बचपन में जब कभी किसी की शादी-ब्याह का न्यौता मिलता था तो मन खुशी के मारे उछल पड़ता, लगता जैसे कोई शाही भोज का न्यौता दे गया हो। तब आज की तरह रंग-बिरंगे शादी के कार्ड बांटने का चलन बहुत ही कम था। मौखिक रूप से ही घर-घर जाकर बड़े आग्रह से न्यौता दिया जाता था। जैसे ही घर को न्यौता मिलता बाल मन में खुशी के मारे हिलोरें उठने लगती। नए-नए कपड़े पहनने को मिलेंगे, खूब नाचना-गाना होगा और साथ ही अच्छा खाने-पीने को भी मिलेगा। यही सब ख्याल मन उमड़ते-घुमड़ते थे। किसकी किससे शादी होगी, कहाँ होगी, उसमें कौन बराती, कौन घराती होगा, सिर्फ खाना-पीना, नाचना-गाना ही चलेगा या कुछ लेना-देना भी पड़ेगा, किससे कैसा बात-व्यवहार निभाना पड़ेगा, इन तमाम बातों से कोसों दूर हम बच्चों को तो सिर्फ अपनी मस्ती और धूम-धमाल मचाने से मतलब भर था। उस समय शादी में बैण्ड बाजे की जगह ढोल-दमाऊ, मुसक बाजा, रणसिंघा (तुरी) और नगाड़े की ताल व स्वरों पर सरांव (ऐसे 2 या 4 नर्तक जो एक हाथ में ढ़ाल और दूसरे में तलवार लिए विभिन्न मुद्राओं में मनमोहक नृत्य पेश करते थे।) बारात के आगे-आगे नृत्य करते हुए गांव के चौपाल तक जब पहुंचते थे तब वहां नृत्य का जो समा बंध जाता था, उसे देखने आस-पास के गांव वाले भी सब काम धाम छोड़ सरपट दौड़े चले आते थे। हम बच्चे तो घंटों तक उनके सामानांतर अपनी धमा-चौकड़ी मचाते हुए अपनी मस्ती में डूबे नाचते-गाते रहते। घराती और बारातियों को तो खाने-पीने से ज्यादा शौक नाच-गाने का रहता था। उन्हें खाने की चिन्ता हो न हो लेकिन हम बच्चों के पेट में जल्दी ही उछल-कूद मचाने से चूहे कूदने लगते और हम जल्दी ही जैसे खाने पुकार होती वैसे ही अपनी-अपनी पत्तल संभाल कर पंगत में बैठ जाते और अपनी बारी का इंतजार करने लगते। पत्तल में गरमा-गरम दाल-भात परोसते ही हम उस पर भूखे बाघ के तरह टूट पड़ते। तब हंसी-मजाक और अपनेपन से परोसे जाने वाला वह दाल-भात आज की धक्का-मुक्की के बीच छप्पन प्रकार के व्यंजनों से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट लगता था।
अब वह जमाना बीत जाने के साथ ही वे पुरानी बातें भी बासी लगती हैं। अब तो लगता है अपने बच्चों का नया जमाना आ गया है। अब जब भी किसी का शादी का निमंत्रण पत्र पहुंचता है तो बच्चे फटाक से उसकी नियत तिथि देखकर दीवार पर लटकते कैलेण्डर पर बड़ा सा गोला हमारे कुछ कहने से पहले ही लगा लेते हैं, उनके लिए शादी-ब्याह स्कूल की पिकनिक जैसा है। शादी यदि घर के आस-पड़ोस की है तो एक दिन की पिकनिक और दूर की है तो 2-4 दिन की मौज-मस्ती भरी पिकनिक। खैर इसी बहाने हमें भी उनके साथ थोड़ी-बहुत मौज-मस्ती कर लोगों से मिलने जुलने का अवसर मिल जाता है और हमारी भी पिकनिक हो जाती है, यही सोचकर हम भी बीते दिनों को याद कर नाच-गाकर खुश हो लेते हैं। वर्ना हम तो कई बार घर-ऑफिस की भागदौड़ में यह तक भूल जाते हैं कि आज शादी में जाना है लेकिन बच्चे हैं जो याद दिलाने में पीछे नहीं रहते। जिस दिन घर के आस-पास की शादी हो तो वे शाम को स्कूल से लौटकर जल्दी से अपना होमवर्क खुद बिना कहे पूरा कर हमारे ऑफिस से घर लौटने पर आज शादी में चलना है, कहकर चौंका देते हैं। अब उन्हें तो कुछ सोचना नहीं पड़ता, लेकिन कमबख्त इस महंगाई की वजह से हमें एक बार जरुर सोचना पड़ता है। माह में एक शादी हो तो सोचने की जरुरत नहीं पड़ती लेकिन एक साथ बहुत सी शादी की तारीखें सिर पर आन पड़ती है, तो मजबूरन सोचना ही पड़ता है। फिर भी इन तमाम बातों को दरकिनार कर मैं लगभग हर आमंत्रित शादी में शामिल होना नहीं भूलती, क्योंकि मैं भलीभांति समझती हूँ कि घर-दफ्तर की चार-दीवारी से बाहर निकलकर बाहर की दुनिया देखने, नाच-गाने, हँसी -मजाक एवं मेल-मिलाप कर मौज-मस्ती का इससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिलने वाला। क्योंकि शादी के बाद अपने हाल की मत पूछो-
“जब-जब मुझे किसी की शादी का निमंत्रण पत्र मिलता है अब वह जमाना बीत जाने के साथ ही वे पुरानी बातें भी बासी लगती हैं। अब तो लगता है अपने बच्चों का नया जमाना आ गया है। अब जब भी किसी का शादी का निमंत्रण पत्र पहुंचता है तो बच्चे फटाक से उसकी नियत तिथि देखकर दीवार पर लटकते कैलेण्डर पर बड़ा सा गोला हमारे कुछ कहने से पहले ही लगा लेते हैं, उनके लिए शादी-ब्याह स्कूल की पिकनिक जैसा है। शादी यदि घर के आस-पड़ोस की है तो एक दिन की पिकनिक और दूर की है तो 2-4 दिन की मौज-मस्ती भरी पिकनिक। खैर इसी बहाने हमें भी उनके साथ थोड़ी-बहुत मौज-मस्ती कर लोगों से मिलने जुलने का अवसर मिल जाता है और हमारी भी पिकनिक हो जाती है, यही सोचकर हम भी बीते दिनों को याद कर नाच-गाकर खुश हो लेते हैं। वर्ना हम तो कई बार घर-ऑफिस की भागदौड़ में यह तक भूल जाते हैं कि आज शादी में जाना है लेकिन बच्चे हैं जो याद दिलाने में पीछे नहीं रहते। जिस दिन घर के आस-पास की शादी हो तो वे शाम को स्कूल से लौटकर जल्दी से अपना होमवर्क खुद बिना कहे पूरा कर हमारे ऑफिस से घर लौटने पर आज शादी में चलना है, कहकर चौंका देते हैं। अब उन्हें तो कुछ सोचना नहीं पड़ता, लेकिन कमबख्त इस महंगाई की वजह से हमें एक बार जरुर सोचना पड़ता है। माह में एक शादी हो तो सोचने की जरुरत नहीं पड़ती लेकिन एक साथ बहुत सी शादी की तारीखें सिर पर आन पड़ती है, तो मजबूरन सोचना ही पड़ता है। फिर भी इन तमाम बातों को दरकिनार कर मैं लगभग हर आमंत्रित शादी में शामिल होना नहीं भूलती, क्योंकि मैं भलीभांति समझती हूँ कि घर-दफ्तर की चार-दीवारी से बाहर निकलकर बाहर की दुनिया देखने, नाच-गाने, हँसी -मजाक एवं मेल-मिलाप कर मौज-मस्ती का इससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिलने वाला। क्योंकि शादी के बाद अपने हाल की मत पूछो-
तब-तब मुझे 30 नवम्बर का वह दिन खूब याद आता है।
जब दुल्हन बन मंच पर बैठी तो लगा रानी बन गई हूँ।
अब किससे कहूँ रोबोट बनी उस रानी को ढूंढ़ रही हूँ।"
भले ही आज जिंदगी रोबोट बनी फिर भी इसके बावजूद मैं अपने आपको अपने उन सभी शुभचिंतकों और प्रियजनों का शुक्रगुजार मानती हूँ जो समय-समय पर पारिवारिक या सामाजिक आयोजनों पर मेरी खैर-खबर लेकर मुझे रोबोट होने से उबारने के लिए प्रेरित करते रहते हैं, जिससे मैं भी एक-दो दिन ही सही थोड़ी बहुत मौज-मस्ती के बीच तरोताज़ी महसूस कर फिर से जी उठती हूँ।
..कविता रावत