड़े बाबू जी ने सकुचाते हुए कुछ दबी जुबाँ से कहा -"सर! एक निवेदन था आपसे!"   "हाँ!हाँ! बोलिए! क्या बात है?"  साहब बड़े बाबू के चेहरे पर नजर डालते हुए मुस्कराते हुए बोले तो बड़े बाबू जी को तसल्ली हुई और वे धीरे-धीरे बोले- "सर! कल भी छुट्टी है, यदि आपका कोई प्रोग्राम न हो तो मुझे कल शाम तक के लिए जीप चाहिए थी।"  "क्यों! कुछ खास काम है क्या? साहब ने जानना चाहा तो बड़े बाबू थोडा अटक-अटक कर बोले- ‘"सर! कल हमारे एक निकट संबंधी के घर सगाई है.. बस उसमें शामिल होने के लिए हमारे घर वालों  ने आज शाम का प्रोग्राम बनाया है" आपकी इज़ाज़त मिल जाती तो .... बड़े बाबू जी अटके तो बड़े साहब "चलिए ठीक है, अभी बताता हूँ।"‘ कहते हुए बंगले के अंदर घुस गए। बड़े बाबू जी को समझते देर नहीं लगी  कि साहब जरूर मैडम से पूछकर ही जवाब देने की स्थिति में आ पाएंगे। यह सोचकर वे थोड़े मायूस हुए कि कहीं मैडम जी का कुछ काम निकल आया तो फिर निश्चित ही उनके घर वालों का बना बनाया प्रोग्राम बिगड़ जाएगा और इसके लिए उन्हें भी अपने घरवालों की अलग से कुछ न कुछ दो-चार बातें जरूर सुननी को मिलेगी, जो उन्हें हरगिज गंवारा नहीं था। और भला गंवारा क्यों हो रिश्तेदारी में इन सबसे नाक जो कुछ  ऊँची दिखने लगती है ....  हाँ  या  न, का गुणा-भाग चल रहा था कि साहब एकाएक दरवाजे पर प्रकट हुए और "हाँ ठीक है बड़े बाबू जी, ले जाइए।" कहते हुए अंतर्ध्यान हो गए। बड़े बाबू जी की जैसे ही मुराद पूरी हुए वे फौरन "थैक्यू यू सो मच सर! " कहते हुए पिछले सीट से उचकते हुए अगली सीट पर प्रमोट होकर जा बैठे। ड्राइवर अब तक बड़े बाबू जी की जुगत के पैंतरे समझ चुका था और वह भी आज अपना कोई न कोई पेंच लगाकर अपना कोई न कोई जुगाड़ भिड़ा देगा यह सोच वह बड़े बाबू जी के कहने से पहले ही फ़ौरन चल दिया। घर पहुंचकर जैसे ही जीप की आवाज बड़े बाबू जी के घरवालों के कानों में गूंजी वे खुशी-खुशी उछलते हुए स्वागत के लिए घर से बाहर निकल पड़े।  पर ड्राइवर को शाम को जल्दी आना कहकर जैसे ही बाबू जी ने घर के दरवाजे की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि ड्राइवर यह कहकर अड़ गया कि कल मुझे घर पर काम है, इसलिए मैं नहीं चल सकूंगा। बड़े बाबू जी ने जैसे यह सुना पहले तो उन्हें थोड़ा गुस्सा आया कि बड़ी मुश्किल मैं जुगाड़-तुगाड़ कर गाड़ी का इंतजाम कर पाता हूं ऊपर से यह ड्राइवर का बच्चा भी जब तब भाव खाने लगता है। खैर वे ड्राइवर के मंसूबें भांप गए इसलिए उन्होंने उसे चुपके से उसकी मुगली घुट्टी का पक्का इंतजाम का वादा किया तो वह सहर्ष चलने को तैयार हो गया।
         शाम को नियत समय पर जीप आ पहुंची। घरवाले सभी तैयार खड़े थे। बड़े बाबू के साथ ही घरवाले बड़े साहब की मेहरबानी से बस के उबाऊ सफर से बच निकले इसलिए उन सबकी आंखों में रौनक और चेहरे पर लाली छाई हुई थी। ड्रायवर भी खुश था कि उसका भी दोनों दिन का खाने-पीने का जुगाड़ बड़े बाबू जी की कृपा से पक्का है। सूरज लालिमा लिए हुए ढ़लने लगा। जीप शहर से होकर गांव की सड़क पर सरपट भागी जा रही थी। बड़े बाबू जी अगली सीट पर बड़े सुकून से बैठे कभी बीबी-बच्चों से गप्पिया रहे थे तो कभी बीच-बीच में सड़क के किनारे लगे आम के पेड़ों पर लगी कैरियों के देख मंद-मंद मुस्कराए जा रहे थे जिससे  उनके होंठों पर मुस्कान तैर रही थी।

                     ...कविता रावत 



53 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

इस हाथ दे उस हाथ ले .... बहुत बढ़िया व्यंग्य. सबकी अपनी अपनी चाल

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

vyavastha per katach karti achchi kahani hai

vijay ने कहा…

....कवितायेँ और संस्मरण लिखने का तो आपका जवाब नहीं आज पहली बार में ही कहानी पोस्ट कर सीधे छक्का जड़ दिया..........तारीफ़ के लिए शब्द बहुत कम है मेरे पास ....बहुत खूब लिखा है.......कहानी के किरदारों में मुझे जैसे अपने ही आस-पास के सरकारी दफ्तर और अधिकारी-कर्मचारी नज़र आने लगे ... इसी तरह खूब लिखते रहो जी..छा जाओगी एक दिन ....मेरी अनंत शुभकामनाएं .......

Rajeysha ने कहा…

आपका मेल मिला तो हमने आपकी पूरी पोस्ट गंभीरतापूर्वक पढ़ी, पर इसमें कुछ भी व्यंग्य जैसा नहीं दिखा।
मैंने पाया है कि जब हम ब्लॉग या किसी अन्य मंच पर केवल अपनी निरन्तरता दिखाने भर के लिए लिखते हैं तो अक्सर बात स्तर से नीचे चली जाती है। एक दिन मैं अपने ब्लॉग का ​पुर्नविश्लेषण करने बैठा तो, ऐसा ही बहुत कुछ बेमतलब सा या स्तरहीन अपने ब्लॉग पर दिखा। तब से मैं इंतजार में हूं कि कुछ बेहतर सूझे तो पोस्ट करूं। मैं लगभग पॉंच 5 महीने से प्रतीक्षा कर रहा हूं... मेरे ख्याल से सबको इस मामले में सब्र रखना चाहिए।

समय चक्र ने कहा…

bahut badhiya vyangy ...

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

Nice story.

mukti ने कहा…

तो छुट्टी के दिन पर्सनल हिसाब-किताब का काम गंभीरतापूर्वक संपन्न हुआ :)

अरुन अनन्त ने कहा…

बेहद रोचक और सुन्दर कहानी है कभी फुर्सत में यहाँ भी पधारें www.arunsblog.in

Unknown ने कहा…

बहुत बढ़िया रोचक कहानी ....

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

अंदाज नया है लेकिन रोचक भी......

travel ufo ने कहा…

कविता जी मै तो सोच रहा था कि इसका दूसरा भाग होगा । आप चाहें तो बना सकते हैं बडी अच्छी है रचना

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

देखिये, एक छुट्टी में कितना काम छिपा है।

बेनामी ने कहा…

रोचक चित्रण के माध्यम से करारा व्यंग - बधाई

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक आलेख!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

कविता जी! कमाल का प्रवाह है आपके लेखन में.. और नौकरशाही की अमियाँ तो बहुत ही खट्टी थी.. हाँ मुगली घुट्टी ५५५ का जवाब नहीं!! आपकी इस रचना में छिपा व्यंग्य बिलकुल निशाने पर लगा है!! बधाई!!

PS ने कहा…

वाह कविता जी! आपका कहानी का अंदाज भी आपकी कविताओं के तरह ही लाजवाब है . आपको .हार्दिक बधाई हो!

डॉ टी एस दराल ने कहा…

एक दिन के लिए ही सही , बड़े बाबु से बड़ा साहब बनने में मज़ा तो आता है .
सरकारी मानसिकता का ज़वाब नहीं .
मज़ेदार कहानी .

डॉ टी एस दराल ने कहा…

एक दिन के लिए ही सही , बड़े बाबु से बड़ा साहब बनने में मज़ा तो आता है .
सरकारी मानसिकता का ज़वाब नहीं . मज़ेदार कहानी .

Dr. sandhya tiwari ने कहा…

बहुत बढ़िया रोचक..........बधाई ......

नुक्‍कड़ ने कहा…

व्‍यंग्‍य का पुट देते हुए एक रोचक कहानी बन गई है, बधाई जो सामान्‍य से अधिक कहानी पाठकों का ध्‍यान अवश्‍य खींचेगी।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

साहब से बाबू होशियार होते है,,,,अपनी जुगत लगा ही लेते है,,,,,रोचक कहानी,,,,,बधाई कविता जी,,,,

MY RECENT POST: माँ,,,

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

कल 13/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

रोचक .... सबके अपने स्वार्थ निहित होते हैं ....

बेनामी ने कहा…

साब-बाबू की आपस में ऐसे ही जब खूब चलती है
तब सरकारी गाडी यूँ ही फलती-फूलती रहती है.......
आखिर संपत्ति जब हम अपनी मानकर चलते हैं तो फिर छुट्टी के दिन का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या होगा!
खूब रास आयी कहानी .... कविता जी बधाई हो बधाई ..

Surya ने कहा…

सरकारी छुट्टी के दिन करने का परिसाद कुछ तो बनता ही है ....जुगाड़ दा जवाब नहीं ....सरकारी तंत्र का बोध बहुत सुन्दर ढंग से कहानी में देखने को मिला ...शुभकामनाये स्वीकारे!

Ramakant Singh ने कहा…

दुनियां का दस्तूर है .

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

जीवन के सहज अनुभवों से जुड़ी अच्छी कहानी।

RAJ ने कहा…

अरे मैडम जी ये तो मेरे ऑफिस की कहानी है बस एक कमी है इसमें मैं छोटा बाबू छुट गया हूँ बस ..बाकी सब झकास है ...धन्यवाद जी ..आगे की कहानी जरुर लिखना जी.....

Satish Saxena ने कहा…

बाबू की जुगाड अच्छी रही मगर आपको कैसे पता चला ??

virendra sharma ने कहा…

ऐसे ही रविवार के एक दिन प्राकृतिक छटा से पूरित एक छोटे से शहर के ऑफिस में उसका चौकीदार मुँह में अपना पसंदीदा गुटका दबाये सिगरेट के कश लगता।।।।।।(लगाता .........) हुआ बड़े बाबू की आराम कुर्सी से चिपका बड़े बाबू बनने के सुनहरे सपनों में खोया गोते लगाने में मग्न था ।

लेकिन इस पेड़ के आम पककर कहाँ जाते है? मुझे तो आज दिन तक कभी इसकी खबर तक नहीं हुई।" बड़े साहब ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए जैसे स्पष्टीकरण मांगा ............(मांग ...........)डाला।

बड़े बाबू जी अगली सीट पर बड़े सुकून से बैठे कभी बीबी-बच्चों से गप्पिया रहे थे तो कभी बीच-बीच में सड़क के किनारे लगे आम के पेड़ों पर लगी कैरियों के देख मंद-मंद मुस्कराए जा रहे थे जिससे उनके होंठों पर मुस्कान तैर रही थी।

सरकारी दफ्तरों की सरकारी इंतजामात और प्रबंध की लूट का बड़ा रोचक विवरणात्मक कच्चा चिठ्ठा .आम की कैरिया ,जीप और मुगली घुट्टी ऐसे ही यह व्यवस्था ऊपर तक जाती है जिसके हाथ जो आजाए .आभार आपका हमारे ब्लॉग पे पधारने का .

संध्या शर्मा ने कहा…

बेहद रोचक कहानी... बधाई कविता जी...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

सरकारी नौकरी के यही तो धंधे हैं !

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

सच्चाई को आइना दिखाती पोस्ट
बढिया व्यंग

Arvind Jangid ने कहा…

बहुत सटीक इसे अब अपनी मजबूरी कहो ... या वक्त का तकाजा...सच तो ये ही है.

रोली पाठक ने कहा…

हर सरकारी दफ्तर की है यही कहानी....बहुत ही सटीक खाका खींचा है आपने |

रचना दीक्षित ने कहा…

सरकारी दफ्तर और उसमें होने वाले कामकाज पर पैनी नज़र डालती है यह कहानी बहुत उम्दा लगी. आगे और भी सजीव कहानियां पढाने की आकांक्षा.

मन्टू कुमार ने कहा…

रोचक लेखन...एक सच सरकारी दफ्तरों का..|

सादर नमन |

Rajesh Kumari ने कहा…

बहुत शानदार रोचक कहानी

Asha Lata Saxena ने कहा…

बहुत उम्दा रचना है कविता जी |
आशा

बेनामी ने कहा…

बड़े साहब और बड़े बाबू जी की जुगाड़ का कोई अंत नहीं.....सरकारी दामाद होने का यही तो सुख है ..हर चीज पर हक़ हमारा ......बहुत बढ़िया व्यंग्य कविता जी!!!!!!

RAJ ने कहा…

बधाई हो कवित जी! आपकी यह लाजवाब कहानी आज के भास्कर भूमि के ब्लागरी पेज पर सुशोभित है .
link .....
http://www.bhaskarbhumi.com/epaper/inner_page.php?d=2012-10-16&id=8&city=Rajnandgaon
.नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं

Bharat Bhushan ने कहा…

ये छोटी-छोटी मुस्काने सरकारी खर्च पर पलती हैं. बहुत अर्थपूर्ण कहानी.

Rakesh Kumar ने कहा…

जीवन के अनुभवों से जुडी रोचक अर्थपूर्ण कहानी.

Raju Patel ने कहा…

कविता जी --- सराहनीय प्रयोग-

बेनामी ने कहा…

सरकारी साहब और बाबू की खूब रही .....आगे भी ऐसी ही सार्थक कहानी आपके ब्लॉग पर पढने को मिलेंगी इसकी पूरी उम्मीद है.....बधाई ...
नवरात्रि की शुभकामनायें!!

बेनामी ने कहा…

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मनोज कुमार ने कहा…

वरात्रि की शुभकामनायें!

स्वप्निल ने कहा…

कृपया ६५० शब्दों वाली पोस्ट लिख कर हमें अनुग्रहित करें . लम्बी पोस्ट को काटना एडिट करना मुशिकिल कम होता है.
रविन्द्र

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

wah re jugaaad:))

Rohitas Ghorela ने कहा…

छुट्टी के दिन जुगाड़ बिठाना हमारी पुराणी आदत है जी।...
खैर ... कहानी बहुत अच्छी लगी आज शाम को दोस्तों के साथ शेयर भी करूँगा ..





मेरे साथियों...
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html

जितेन्द्र माथुर ने कहा…

अत्यंत रोचक कथा जो कुछ सोचने पर भी विवश करती है । पसंद आई ।

Unknown ने कहा…

ek jordar tamacha

कविता रावत ने कहा…

पीपुल्स समाचार के 6 फरवरी 2015 के अंक में प्रकाशित लिंक है ...
http://www.peoplessamachar.co.in/index.php/epaper/old-epaper/e-bhopal/book/2648-06022015/5-e-bhopal