गाँव छोड़ शहर को धावै - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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रविवार, 31 अक्तूबर 2010

गाँव छोड़ शहर को धावै

गाँव छोड़ शहर को धावै
करने अपने सपने साकार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!

निरख शहर में जन-जन को
बिखरते सपने टूटता दिल
भटक रहें हैं शहर-शहर
पर पा न सके मंजिल

कदाचार व्याप्त दिखे हरतरफ
जाने कहाँ विलुप्त सदाचार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!

निज स्वार्थपूर्ति में दिखे सब
अब कौन करे भला उपकार
तरस रहे शहर में अपनेपन को
पर मिलता कहाँ अपना सा प्यार

अरमानों की गठरी लादे फिरते
आकर शहर भटक रहे बेरोजगार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!

          ........कविता रावत

48 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

samaj tut raha hai to kuchh aawaj to hogi ?

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत लाजवाब और उम्दा लिखा है......गहरी बात आसानी से कह दी आपने

संजय भास्‍कर ने कहा…

आज की दुनिया का कटु शाश्वत वास्तविक सत्य ..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

गांव में भी गुजर नहीं है..

सुज्ञ ने कहा…

एक कठिन सच्चाई!!

खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!

बेनामी ने कहा…

कविता जी, बहुत ही ख़ूबसूरत रचना...आज पलायन इतना ज्यादा हो गया है, कि गाँव की सीमाएं सिमटती जा रही हैं..

राज भाटिय़ा ने कहा…

कविता जी लोग भुख ओर मजबुरी मे पलायन करते हे, सुख की चाह मे, बहुत अच्छी कविता धन्यवाद

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

कविता जी,
एक ओर जहाँ विरह, आँसू, टूटा दिल, बेवफाई आदि विषय पर कविताई हो रही हो, वहम आपकी कविताएँ समाजी सरोकार से जुड़ी होती हैं, जो सोचने पर विवश करती हैं, झकझोरती हैं और इंसान को आईना दिखाती प्रतीत होती हैं. आपकी यह कविता भी उसी की एक ठोस कड़ी है. ऐसे ही लिखते रहिये!!

शूरवीर रावत ने कहा…

पलायन पर आपकी कविता पढी, अच्छी लगी..........शब्दों का चयन इतना प्रभावोत्पादक तो नहीं किन्तु भावों में गंभीरता है ........पलायन पर आपकी सोच सकारात्मक है. ......... मुझे नहीं पता कि आपका गढ़वाल और गढ़वाली से कितना सम्बन्ध है किन्तु गढ़वाल के लोकप्रिय कवि/गायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी की लगभग बीस साल पहले एक अल्बम आयी थी "छिबडाट " कभी मौका लगे तो अवश्य सुनना कविता जी. छिबडाट में एक कविता थी "...........को मलासलू लाटा मुंडी तेरी, को पेलू भुकि चौन्ठी पकड़ी! क्वी नी सुणदू खैरी कैकी ल्हीजा अपणा दुःख अफु दगडी! खोटी हैन्सी हंसदन भैर, छन पित्त पक्याँ यख जिकुडूयूँ म़ा, जा लौट जा डांडी कांठयूँ म़ा.........."

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच है न जाने कितने ख्वाब ले कर शहर आते हैं सब ... पर इंट पत्थर के शहर सब लो लील लेते हैं ...

Udan Tashtari ने कहा…

वाकई भटक तो गये ही हैं..मगर कोई रास्ता लौटता नहीं दिखता.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

तरस रहे शहर में अपनेपन को
पर मिलता कहाँ अपना सा प्यार
अरमानों की गठरी लादे फिरते
आकर शहर भटक रहे बेरोजगार
सच है. अपनापन तो दूर, कोई ठीक से बात ही कर ले, यही क्या कम है, लेकिन कहां? अपना घर-गांव छोड़ने की सज़ा सी है ये.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

वर्तमान को देखते हुए बहुत ही सही बात कही आपने.

केवल राम ने कहा…

बिखरते सपने टूटता दिल
भटक रहें हैं शहर-शहर
पर पा न सके मंजिल
कदाचार व्याप्त दिखे हरतरफ
जाने कहाँ विलुप्त सदाचार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!
आज की चकाचौंध को देखकर हर कोई दिग्भ्रमित होता है , व्यक्ति हर तरह के संबंधों को त्यागकर जब उन्नति की चाह में शहर का रुख करता है तो उसे यह आभास होता है कि नेतिकता नाम कि भी कोई चीज होती है , आगे बढ़ने कि चाह और अनिश्चतता के कारण यह सब कुछ होता है ,
सुंदर पोस्ट ..शुभकामनायें

उस्ताद जी ने कहा…

4.5/10

सार्थक सोच / सामान्य लेखन
सुख की खोज में....गाँव से पलायन...शहर में दर-बदर
यही नियति बन गयी है लाखों-करोड़ों की

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सबकी यही कहानी है। कोई गांव से शहर आ रहा है तो कोई शहर से मेट्रो जा रहा है तो कोई मेट्रो से विदेश। पेट जा न कराए कम है।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

पेट जो न कराए कम है।

मनोज कुमार ने कहा…

यह दर्द अब टीस बनकर सता रहा है। बेहतरीन कविता।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

गहरी बात ......बहुत अच्छी कविता.... धन्यवाद

honesty project democracy ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
honesty project democracy ने कहा…

सार्थक प्रस्तुती....वास्तव में भ्रष्टाचार और बिल्डर माफिया की गुलामी कर रही इस देश की सरकार नीतियाँ ही ऐसी बना रही है की गांव का विकाश ना हो और शहरों में लोग जानवरों की तरह रहने और काम करने को मजबूर हों....गांवों में जिले का कलक्टर,SP और भ्रष्ट जन प्रतिनिधियों के गठजोर से साडी विकाश योजनाओं को लूट लिया जाता है पढ़े-लिखे इमानदार लोगों को कोई सरकारी ऋण आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है इतनी कुव्यवस्था और अराजकता है की अगर इस देश में ईमानदारी और सच्चाई से जाँच हो तो 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधि,डीएम,SP अपराध और लूट में इस तरह लिप्त पाए जायेंगे की उनके लिए सरे आम फंसी की सजा भी कम ही लगेगी ...लेकिन जाँच कौन करे..आदर्श हाऊसिंग घोटाला हुआ है और सबसे भ्रष्ट मंत्री प्रणव मुखर्जी उसकी जाँच कर रहें हैं क्या एक भ्रष्ट व्यक्ति किसी भ्रष्टाचार की जाँच कर सकता है ......? इस भ्रष्ट सरकार को देश में जाँच के लिए किरण बेदी,अरविन्द केजरीवाल,अन्ना हजारे जैसे लोग दिखतें ही नहीं.....सोनिया गाँधी जैसी भ्रष्टाचार की देवी का ये सब प्रकोप है ...

Dr Xitija Singh ने कहा…

बहुत खूब कविता जी ... आजकल तो गाँव देखने को ही नहीं मिलते .. और पलायन के बाद जो उनकी दश होती है वो और भी दुखदायी है

Apanatva ने कहा…

sarthak lekhan......aaj kee hakeekat bayan kar dee hai ise rachana ne........hamesha kee tarah badee hee sunder abhivykti........
Aabhar .

Unknown ने कहा…

निज स्वार्थपूर्ति में दिखे सब
अब कौन करे भला उपकार
तरस रहे शहर में अपनेपन को
पर मिलता कहाँ अपना सा प्यार
अरमानों की गठरी लादे फिरते
आकर शहर भटक रहे बेरोजगार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!
...ek dard bhari kasak ke saath shahar mein bhatkate berojgaaron ke maarmik abhivyakti ke liye aabhar

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

sahri jivan ka aakrshan or gaon main mulbhut subhidhaon ka aaabhav or berojgari se nijat paaney hetu jb koi yuva apney gaon ko chodkr sahar ko palayan kr jata hai to na jane kitney sapney uskey jehan main angrai ley rahey hotey hain or jb usko lagta hai ki uskey sapney mahaj sapney hi rh gaye to tb tk sahyad bahut der ho chuki hoti hai....

abhaar

kshama ने कहा…

Kaisa dil zarozaar rota hai,jab apnapan nahi milta!

निर्मला कपिला ने कहा…

अरमानों की गठरी लादे फिरते
आकर शहर भटक रहे बेरोजगार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!
आज की त्रासदी की सुन्दर शब्दों मेीअभिव्यक्ति। शुभकामनायें।

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

शहर की चकाचौंद एक भूल भुलैया तमाम उम्र बनाये रखती है जो मृगतृष्णा से अपनी ओर खींचे रखती है और गाँव से निकला इंसान ना शहर का रहता है न गांव का. कितना अवसाद है.

सुंदर रचना.

girish pankaj ने कहा…

marmik...palayan kadard to bhogane valaahi samajh sakata hai.....

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

शहर की चकाचौध युवाओ को अपनी तरफ खीच तो लाती है मगर इन सपनों के टूटने में ज्यादा वक्त नहीं लगता.... बहुत सच कहा है आप ने इस कविता के माध्यम से......

pratibha ने कहा…

खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार
...बहुत सच कहा है आप ने....एक कठिन सच्चाई!!

shailendra ने कहा…

बिखरते सपने टूटता दिल
भटक रहें हैं शहर-शहर
पर पा न सके मंजिल
कदाचार व्याप्त दिखे हरतरफ
जाने कहाँ विलुप्त सदाचार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार
.....आज की त्रासदी पर सोचने पर विवश करती अभिव्यक्ति। शुभकामनायें।

Sushil Joshi / सुशील जोशी ने कहा…

कविता जी, बहुत ही सही कहा है आपने। आज की पीढ़ी जिस तरह से गाँव छोड़कर शहरों की तरफ पलायन कर चुकी है, यह उनका दुर्भाग्य ही है कि उन्हें शहरों में जीवन यापन के लिए क्या क्या कर्म करने पड़ रहे हैं फिर भी उनका पेट खाली रह जाता है क्योंकि यहाँ उन्हें प्यार नहीं मिलता। इस अर्थपूर्ण रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

बिल्कुल सही।

कुमार राधारमण ने कहा…

फिल्म गमन के कई दृश्य याद आ गए।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

एक बेरोजगार की मनोदशा का सही चित्रण किया है .....
आपकी रचनायें समाज से जुडी होती हैं कविता जी ....

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

कविता जी,
नमस्ते!
करेक्ट है!
आशीष
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पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!

ZEAL ने कहा…

जाने कहाँ विलुप्त सदाचार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!
निज स्वार्थपूर्ति में दिखे सब
अब कौन करे भला उपकार

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Beautiful poem, revealing the bitter facts of life around.

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Unknown ने कहा…

निज स्वार्थपूर्ति में दिखे सब
अब कौन करे भला उपकार
तरस रहे शहर में अपनेपन को
पर मिलता कहाँ अपना सा प्यार
अरमानों की गठरी लादे फिरते
आकर शहर भटक रहे बेरोजगार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!
...सपनों के टूटने में ज्यादा वक्त नहीं लगता.... बहुत सच कहा है आप ने ...
अर्थपूर्ण रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई

vijay ने कहा…

सार्थक सोच
सुख की खोज में....गाँव से पलायन...शहर में दर-बदर
यही नियति बन गयी है लाखों-करोड़ों की
..आज की त्रासदी पर सोचने पर विवश करती अभिव्यक्ति।

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar ने कहा…

गहन संवेदना से भरा-पूरा दिल है आपका... यह सच्चाई आपकी इन लघु रचनाओं से उजागर हो रही है!

बहुत-बहुत बधाई...दीप-पर्व की!

Unknown ने कहा…

खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार..
सच है न जाने कितने ख्वाब ले कर शहर आते हैं सब ..यह सच्चाई आपकी इन लघु रचनाओं से उजागर हो रही है!

जय श्री डांडानागराजा ने कहा…

कविता जी आपने अपनी इस सुंदर लेख के द्वारा मेरे उत्तराखंड मे पलायन और बेरोजगारी की सबसे बड़ी बिडम्बना पर सजीव चित्रण किया है !! आप का लेख मन की गहरिएयों मे उतर कर एक टीश सी उत्पन कर देता है और दिमाग सोचने को मजबूर हो जाता है की हम भी इस पलायन और बेरोजगारी का एक नासूर अंग है ????

Unknown ने कहा…

jabardasht rachna ..gaon se palayan nahi tham rahai hai... man ko andolit karti rachna..

Sweta sinha ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,

Lokesh Nashine ने कहा…

बहुत उम्दा

शुभा ने कहा…

वाह!!कविता जी , सुंदर और सटीक रचना ।

Kamini Sinha ने कहा…

बहुत सुंदर सृजन , ,सादर नमस्कार