नवरात्र-दशहरे के रंग बच्चों के संग - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
ब्लॉग के माध्यम से मेरा प्रयास है कि मैं अपनी कविता, कहानी, गीत, गजल, लेख, यात्रा संस्मरण और संस्मरण द्वारा अपने विचारों व भावनाओं को अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन के साथ-साथ सरलतम अभिव्यक्ति के माध्यम से लिपिबद्ध करते हुए अधिकाधिक जनमानस के निकट पहुँच सकूँ। इसके लिए आपके सुझाव, आलोचना, समालोचना आदि का हार्दिक स्वागत है।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

नवरात्र-दशहरे के रंग बच्चों के संग

मार्कण्डेय पुराण के ‘देवी माहात्म्य‘ खण्ड ‘दुर्गा सप्तशती‘ में वर्णित शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के नवरूपों शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिरात्री से सभी भलीभांति परिचित है। स्कन्दपुराण के ‘काली खण्ड‘ में इन्हीं नौ शक्तियों को शतनेत्रा, सहस्त्रास्या, अयुभुजा, अश्वारूढ़ा, गणास्या, त्वरिता, शव वाहिनी, विश्वा और सौभाग्य गौरी के नाम से तथा दक्षिणी भू-भाग में वनदुर्गा, जातवेदा, शूलिनी, शबरी, शान्ति, दुगा, लवणा, ज्वाला और दीप दुर्गा के नाम से जाना तथा पारम्परिक रूप से पूजा जाता है। 
जब गली-मोहल्ले और चौराहे   माँ की जय-जयकारों के साथ चित्ताकर्षक  प्रतिमाओं और झाँकियों से जगमगाते हुए भक्ति रस की गंगा बहा रहे हो, ऐसे मनोहारी सुअवसर पर भला वह कौन बच्चा होगा जो बाहर की इस दुनिया से बेखबर घर बैठकर शान्तिपूर्वक चुपचाप अपनी पढ़ाई-लिखाई कर घूमने-फिरने के लिए उतावला नहीं हो रहा हो। मेरे अपने अनुभव से ऐसे मौके पर बच्चे माँ-बाप के साथ बाहर का रंग-बिरंगा नजारा देखने की युक्ति बड़ी ही मासूमियत से निकालते हुए हम बड़ों को भी पीछे छोड़ देते हैं। कुछ ऐसा ही आजकल बच्चों की मासूमियत भरी बातों में आकर हर शाम ढ़लते ही ऑफिस  के बाद जल्दी से खाना पकाने-खिलाने के बाद उन्हें सारा शहर घुमाने-फिराने की अतिरिक्त ड्यूटी देर रात तक निभानी पड़ रही है। लेकिन यह ड्यूटी एक माँ को अपने बच्चों की खुशी की खातिर करनी ही पड़ती है, जो हमारा कर्त्तव्य  भी है। फिर यह तो माँ भगवती की इच्छा है यही सोचकर जब दिन भर की थकी हारी मैं बच्चों के साथ माँ के दर्शन को निकलती हूँ तो देशभर के प्रसिद्ध मंदिरों, तीर्थों, जहाँ तक पहुँच पाना अभी तक दुर्लभ था, उनकी शहर में सुलभ सौगात पाकर मैं अपने आप को धन्य समझती हूँ। बच्चों को कहीं झाँकी परिसर में अपने मनपंसद खेल-खिलौना भाते हैं, तो कहीं स्वादिष्ट व्यजंन ललचाते हैं।
एक तरफ जगह-जगह गरबा महोत्सव अपनी आकर्षक रंग-बिरंगी साज-सज्जा के साथ धूम मचा रहे हैं तो दूसरी ओर देवी जागरण के गीत बरबस ही अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने में किसी से भी पीछे नहीं हैं।  
अनूठी कलाकृतियों से सजी माँ के विभिन्न रूपों की जीवंत प्रतिमाओं और झाँकियों को देखते-देखते जी नहीं भरता। इनकी सुन्दरता व भव्यता देखकर इन्हें निर्मित करने वाले कलाकारों के लिए माँ से प्रार्थना के लिए बरबस ही मन पुकार कर उठता है कि हे माँ! इन पर सदैव यूँ ही अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखे।
झाँकियों में रामलीला के छोटे-छोटे, अलग-अलग प्रसंग देखकर मन बचपन में देखी रामलीला में डूबने-उतराने लगता है। जब नवरात्रि में 11 दिन तक गाँव-गाँव रामलीला की धूम मची रहती। देर रात तक रामलीला के रंग में रमे जब हम सुबह उनींदी आंखों से स्कूल जाते तो पढ़ते-पढ़ते कक्षा में निंदिया रानी सताने से बाज नहीं आती और बार-बार आँखों में उमड़ने लगती, जिसे देख जाने कितनी ही बार गुरुजी की कड़कड़ाती आवाज में खूब डाँट भी खानी पड़ती। पढ़ने-लिखने के साथ ही डाँट खाने पर विराम तभी लग पाता जब छुट्टी वाली घंटी की टन-टन-टन-टन की सुमधुर ध्वनि हम बच्चों के कानों को घनघनाकर गुरुजी तक नहीं पहुँच पाती। 
जल्दी घर भागने के चक्कर में हम झट से बड़ी लापरवाही से अपनी किताब-कापी बस्ते में उल्टी-सीधी ठूंसकर गुरुजी के मुँह से 'जाओ  अब छुट्टी है' सुनने के लिए उनकी तरफ ऐसे ताकने लगते जैसे खूँठे से बँधे नन्हें बछड़े अपनी बंधन मुक्ति के लिए करीब आते किसी इंसान को अपनी मासूमियत भरी नजरों से टकटकी लगाकर टुकुर-टुकुर ताकने लगते हैं। ऐसे अवसर पर कभी अगर गुरुजी ने देर लगाई तो फिर समझो 5-6 किमी की लम्बी पहाड़ी पगडंडियों पर चलते हुए अच्छे भले गुरुजी को रावण समझने की भूल कर हम सब बच्चे अपनी-अपनी तरफ से बुराई के इतने कसीदे गढ़ लेते जो घर आने के बाद भी अधूरे ही रहते। आज जब दशहरे के दिन बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को धू-धू कर जलते हुए राख बनते देखती हूँ, तो बरबस ही आस-पास भीड़ भरे खुश होते चहेरों को टटोलते हुए इसमें खुश होने जैसा कोई राज ढूंढ़ने की कोशिश करती हूँ। लेकिन काफी सोच-विचार के बाद मन को निराशा ही हाथ लगती है। 
फिर जब बच्चों के खिले चेहरों की ओर देखती हूँ तो यही महसूस करती हूँ कि हम आज भी बच्चों जैसे उतने ही मासूम हैं जो तामसी और स्वार्थान्धता के विचारों के भेष में हमारे बीच घुल-मिलकर पलने-बढने वाली बुराईयों की ओर ध्यान न देते हुए हर वर्ष पुतलों को प्रतीक बनाकर फिर अगले वर्ष बुराईयों के बोझ तले दूसरे पुतलों को जलाने के लिए एक साथ मिलकर उठ खड़े होते हैं, जबकि वर्षभर इन बुराईयों के प्रति उदासीनता का रवैया अपनाते हुए कभी इस तरह एकजुट  नहीं हो पाते हैं!
     नवरात्र और दशहरा की शुभकामनाओं सहित!
.........कविता रावत