सुदूर पहाड़ों पर बर्फवारी के चलते वहाँ से आने वाली सर्द हवाओं से जब देश के अधिकांश हिस्से ठिठुर रहे हों, ऐसे में वे अपनी हिमपूरित पहाड़ी हवाएं अपने शहर में आकर दस्तक न दे, यह कैसे हो सकता है! जब-जब ठण्डी हवा के थपेड़ों से दो-चार होना पड़ रहा है और बार-बार ठण्डे-ठण्डे पानी से पाला पड़ रहा है तब-तब लगता है जैसे उन ठण्डी पहाड़ी हवाओं और ठण्डे-ठण्डे पानी ने अपना वह मूलस्थान छोडकर शहर की राह पकड़कर यहीं डेरा डालने का निर्णय ले लिया हो। ऐसे हालात में जब-तब दांतों की सुमधुर किटकिटाहट भरी तान के साथ गले से बरबस ही लोकप्रिय गायक नेगी जी का यह गीत बार-बार स्वतः ही प्रस्फुटित हो रहा है-
ठण्डो रे ठण्डो, मेरा पहाड़ै की हव्वा ठण्डी पाणि ठण्डो
ठण्डो रे ठण्डो, मेरा पहाड़ै की हव्वा ठण्डी पाणि ठण्डो
ऐंच ऊंच ह्यूं हिमाल
निस्सो गंगा जी को छाल
ठण्डो - ठण्डो
छौय्यां छन छैड़ा पण्ड्यार
छन बुग्याल ढ़ालधार
ठण्डो - ठण्डो .........
एकतरफ जहाँ इस हाड़-मांस कंपाने वाले ठण्ड के तेवर देख अपनी हालत तो पस्त है, वहीं बच्चे बड़े मस्त हैं। उनकी छुट्टी जो लगी है। एक दौर की परीक्षा समाप्त हुई तो अपनी उछलकूद में मस्त हैं। अभी पढ़ने-लिखने और प्रोजक्ट वर्क की चिन्ता नहीं। खैर उनको इससे क्या! वे तो ऐन वक्त पर ठोड़ी पर हाथ धरकर टुकुर-टुकुर हमारा मुँह ताककर बैठ जायेंगे। फिर अपना भेजा फ्राई हो या दिमाग का दही बने, इससे उनकी सेहत पर एक इंच भी फर्क नहीं पड़ने वाला! हमें ही माँ का नाम लेकर सारी जिम्मेदारी उठानी ही पड़ती है! इस कड़कती ठण्ड में भी हल्के-फुल्के कपड़े पहनाने को कहते हैं, बड़ी मुश्किल से समझाना पड़ता है- सर्दी लग जायेगी, बुखार आ जायेगा। लेकिन कितना भी समझाओ जब तक डांट डपट नहीं लगाई तब तक गर्म कपड़े पहनने को तैयार नहीं होते; फैशन जो सूझता है। कहते हैं- हमें ठण्ड नहीं लगती, आप बूढ़े हो रहे हो, तभी आपको ठण्ड लग रही है। अब क्या कहें! ऐसे में वह बरबस ही हँसी के साथ यह कहावत याद आती है- लडि़कन के त बोलब न, जवान लागै भाई, बुढ़वन के त छोड़ब न, चाहे कितनौ ओढ़ै रजाई। लेकिन इस कहावत को बच्चों पर आजमाने की हिमाकत मैं हरिगज नहीं करती। बखूबी समझती हूं कुछ हुआ तो सारा अपने ही माथे ओले-बर्फ की तरह आ पड़ना है।
एकतरफ जहाँ इस हाड़-मांस कंपाने वाले ठण्ड के तेवर देख अपनी हालत तो पस्त है, वहीं बच्चे बड़े मस्त हैं। उनकी छुट्टी जो लगी है। एक दौर की परीक्षा समाप्त हुई तो अपनी उछलकूद में मस्त हैं। अभी पढ़ने-लिखने और प्रोजक्ट वर्क की चिन्ता नहीं। खैर उनको इससे क्या! वे तो ऐन वक्त पर ठोड़ी पर हाथ धरकर टुकुर-टुकुर हमारा मुँह ताककर बैठ जायेंगे। फिर अपना भेजा फ्राई हो या दिमाग का दही बने, इससे उनकी सेहत पर एक इंच भी फर्क नहीं पड़ने वाला! हमें ही माँ का नाम लेकर सारी जिम्मेदारी उठानी ही पड़ती है! इस कड़कती ठण्ड में भी हल्के-फुल्के कपड़े पहनाने को कहते हैं, बड़ी मुश्किल से समझाना पड़ता है- सर्दी लग जायेगी, बुखार आ जायेगा। लेकिन कितना भी समझाओ जब तक डांट डपट नहीं लगाई तब तक गर्म कपड़े पहनने को तैयार नहीं होते; फैशन जो सूझता है। कहते हैं- हमें ठण्ड नहीं लगती, आप बूढ़े हो रहे हो, तभी आपको ठण्ड लग रही है। अब क्या कहें! ऐसे में वह बरबस ही हँसी के साथ यह कहावत याद आती है- लडि़कन के त बोलब न, जवान लागै भाई, बुढ़वन के त छोड़ब न, चाहे कितनौ ओढ़ै रजाई। लेकिन इस कहावत को बच्चों पर आजमाने की हिमाकत मैं हरिगज नहीं करती। बखूबी समझती हूं कुछ हुआ तो सारा अपने ही माथे ओले-बर्फ की तरह आ पड़ना है।
इधर कांपते-सिकुड़ते अपना तो घर-ऑफिस का काम जैसे-तैसे चल ही रहा है लेकिन बच्चों की जिद्द का क्या कहना! उन्हें अपनी छुट्टियों की पड़ी है- कहते है सारी छुट्टियां खराब हो रही हैं, चाहे एक दिन के लिए सही पास के किसी हिल स्टेशन पर तो ले चलो जहां बर्फवारी हो रही हो, ताकि इसका खूबसूरत नजारा अपनी आंखों से हम भी देख लें और अपने दोस्तों को स्कूल खुलने पर बता सके। अब इसमें बच्चों को किसी ने उकसाया हो यह मैं नहीं कह सकती क्योंकि अभी तक उन्होंने किसी हिल स्टेशन पर जाकर बर्फवारी नहीं देखी। हम ही उन्हें जब-तब अपने बचपन के किस्से सुनाते हैं कि कैसे हम बचपन में जब सर्दियों में ओले गिरते तो उन्हें उल्टी छतरी में इक्कठा कर उनसे कंचे-गोली की तरह खेलने बैठ जाते! जब फर-फर कर रूई के फाहे की तरह आसमान से बर्फ गिरती तो कैसे उसकी बड़ी-बड़ी गेंद बनाकर एक दूसरे पर उछालते फिरते। जब चारों तरफ बर्फ ही बर्फ होती फिर कैसे घर, पेड़-पौधे, पहाड़ बर्फ की सफेद रजाई ओढ़े तनकर सोते नजर आते और भी बहुत से बातें चलती रहती। अब यदि यहाँ शहर में मेरे घर के पास स्थित श्यामला हिल्स की पहाडि़यों पर बर्फवारी संभव होती तो उन्हें अपने घर की छत पर ले जाकर हिल-स्टेशन का नजारा दिखा लाती और फुरसत पा लेती।
फिलहाल तो जिस दिन ऑफिस की छुट्टी होती है उस दिन घर का कामकाज जल्दी से निपटाकर इस ठण्डे-ठण्डे मौसम में खिली-खिली धूप का आनंद उठाने छत पर बच्चों सहित पहुंच जाती हूँ। वहीं बच्चों की पाठशाला लग जाती है और अपना हिल स्टेशन भी वही बन जाता है। बच्चे तो अपनी पढ़ाई-लिखाई के साथ खेलने-कूदने में लग जाते हैं और मैं बैठे-बैठे श्यामला हिल्स की पहाडि़यों को देख-देख गांव की बर्फभरी पहाडि़यों को याद कर गोते लगाती रहती हूँ। अभी तक उन्हें हम अपनी छुट्टी का सद्पयोग करते हुए सर्दियों की सुनहरी दुपहरी में धूप का आनंद लेते हुए भोजपुर मंदिर, केरवा डैम, सैर-सपाटा और बड़े ताल घुमा ले गये हैं, जिसके कारण उन्हें हमारे आश्वासन पर विश्वास हो चला है। अब आगे सबकुछ धीरे-धीरे ठण्ड से सिकुड़ते-खिसकते नये साल के मौसम की करवट पर निर्भर है।
पाठको को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित