मेरी सोनिया माँ बनी और मैं नानी माँ। जैसे ही मुझे उसने यह खुशखबरी दी, मैं खुशी से झूम उठी। इधर एक ओर बच्चों की परीक्षाओं का बोझ सिर पर था तो दूसरी ओर विधान सभा चुनाव के कारण छुट्टी नहीं मिलने से मन आकुल-व्याकुल होता रहा। लेकिन जैसे ही बच्चों की परीक्षा और चुनाव से मुक्ति मिली तो मैंने उसके ससुराल (गजियाबाद) की राह पकड़ ली। रेल और बस के सफर में “गूँथ कर यादों के गीत, मैं रचती हूँ विराट् संगीत“ की तर्ज पर मैं उसके बचपन की यादों में डूबती-उतराती रही। तब मैंने कालेज में प्रवेश लिया ही था कि उसी समय मेरे बडे़ भाई की बिटिया सोनिया मेरे परिवार में खुशियों की सौगात लेकर आयी। हम दो भाई और तीन बहिनों को जैसे कोई खिलौना मिल गया हो; उसे खिलाने-पिलाने के लिए आपस में खूब झीना-झपटी मची रहती थी। यह तब-तक चलता रहता जब तक माँ-पिताजी से एक जोरदार डाँट सुननी को न मिल जाती थी। बुआ-बुआ की सुमधुर बोल आज भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं।
अपनी सोनिया के बचपन से लेकर विवाह तक की तमाम मधुर स्मृतियों में गोते खाते हुए जब मुझे अहसास हुआ कि अरे! अब तो मैं नानी बन गई हूँ और अब मुझे तो नानी की तरह नन्हें लाड़-दुल्लारे को कहानियाँ सुनाने पड़ेगी तो क्या कहूँगी? क्या सुनाऊँगी? इसी के बारे में सोचती चली गई। मैं तो जब चार अक्षर पढ़ना सीखी तभी नानी माँ की कहानियों के बारे में जान सकी कि नानी के पास मीठी-मीठी कहानियों का पिटारा होता है। जिसमें से नानी बारी-बारी से राजा-रानी, परियों से लेकर भूत-प्रेत, देवता-राक्षस इन सबको बाहर निकालकर अपने नाती-पोतों को अनूठे और रोचक ढ़ंग से परिचित कराती है। इस मामले मैं सौभाग्यशाली नहीं रही। क्योंकि मेरी नानी माँ मेरे आने से पहले से चल बसी। इसलिए बचपन में न नानी माँ का प्यार-दुलार मिला और न ही उनकी कहानियाँ सुननी को मिली। अब सोचने लगी हूँ कि भले ही मुझे यह सौभाग्य न मिला हो लेकिन अब जब मैं नानी बन गई तो अपने नाती को जब तक वह थोड़ा-बहुत बोलने-सुनने लायक होता है तब तक कुछ नहीं तो कुछ कहानियाँ ही रच लूँ, ताकि जब-तब वह मैं उसके पास जाऊँ या वह मेरे पास आये, तब-तब मैं उसे बिना कहे सुना सकूँ। इस बारे में मुझे बड़ी सजगता बरतने और आज के जमाने के मुताबिक मशक्कत करने की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि आज सूचना क्रांति के इस युग में नौनिहालों के लिए नानियों को नई कहानियाँ गढ़ने के साथ ही उनके साथ चलने के लिए तैयार रहना होगा, तभी वे उन्हें सुन सकेंगे, उनके करीब आ पायेंगे। यदि ऐसा न हुआ तो फिर वे घर-परिवार, नाते-रिश्ते सब भूलकर कम्प्यूटर, टी.वी. मोबाइल से रिश्ता बनाकर हर समय उससे ही चिपके रहेंगे।
दुनिया भर के बातों में उलझती-सुलझती जब मैं अपनी सोनिया के पास पहुँची और मैंने अपने नन्हे-मुन्ने, प्यारे-प्यारे लाड़-दुल्लारे नाती का मासूम हंसता-खिलखिलाता चेहरा देखा तो मुझे सुभद्राकुमारी जी की तरह अपना बचपन याद आने लगा-
बीते हुए बचपन की वह, क्रीडापूर्ण वाटिका है।
वही मचलना, वही किलकना, हँसती हुई नाटिका है।।
जब मैंने भोले-भाले बच्चे को गोद में उठाया तो दौड़ती-भागती, संघर्षमय, अशांत और श्रांत-क्लांत जीवन में उसकी समधुर सुकोमल मुस्कान और किलकारी की गूँज मेरे कानों में गूँजकर मधुर रस घोलने लगी। विश्वास नहीं हो रहा था कि जैसे कल ही की तो बात हो; जिस नन्हीं सोनिया को मैंने इसी तरह गोद में उठाया था, आज वही माँ बन गई है। इस खुशी के माहौल में भरे-पूरे परिवार के साथ नाते-रिश्तेदारों को एक साथ हिल-मिल कर खुशियाँ मनाते देखकर मेरे मन को बड़ा सुकून मिला। अक्सर ऐसे सुअवसरों पर मेरा मन भावुक हो उठता है। हमारे हिन्दू-दर्शन में भले ही स्वर्ग और नरक की कल्पना है। लेकिन मुझे तो इसके परे हमेशा स्वर्ग घर-परिवारों के सुखद और उत्साहवर्द्धक वातावरण में ही मिलता है।
अभी फिलहाल मुझे नानी के रूतवे से नवाजने वाली मेरी सोनिया को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ यह नसीहत देती चलूँगी कि-
जिन्दगी आसान रखना
कम से कम सामान रखना
जिन्दगी आसान रखना ।
फिक्र औरों की है लाजिम
पहले अपना ख्याल रखना।।
हर कोई कतरा के चल दे
नहीं ऐसा अभिमान करना।
भीड़ में घुलमिल के भी तू
अपनी पहचान रखना।।
राहों पर रखना आंखे
आहटों पर कान रखना।
कर निबाह काँटों से लेकिन
फूल का भी ध्यान रखना।।