ढोलूकुनिथा कर्नाटक का एक ऐसा प्रसिद्ध पारंपरिक लोक नृत्य है, जो ऊर्जा से भरपूर होता है। यह लोकनृत्य विभिन्न मंदिर त्योहारों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और समारोहों का एक अभिन्न अंग है। करागा उत्सव जुलूस, मैसूर दशहरा, जम्बू सावरी, बेंगलुरु हब्बा आदि उत्सवों में इसका प्रदर्शन सहज रूप में देखा जाता है। यह श्री बीरालिंगेश्वर की पूजा से जुड़ा एक ऐसा लोकप्रिय लोक नृत्य है,जिसे भगवान शिव के एक रूप में माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति उत्तरी कर्नाटक के कुरुबा गौड़ा समुदाय के अनुष्ठानों से हुई बताया जाता है।
इस लोक नृत्य को उत्पत्ति भगवान शिव के भैरव तांडव नृत्य से जोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि शिव ने जिन राक्षसों को मारा था उनकी खाल से एक ड्रम बनाया था, जिसे उनके मुख्य भक्त राक्षसों के वध के जश्न के रूप में बजाकर खुशी मनाते हैं।
इस लोकनृत्य का प्रदर्शन 12 से 16 ढोल वादकों के समूह में किया जाता है, जिसमें पुरुष और महिला दोनों टीम इसके हिस्से हो सकते हैं।इस लोकनृत्य में उच्च डेसिबल, उच्च ऊर्जा प्रदर्शन होता है। ड्रम नृत्य आमतौर पर गोलाकार या अर्ध-गोलाकार रूप में किया जाता है, जिसमें ड्रम धारक गायन और संगीत के साथ लय में अपने ड्रम बजाते हैं। इसमें भारी ड्रम को घंटों तक पकड़ने और उसके साथ नृत्य करने में सक्षम, हृष्ट-पुष्ट पुरुष स्त्री जिनमें बहुत अधिक सहनशक्ति हो, वही भाग लेते हैं।और सहनशक्ति की आवश्यकता होती है। इस वजह से ढोलू कुनिथा नृत्य में केवल हृष्ट-पुष्ट पुरुष ही हिस्सा लेते थे।यह एक अदभुत रोमांचकारी लोक नृत्य है, जिसे जो एक इसे देखता है, वह बार बार देखना चाहेगा।
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