हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषा भाषियों के विरुद्ध अंग्रेजी परस्तों की साजिश - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषा भाषियों के विरुद्ध अंग्रेजी परस्तों की साजिश


हमारा देश जब अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने जा रहा था, हमारे स्वतंत्रता सैनानियों/जन नेताओं ने एक संविधान सभा का गठन किया, ताकि एक संविधान बनाया जाय और देश में शासन करने वाले भारतीय लोगों/नागरिकों द्वारा चुनी गई सरकारें व शासन तंत्र एक नीति/निर्देश/व्यवस्था के अंतर्गत शासन चलाये। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी उल्लिखित है कि हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति और अवसर की समता प्राप्त कराने ....... राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए ...... इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

हमारे इसी संविधान में अनुच्छेद 343 (1) में देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को भारत संघ की राजभाषा और अनुच्छेद 345 के अनुसार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रादेशिक भाषाओं को, प्रदेशों की राजभाषा बनाने का संकल्प लिया। वैसे तो हमारे संविधान में राजभाषा के लिए अनुच्छेद 343 से लेकर अनुच्छेद 351 तक कई अनुच्छेद है। अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी को संघ शासन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार को सौंपा गया है। हमारे संविधान में उल्लिखित अनेक व्यवस्थाओं एवं सुविधाओं का लाभ अनेक लोग उठाते चले आ रहे हैं और लाभ उठा रहे हैं, किन्तु जब हमारा संविधान बन रहा था, तब भी और बाद में भी देश में एक ऐसा तबका जो अंग्रेजों के समय भी देश की सामान्य जनता का शोषण करता था और स्वतंत्रता के बाद भी देश की सामान्य जनता का शोषण करता आ रहा है, हिन्दी को राजभाषा बनाने के मार्ग में काफी अवरोध उत्पन्न किया था। वे अंग्रेजी को ही राजभाषा बनाए जाने के कुचक्र में थे, किन्तु महात्मा गांधी और देश के अन्य स्वतंत्रता सैनानियों ने उनकी एक नहीं चलने दी, और जब तक वे लोग जीवित रहे, अंग्रेजी परस्त बुर्जवा वर्ग की मनमानी नहीं हो पाई। इन्हीं अंग्रेजी परस्तों ने देश में भाषा विवाद पैदा कराया और दक्षिण भारतीयों की आड़ में राजभाषा अधिनियम 1963 में तथा यथा संशोधित 1967 में अंग्रेजी परस्तों के हित में उपबन्ध कराये तथा दक्षिण भारतीय एवं अन्य हिन्दी भाषा भाषियों के हित में कोई उपबन्ध नहीं बनाया। अंग्रेजी परस्तों की यह साजिश पूरे देश के लोगों पर भारी पड़ रही है, क्योंकि भारत के सभी भाषा-भाषी 5 प्रतिशत से अधिक अंग्रेजी नहीं जानते हैं और इस अधिनियम के द्वारा अंग्रेजी परस्तों ने पूरे देश पर अंग्रेजी लाद रखी है। चूंकि देश का 80-90 प्रतिशत तबका गरीब है इसलिए वह कुछ भी बोल नहीं पा रहा है। वर्ष 1967 दिसम्बर में जो राजभाषा संकल्प पारित हुआ और जो वर्ष 1968 जनवरी में गजट हुआ, में यह व्यवस्था अवश्य कराया है कि संकल्प संख्या 4 (क) के अनुसार अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं में भाषा के प्रश्न पत्र में हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषा का विकल्प होगा और संकल्प संख्या 4 (ख) के अनुसार अन्य विषयों की परीक्षा में उत्तर हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं में लिखने का विकल्प होगा।

        काफी संघर्षों एवं प्रयासों के बाद वर्ष 1979 में संकल्प संख्या 4 (क) में हिन्दी भाषा का विकल्प तथा संकल्प संख्या 4 (ख) में अधिकांश विषयों/सेवाओं में हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम से उत्तर लिखने का विकल्प प्राप्त हुआ था। किन्तु अंग्रेजी परस्तों ने देखा कि इस छूट से देश की सामान्य जनता, हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषा-भाषियों के युवा प्रतिभागी सफल होकर काफी संख्या में उच्च प्रशासनिक पदों पर पहुंच रहे हैं, तो उन्होंने दुश्चक्र चलाकर पहले वर्ष 2011 में सिविल सेवा के प्रारम्भिक परीक्षा के द्वितीय प्रश्न पत्र में 22 अंक (मार्क्स) की अंग्रेजी के प्रश्न जोड़े और हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों (प्रतियोगियों) के लिए भी अंग्रेजी में उत्तर देना अनिवार्य कर देने के कारण वर्ष 2011 से प्रधान परीक्षा पर इसका भयानक प्रभाव पड़ा।

वर्ष 2013 से सिविल सेवा परीक्षा (प्रधान) के पैटर्न में बदलाव लाते हुए इन अंग्रेजी परस्तों (संघ लोक सेवा आयोग) द्वारा दिनांक 5 मार्च 2013 को जारी अधिसूचना द्वारा पुनः अंग्रेजी को अनिवार्य करके हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं में परीक्षा देने वाले छात्रों (प्रतियोगियों) के साथ घोर अन्याय किया। इस अधिसूचना के अनुसार 100 अंक के अंग्रेजी के अनिवार्य प्रश्न पत्र में प्राप्त अंक अन्य सभी विषयों में प्राप्त अंकों के साथ जोड़े जायेंगे। अभी तक भारतीय भाषाओं (हिन्दी साहित) और अंग्रेजी के अनिवार्य प्रश्न-पत्र 300-300 अंक के होते थे, जिनके अंक योग्यता सूची (मेरिट लिस्ट) में नहीं जोड़े जाते थे। इनमें निर्धारित अंक लेकर केवल पास (उत्तीर्ण) होना होता था। इस प्रकार के बदलाव से भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले अधिकतर ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग के प्रतिभाशाली युवक अधिकारी बनने से वंचित हो जाते। यह परिवर्तन देश के संविधान एवं संसद में पारित एवं जनवरी 1968 को गजट में प्रकाशित संकल्प और भारत सरकार की राजभाषा नीति के विरुद्ध था। लम्बे समय से सिविल सेवा की तैयारी में लगे हुए युवा प्रतियोगियों (छात्रों) को बड़ा नुकसान होने वाला था। सम्पूर्ण देश की सामान्य जनता के बीच के युवाओं को प्रभावित करने वाला सिविल सेवा की परीक्षा नियमावली में रातोंरोत परिवर्तन एक साजिश एवं केन्द्र सरकार की अंग्रेजी परस्त व तानाशाही मानसिकता को उजागर करती थी, किन्तु ज्यों ही मार्च 2013 मेें अधिसूचना जारी हुआ, देश के अनेक भागों से राजनैतिक दलों द्वारा संसद में तथा संसद से बाहर, युवा संगठनों द्वारा जबरदस्त विरोध के चलते, केन्द्र सरकार को उक्त अधिसूचना वापस लेना पड़ी, किन्तु वर्ष 2011 में हुए बदलाव के बारे में केन्द्र सरकार ने कुछ नहीं कहा और इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय में एक याचिका विचाराधीन थी। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के समक्ष उक्त अन्यायपूर्ण व्यवस्था को रखा गया तो उनके द्वारा तुरन्त अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी व सी सेट को भी अर्हता के दायरे में रख दिया।

           इस सम्बन्ध में मुझे एक कहानी याद आ रही है कि काफी समय पहले भारत का एक पहलवान इंग्लैंड गया और उसने घोषणा करते हुए प्रसारित किया कि यहाँ का कोई पहलवान हमसे कुश्ती लड़ सकता है। यह बात जब इंग्लैंड के पहलवानों को पता चली तो वे आपस में जुटकर विचार किए कि कुश्ती में भारत के पहलवान को हराने की क्षमता किसी में नहीं है, लेकिन कुछ तिकड़म करके उसे परास्त किया जा सकता है। इंग्लैंड के पहलवान वेट लिफ्टिंग (भार उठाने) में माहिर थे। उन लोगों ने भारत के पहलवान के सामने शर्त रखी कि यदि आप इस 10 मन (लगभग 400 किलो बराबर) की नाल को उठा लेंगे तो, तभी हम लोग आपसे कुश्ती लड़ेंगे। भारत का पहलवान चालाक था। दूसरे दिन जब वह अखाड़े में गया तो उसने इंग्लैंड के पहलवानों से कहा कि जो पहलवान इसको उठाते हैं, उनसे कहिए कि वे उसे उठाकर दिखाये। इंग्लैंड का पहलवान चूंकि 10 मन की नाल (भार) उठाने में अभ्यस्त था, तुरन्त मिनट भर में उसे उठा लिया। ठीक उसी समय भारत के पहलवान ने फुर्ती के साथ नाल उठाने वाले पहलवान के पीछे से पैरों के बीच एक हाथ डालकर और एक हाथ गर्दन में डालकर उस पहलवान को उठा लिया, क्योंकि वह 10 मन से अधिक वजन के पहलवानों को उठाने का अभ्यस्त था। फिर इसके बाद इंग्लैंड के पहलवानों ने उसके समक्ष हार मान ली। इसी तरह देश का उच्च सरकारी तंत्र/अभिजात्य वर्ग इसी प्रकार से अंग्रेजी की दीवाल खड़ी कर देश की सामान्य जनता के युवाओं को परास्त करने की जुगत/कुचक्र रचता रहता है। अभी भी केन्द्रीय सरकार का कर्मचारी चयन आयोग एवं कई अन्य भर्ती परिषदों द्वारा नियुक्ति में अंग्रेजी को अनिवार्य बनाकर हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त को, पीछे ढकेलने का कुचक्र जारी रखा है।

          अतः इस देश की सामान्य जनता, गरीब तथा पिछड़े वर्गों के युवाओं को भाषा विशेष कर देश की राजभाषा की स्थिति की जानना चाहिए और उसे प्रतिष्ठापित कराने के लिए संघर्ष करना चाहिए ताकि इस देश में सामाजिक आर्थिक न्याय व जनतांत्रिक व्यवस्थाएं पुष्पित व पल्लवित होती रहे।

....जगदीश नारायण राय
महामंत्री, उपभोक्ता भाषा समिति वाराणसी