स्वस्थ जीवन जीने का कला और विज्ञान - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

स्वस्थ जीवन जीने का कला और विज्ञान

हमारे भारतीय चिन्तन में शरीर को धर्म का पहला साधन माना गया है। महाकवि कालिदास की सूक्ति "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्"  और इस हेतु सदैव स्वस्थ रहने को कर्तव्य निरूपित किया है। "धर्मार्थ काममोक्षाणाम् आरोग्यम् मूल मुत्तमम्।" इसीलिए अच्छा स्वास्थ्य महा-वरदान है। इसकी  रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का दायित्व है।  शरीर का स्वस्थ रहना परम आवश्यक है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं हो, तो मन स्वस्थ नहीं रह सकता, मन स्वस्थ नहीं तो विचार स्वस्थ नहीं होते। उर्दू में एक सूक्ति है- 'तन्दुरूस्ती हजार न्यामत' अर्थात स्वास्थ्य हजार अन्य अच्छे भोगों से बढ़कर है। अंग्रेजी में भी कहावत है-  'Health is Wealth' अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है। तुलसीदास जी ने इसे और सरल शब्दों में व्यक्त किया है- "बड़ भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।" अर्थात् अर्थात् बड़े भाग से मनुष्य जीवन मिलता है, सभी ग्रंथ कहते हैं कि यह देवताओं को भी दुर्लभ है। इसीलिए योगेश्वर कृष्ण ने भी अपने प्रिय शिष्य उद्धव को शरीर के विषय में कहा कि मनुष्य शरीर दुर्लभ है तथा पुण्य कर्मों से प्राप्त होता है।  मनुष्य के रूप में जन्म लेना वास्तव में भाग्य की बात है। स्वस्थ जीवन शैली की कला और विज्ञान के साथ ही भारतीय दर्शन "परहित सरिस धर्म नहिं भाई" सार्थक जीवन का भी संदेश हमें देता है।           
          वास्तव में कला और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। कला विज्ञान को भी कलात्मक रूप दे सकती है, वहीं विज्ञान कला को तर्कों के आधार पर वैज्ञानिक रूप प्रदान कर सकता है। व्यवहार में कहा जाता है कि कुशल सर्जन कितने कलात्मक रूप से सर्जरी करते हैं, वहीं दूसरी ओर नाड़ी परीक्षा करके चिकित्सा करने के विषय को वैज्ञानिक रूप से कसौटी पर कसने का प्रयास करते हैं।  स्वस्थ जीवन शैली के मूल प्रतिपाद्य विषय पर विचार करें तो स्वस्थ रहने के लिए आयुर्वेद और योग के नियम तथा निर्देशों को व्यवहार में लाना एक कला है जो परिवार में संस्कारों के रूप में प्राप्त होती है और जो धीरे-धीरे व्यवहार में आकर जीवन शैली बन जाती है। जैसे कि सूर्योदय के पूर्व जागरण, स्नान-ध्यान, व्यायाम-योग, विश्राम, जल्दी सोना, मौसम के अनुसार आहार-विहार आदि-आदि। 
            आयुर्वेद और योग व्यक्तिगत के साथ सामाजिक, संवेदनात्मक, भावनात्मक तथा सुचितापूर्ण जीवन जीने के विचार भी प्रस्तुत करता है, जो कि स्वस्थ जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं।  हमारे मनीषियों ने स्वस्थ जीवन जीने के लिए मात्र संहिता ग्रंथों या शास्त्रों की रचना ही नहीं की बल्कि व्रत, पर्व और त्यौहार आदि के माध्यम से स्वस्थ जीवन के सूत्रों को जन-जन में व्याप्त किया। उपवास, विशेष प्रसाद तथा व्रत, त्यौहार आदि के विशेष आहार की योजना व ऋतु एवं प्रकृति को ध्यान में रखकर की।
हमारे देश के बहुलतावादी समाज में स्वास्थ्य व्यवस्थायें भी बहुआयामी रही। विभिन्न लोक स्वास्थ्य परम्परायें देश के अलग-अलग हिस्सों में विकसित हुई। हड्डी बिठाने, दाई, जड़ी-बूटी के जानकार, वैदू, भोपा आदि। देशज ज्ञान की यह कला मात्र उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र भी निहित हैं। ये विभिन्न लोक परम्परायें मात्र घरेलू उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इनके ज्ञान का आधार 75 प्रतिशत से अधिक आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुकूल है।         
आयुर्वेद और योग के माध्यम से जो जीने की कला विकसित हुई, आधुनिक विज्ञान इसके वैज्ञानिक पक्ष को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। उदाहरणार्थ- आयुर्वेद का मानना है कि भोजन में 50 प्रतिशत ठोस प्रतिशत तथा 25 प्रतिशत तरल पदार्थ रहें तथा शेष 25 प्रतिशत भाग वायु के आवागमन के लिए खाली रहे। विज्ञान भी इसका समर्थन करते हुए कहता है कि पेट भरने का संदेश दिमाग में पहुंचने में 20 मिनट लगते हैं। अतः भोजन के आखिरी दौर में पेट भरने के पहले ही हाथ खींच लें।  प्रातः जागरण के संस्कार को भी विज्ञान सही मानता है क्योंकि उस समय पिट्टूटरी ग्लैंड का स्त्राव अधिकतम् होता है। 
सम्पूर्ण विश्व में जापानी सबसे ज्यादा जीते हैं। उनमें रोगों का प्रतिशत भी तुलानात्मक रूप से कम हैं। उनके स्वस्थ व दीर्घायु जीवन पर अध्ययन करने पर जो सूत्र सामने आये हैं वे कोई रहस्यमय नहीं, बल्कि अत्यन्त सरल और व्यावहारिक हैं; जैसे कि-
  • भूख से 20 प्रतिशत कम खाते हैं। (हरा हची बू यानि पेट भर नहीं)
  •  सब्जी, दाल, फलों का सेवन ज्यादा करते हैं।
  • खाने की प्लेट छोटी रखते हैं।
  • भोजन के बाद मीठा नहीं बल्कि फल या ग्रीन टी लेते हैं।
  • खट्टे फर्मेन्टेड सब्जी का प्रयोग ज्यादा करते हैं क्योंकि इसमें पाचन अच्छा रखने वाले गुड लेक्टिक एसिट  बैक्टीरिया की अधिकता होती है।
  • सूक्ष्म व्यायाम की विधा ‘ताई ची’ नियमित रूप से करते हैं।
  •  ज्यादा पैदल चलना, साइकिल का उपयोग ज्यादा तथा कार की बजाय सार्वजनिक वाहन का उपयोग ज्यादा करते हैं।
  • संयुक्त परिवार को महत्व देते हैं। परस्पर मिलना-जुलना, सामाजिकता पर बल देते हैं।
            यही कारण है कि जापानियों की जीवन प्रत्याक्षा (Life Expentence)  82.5 वर्ष है, जो विश्व में सबसे ज्यादा है, जबकि भारत में 65 है। जापानी सिर्फ लम्बी उम्र ही नहीं जीते, बल्कि उनमें हृदय रोग, मोटापा, डायबिटीज जैसे विकृत जीवन शैली जनित रोगों का प्रतिशत भी काफी कम है।
            उपरोक्त सभी सूत्र भारतीय संस्कृति में पूर्व से विद्यमान है, लेकिन उनके प्रति उदासीनता के कारण जीवन शैली में बदलाव स्पष्ट देखा जा सकता है।  अब प्रश्न यह उठता है कि स्वस्थ जीवन शैली की ये कलात्मक जीवन सूत्र हमारे देश में मौजूद हैं, फिर भी हमारे यहाँ स्वास्थ्य की स्थिति चिन्ताजनक क्यों है?  इसका कारण यह है कि कला के साथ विज्ञान का समन्वय नहीं हो पाना। आज स्वस्थ जीवन के सूत्रों के वैज्ञानिक पक्ष को खुले दिमाग से सामने लाना होगा। 
            विवाह, गर्भाधान, बाल-किशोर, प्रौढ़ावस्था अर्थात् जीवन के प्रत्येक चरण को स्वस्थ रखने के लिए स्वस्थ जीवन शैली के सूत्र भारतीय चिन्तन में निहित हैं। ऐसे सूत्रों के कलात्मक और वैज्ञानिक पक्ष को चिन्तकों, अनुभवी विद्वानों, विषय विशेषज्ञों द्वारा व्यवहार में लाने हेतु संयुक्त प्रयास करने होंगे।

डाॅ. मधुसूदन देशपांडे, आयुर्वेद चिकित्सक, ओजस पंचकर्म सेंटर भोपाल के सहयोग से .......
....कविता रावत