आम्रकुन्जों के झुरमुट से
बह रही मंद-मंद पवन पर उदास मन बैठी मैं
दिखता हरतरफ सूनापन
आम्रकुंजों की देख हरीतिमा तब
कहता मुझसे मेरा पतझड़ मन
छिपा ले हरे -भरे पत्तों में तू भी
अपनी अदृश्य पीड़ा सघन
हरे -भरे पत्तों के बीच बैठी कोयल
क्यों मधुर गीत सुनाती है!
मेरे सूने मन खंडहर में आकर
क्यों सोए अरमान जगाती है
पतझड़ मन से झर- झर झरती पत्ती
लगती जीवन डाली सूनी खाली
हरतरफ आवाज झनकती झींगुरों की
जीवन डाल पर बुनती मकड़ी जाली
यूँ ही बीत रहे जीवन के पल-पल
कभी लगता वीरान यह अंतर्मन
आता वसंत कब पता न चलता
लगता पतझड़ सा यह जीवन
मन के घोर निराशा के क्षण में जब चाह तमन्नाओं की निरंतर धारा प्रवाहित होने लगती है, तब कहाँ कुछ भी अच्छा लगता है! ये सुन्दर प्रकृति भी वीरान, सुनसान लगने लगाती है. अवसाद भरा मन सबसे दूर भागता है और अपने ही दुःख में डूबा इंसान खुद से बातें करता, खुद को समझाता रहता है, जिससे वह सारी दुनिया से कटकर रह जाता है. वह मन में ऐसी धारणा बिठा लेता है कि यही दुनिया तो उसके दुःख का कारण है!
ऐसे ही अवसाद के क्षणों में रची मेरी यह रचना भले ही वर्तमान परिदृश्य में अप्रासंगिक हो चली हो, लेकिन यह मुझे उन क्षणों की याद दिलाकर मुझमे ऊर्जा का संचार करती है और मैं डटकर आज विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने में अपने को सक्षम पाती हूँ. आज मैं यह कदापि नहीं चाहती हूँ कि किसी इंसान पर उसका दुःख हावी हो और वह उसी में डूबकर अपने आप को इस संसार से अलग-थलग समझने की भूल कर अपना संसार बर्बाद कर दे. आज इसी वजह से मैं जब कभी, जहाँ कहीं भी किसी भी इंसान को इस दशा में देखती हूँ तो मैं उसे इससे उबारने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहती हूँ, ताकि वह भी जीवन को सच्चे अर्थ में लेकर जीवन जीने का आशय समझ सके............ कविता रावत