अण्णा हजारे ने अनशन तोड़ने के साथ चुनाव सुधारों को लेकर संघर्ष छेड़ने की बात की थी। अण्णा के अनुसार मतदाता को मतपत्र पर दर्ज उम्मीदवारों को खारिज करने का भी हक मिलना चाहिए। अगर दस प्रत्याशी मतपत्र में दर्ज हैं तो ग्यारहवाँ या अन्तिम खाना प्रत्याशी को नकारने का हो।
प्रतिनिधि को खारिज करने और वापस बुलाने का मुद्दा नया नहीं है। 1974 के बिहार आंदोलन में यह एक प्रमुख मुद्दा था। बिडम्बना यह है कि इस आन्दोलन के सहारे सत्ता में आयी पार्टियों ने जयप्रकाश नारायण के मुद्दे को भुला दिया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत कुछ राज्यों में पहले से ही पंचायती राजव्यवस्था में प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को मिला हुआ है। किसी भी राज्य में जवाबदेही सुनिश्चित करने के नजरिए से जनप्रतिनिधियों को खारिज करने के जनाधिकार का भय व्याप्त होना जरूरी है। अमेरिका में किसी हद तक यह अधिकार 1903 से लागू है। वहाँ दो गवर्नरों को इस अधिकार के चलते पदमुक्त होना पड़ा। कनाडा में तो प्रधानमंत्री को भी वापस बुलाने का हक जनता को मिला हुआ है।
अम्बेडकर जी ने कहा था कि हमें कम से कम दो शर्तें पूरी करनी चाहिए- एक तो स्थिर सरकार हो, दूसरी वह उत्तरदायी सरकार हो। भारतीय लोकतन्त्र की दो बड़ी समस्याएँ हैं- एक तो यह है कि जनप्रतिनिधि पर मतदाताओं के अंकुश का कोई प्रावधान नहीं है। हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी विकृति यह है कि मताधिकार एक तरह की विवशता में बदल गया है। उम्मीदवारों में से किसी एक को चुनने को मतदाता अभिशप्त होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 के भाग ‘क’ में नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। लेकिन निर्वाचन के समय मतदाता के पास जो मतपत्र होता है उसमें केवल मौजूदा उम्मीदवारों में से किसी एक को चुनने का प्रावधान है, न चुनने का नहीं? अगर मतदाता उनमें से किसी को भी नहीं चुनना चाहता तो इसे जाहिर करने और इसे नापंसदगी के वोट के तौर पर गिने जाने का कोई प्रावधान नहीं है।
"नन ऑफ द अबॅव" नोटा बटन को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई। रिटायर आईपीएस अधिकारी विजय वाते द्वारा दायर इस याचिका में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन के मुताबिक नोटा बटन का प्रावधान किया गया है लेकिन लोगों को शिक्षित करने के लिहाज से इसका प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है। याचिका में भारत निर्वाचन आयोग, मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी और कलेक्टर भोपाल को भी पार्टी बनाया गया। वाते "राइट टू रिजेक्ट ग्रुप" के संयोजक हैं।
राजस्थान विधान सभा की सभी दो सौ सीटों के लिए चुनाव हुए थे, नोटा का उपयोग लगभग प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में किया गया। इनमें 11 ऐसे क्षेत्र थे जहाँ नोटा मतों की संख्या जीत की संख्या से अधिक थी। मध्यप्रदेश में 230 में से 25 और छत्तीसगढ़ में 90 में से 15 विधानसभा क्षेत्र ऐसे रहे जहाँ हार-जीत का अन्तर नोटा मतों से कम रहा।
नोटा का प्रयोग देश में पहली बार था इसलिए लोगों के मन में इस बटन के प्रभावों के प्रति जिज्ञासा भी थी। कुछ यूँ ही प्रयोग कर देखना चाहते थे। कुछ बागियों, प्रतिबागियों तथा अवसरवादियों ने इसे कमाई का जरिया बना लिया। राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों को ध्यान में रखते हुए उनकी कथनी और करनी को जानना जरूरी है। घोषणापत्रों में दलों, उम्मीदवारों और बुनियादी मुद्दों के अलावा भी बहुत कुछ देखने-समझने को होता है। उनमें किए गए वादे अक्सर भरमाने के लिए ही होते हैं। सत्ता में रहे दल के पिछले घोषणा पत्र से उसके वादों की गम्भीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
नागरिक को नकारात्मक मत का अधिकार दिए जाने की व्यवस्था चुनाव सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण निर्णय है। इससे जन कल्याण के कामों के लिए होड़ चलेगी। प्रतिनिधि अपने दायित्वों के प्रति सचेत और क्षेत्र के विकास के लिए प्रयत्नशील रहेंगे। राष्ट्र के समग्र विकास की दिशा में यह एक शुभ शुरूवात है। वरना मतदाताओं और प्रतिनिधियों के बीच दूरी और बढ़ती जाएगी। लोकतंत्र सुधार का सबसे अनिवार्य तकाजा मतदाताओं का सशक्तीकरण है।
भारतीय प्रजातंत्र में नोटा की उपयोगिता यही वह स्वप्न है जिसे देखकर अशफाक उल्ला खाँ जैसे शहीद ने कहा था-
"कभी वो दिन भी आएगा
जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी
जब अपना आसमाँ होगा।"
डॉ. अनीता देशपांडे, प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान-लोक प्रशासन, उच्च शिक्षा उत्कृष्टता संस्थान, भोपाल के सहयोग से.....