सुबह बच्चों का टिफिन तैयार करते समय किचन की खुली खिड़की से रह-रहकर बरसती फुहारें सावन की मीठी-मीठी याद दिलाती रही। सावन आते ही आँगन में नीम के पेड़ पर झूला पड़ जाता था। मोहल्ले भर के बच्चों के साथ स्कूल से लौटने के बाद 'पहले मैं', पहले मैं' की चकल्लस में झूलते-झूलते कब शाम उतर आती , इसका पता माँ-बाप की डांट पड़ने के बाद ही चलता था । आज जब उस नीम के पेड़ को देखती हूँ तो महसूस करती हूँ उसकी जिन टहनियों पर कभी सावन आते ही झूले डल जाया करते थे अब उपेक्षित सा ठूंठ बन खड़ा अपनी बेबसी के मारे आकाश निहारता रहता है। उसकी छाया तले घर वालों ने वाहनों के लिए एक शेड बना लिया है, उसकी यह बदली तस्वीर खटके बिना नहीं रहती। समय के साथ कितना कुछ बदल जाता है। अब तो उसकी झरती पत्तियां भी आँगन बुहारने वालों को सबसे बेगार का काम लगने लगा है। अपनी ओर देखती हूँ तो अपना भी हाल कुछ दयनीय बन पड़ा है। सुबह कच्ची नींद से जागने के बाद बच्चों के लिए टिफिन, उनके नाज-नखरे सहते हुए उनकी रवानगी और फिर अपने ऑफिस के लिए कूच। फिर शाम को बच्चों को झूलेघर से लेना, उनके होमवर्क की माथापच्ची के साथ अपने होमवर्क यानी खाना पकाने की जद्दोजहद के बीच झूलती जिंदगी सावन के झूले से कमतर नहीं है।
सावन तो आकर चला गया। मन घर से बाहर की ताजी सावनी बयार के लिए बस तरस कर रह गया। भादों भी कहीं यूँ ही फिसल न जाए इसलिए भादों की शुरूवात में ही एक दिन हम सब रिमझिम बरसती बूंदों में बड़े तालाब के किनारे-किनारे शहर की शान मरीन ड्राइव कहलानी वाली वीआईपी रोड पर निकल पड़े। जब कभी थोडा समय होता है तो यही वह जगह है जब प्रकृति को करीब से देखने और अनुभव करने का मौका मिलता है। इस बार सामान्य से अच्छी बारिश के चलते लबालब हुए जा रहे तालाब और आस पास के हरे-भरे नज़ारों को देखने का कुछ अलग ही आनंद आया।
जिस दिन भी जमकर बारिश होती है और सड़क, नाले छोटी सी नदी के आकार में बहते दिखते हैं तो मुझे गाँव की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों के बीच बहते निर्मल जलस्रोत याद आने लगते हैं। और याद आने लगता है गाँव के निकट बहती दो नदियों का संगम। जिसमें एक छोटी सी नदी में साफ़ पानी और दूसरी बड़ी नदी में चाय सा बहता पानी मिलकर एक बड़ी नदी का विकराल रूप ले लेता है। तीव्र गति से अपनी यात्रा शीघ्र पूर्ण करने को तत्पर दिखती वे नदी, बरबस ही याद आने लगती है। हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को बटोरने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े चले जाते थे । घंटों उसके उतार की राह ताकते रहते थे। इस बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, जिनसे हम बेपरवाह रहते थे।
पिछले बार जब बरसात में गाँव जाना हुआ तो नदी में आयी बाढ़ देखने का मौका मिला, बचपन जैसा उत्साह तो मन में नहीं था लेकिन बचपन के दिन रह-रह कर याद आते रहे। अब तो बचपन अपने बच्चों में ही दिखने को रह गया है। उनको हम लाख चाहने पर भी इस शहरी आपाधापी के चलते प्रकृति को करीब से दिखाने और समझाने में असमर्थ से हो रहे हैं। कोई भी प्रकृति के अन्तःस्थल में छुपी आनंद की धाराओं को तब तक कहाँ अनुभव कर पाता है जब तक वह स्वयं इनके करीब न जाता हो। भादों की बरसती काली घटाओं की ओट से निकलकर अब तो अक्सर जीवन के चारों ओर संघर्षों, दुर्घटनाओं, दुर्व्यवस्थाओं की व्यापकता देख हरपल उपजती खीज, घुटन और बेचैनी से राहत पहुँचाने आकुल-व्याकुल मन जब-तब अबाध गति से बहती नदी धार में जीवन प्रवाह का रहस्य तलाशने सरपट भागा चला जाता है।
जिस दिन भी जमकर बारिश होती है और सड़क, नाले छोटी सी नदी के आकार में बहते दिखते हैं तो मुझे गाँव की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों के बीच बहते निर्मल जलस्रोत याद आने लगते हैं। और याद आने लगता है गाँव के निकट बहती दो नदियों का संगम। जिसमें एक छोटी सी नदी में साफ़ पानी और दूसरी बड़ी नदी में चाय सा बहता पानी मिलकर एक बड़ी नदी का विकराल रूप ले लेता है। तीव्र गति से अपनी यात्रा शीघ्र पूर्ण करने को तत्पर दिखती वे नदी, बरबस ही याद आने लगती है। हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को बटोरने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े चले जाते थे । घंटों उसके उतार की राह ताकते रहते थे। इस बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, जिनसे हम बेपरवाह रहते थे।
पिछले बार जब बरसात में गाँव जाना हुआ तो नदी में आयी बाढ़ देखने का मौका मिला, बचपन जैसा उत्साह तो मन में नहीं था लेकिन बचपन के दिन रह-रह कर याद आते रहे। अब तो बचपन अपने बच्चों में ही दिखने को रह गया है। उनको हम लाख चाहने पर भी इस शहरी आपाधापी के चलते प्रकृति को करीब से दिखाने और समझाने में असमर्थ से हो रहे हैं। कोई भी प्रकृति के अन्तःस्थल में छुपी आनंद की धाराओं को तब तक कहाँ अनुभव कर पाता है जब तक वह स्वयं इनके करीब न जाता हो। भादों की बरसती काली घटाओं की ओट से निकलकर अब तो अक्सर जीवन के चारों ओर संघर्षों, दुर्घटनाओं, दुर्व्यवस्थाओं की व्यापकता देख हरपल उपजती खीज, घुटन और बेचैनी से राहत पहुँचाने आकुल-व्याकुल मन जब-तब अबाध गति से बहती नदी धार में जीवन प्रवाह का रहस्य तलाशने सरपट भागा चला जाता है।
सावन तो आकर चला गया। मन घर से बाहर क ताजी सावनी बयार के िलए बस तरस कर रह गया।
ReplyDeleteBahut khoob. Yeh to kavyamay prastuti jaisi hai.sundar vicharo ko saajha karne ke liye dhanyawaad.
bahati dhara aur jeene ki chaah ...sach me milti julti baten hain ...
ReplyDeletesunder bhavpoorn alekh...
गाँव के सावन के झूले तो झूल लिए । अब मेट्रो , मॉल , मोबाईल आदि का लुत्फ़ उठाइए ।
ReplyDeleteवक्त ही एक ऐसी चीज़ है जो कभी ठहरता नहीं ।
सुन्दर यादों को संजोये हुए वर्तमान को एन्जॉय करते रहना चाहिए ।
यह सब बदलते वक्त का असर है लेकिन अपना गाँव अपनी मिटटी की महक कभी नहीं जाती , आपने मेरे बचपन की याद दिलादी
ReplyDeletebest
ReplyDeleteकोई भी प्रकृति के अन्तःस्थल में छुपी आनंद की धाराओं को तब तक कहाँ अनुभव कर पाता है जब तक वह स्वयं इनके करीब न जाता हो।
ReplyDeleteयथार्थ है और परिवर्तन भी अवश्यम्भावी है ।
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 12-09-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteआज 11- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
स्मृतियों के झूले संग संवेदनशील लेखन....
ReplyDeleteबहुत सार्थक...
सादर...
मौसम इसी तरह यादें ले आता है...मन को छू लेने वाला संस्मरणात्मक लेख...
ReplyDeleteमुझे आपके गाँव को देखकर अपने गाँव की याद आ गई . देखती हूँ कब जा पाती हूँ .
ReplyDeletebahut khoobsurat sansmaran uttrakhand kii pahadiya aawaz deti prteet ho rahi hain hai
ReplyDeleteमन को छू लेने वाला लेख.
ReplyDeleteयादों का संसार भी अत्यंत मजेदार है. सुंदर संस्मरण.
ReplyDeleteyaaden kabhi nahi mit ti aur jahan apna bachpan khela ho vo to kabhi nahi.aapka sansmaran man choo gaya.
ReplyDeleteबहुत उम्दा आलेख!
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख |
ReplyDeleteअच्छा और प्रकृति से जुडाव का अहसास कराता आलेख
ReplyDeleteमन को छू लेने वाला संस्मरणात्मक लेख|धन्यवाद|
ReplyDeleteअद्भुत शब्दचित्र.. मानो घटनाएँ और स्थान सजीव हो उठे हों!!
ReplyDeleteअब तो बचपन अपने बच्चों में ही दिखने को रह गया है। उनको हम लाख चाहने पर भी इस शहरी आपाधापी के चलते प्रकृति को करीब से दिखाने और समझाने में असमर्थ से हो रहे हैं। ... dukhad satya
ReplyDeleteगांव से लेकर शहर तक के यथार्थ को आपने रेखांकित कर दिया, एक एक शब्द बोल रहे हैं व्यवस्था की वास्तविकता को।
ReplyDeleteबचपन की यादों के साथ सुन्दर संस्मरण ..
ReplyDeleteआदरणीय कविता जी!
ReplyDeleteनमस्कार !
.....सुन्दर संस्मरण
आपकी लेखनी का इंतज़ार रहता है,कलम का जादू देखने के लिए
गर्मी, जाड़ा, बरसात, जीवन का क्रम चलता रहेगा।
ReplyDeletesach mei , wo bachpan ab jane kaha kho gaya, saheripan hum logo pe hawi nahi bohot jada hawi ho gaya hai jisne hume un sunheri yado se dur kar diya hai
ReplyDeleteअत्यंत मर्मस्पर्शी पोस्ट...
ReplyDelete------
चलो चलें मधुबन में....
मन की प्यास बुझाओ, पूरी कर दो हर अभिलाषा।
समय और स्थान एक से नहीं रहते. इनमें हो रहे निरंतर परिवर्तन को जीते रहना जीवन का महत्वपूर्ण लक्षण हैं.
ReplyDeleteअग्रिम आपको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं आज हमारी "मातृ भाषा" का दिन है तो आज हम संकल्प करें की हम हमेशा इसकी मान रखेंगें...
ReplyDeleteआप भी मेरे ब्लाग पर आये और मुझे अपने ब्लागर साथी बनने का मौका दे मुझे ज्वाइन करके या फालो करके आप निचे लिंक में क्लिक करके मेरे ब्लाग्स में पहुच जायेंगे जरुर आये और मेरे रचना पर अपने स्नेह जरुर दर्शाए..
MADHUR VAANI कृपया यहाँ चटका लगाये
MITRA-MADHUR कृपया यहाँ चटका लगाये
BINDAAS_BAATEN कृपया यहाँ चटका लगाये
जिसका बचपन प्रकृति की गोद में पला हो, उसे वो दिन सबसे ज्यादा कचोटते हैं. और फिर आप तो देवस्थली हिमालय की खूबसूरत वादियों की हैं, आपको कैसा महसूस होता होगा, ये मैं समझ सकती हूँ. बरसात में पहाड़ों पर बहने वाली बरसाती नदियाँ और झरने देखे हैं मैंने, पर आपने तो उनके बीच अपना बचपन गुजारा है, उन्हें जिया है, उनसे दोस्ती की है. कैसी टीस उठती होगी मन में?
ReplyDeleteप्रकृति का सुन्दर चित्रण.. तस्वीर भी लाजवाब....पढ़कर गाँव याद आने लगा ..
ReplyDeleteधन्यवाद
परिवर्तन का सुख लो .परिवर्तन ही शाश्वत है .जड़ता नाशक है .
ReplyDeleteपरिवर्तन का सुख लो .परिवर्तन ही शाश्वत है .जड़ता नाशक है .अतीत तो पिरा रहता है गुम्फित रहता है वर्तमान में भले स्वरूप बदल जाता है जीवन का .
ReplyDeleteपरिवर्तन का सुख लो .परिवर्तन ही शाश्वत है .जड़ता नाशक है .अतीत तो पिरा रहता है गुम्फित रहता है वर्तमान में भले स्वरूप बदल जाता है जीवन का .
ReplyDeleteजिस प्रकार कुदरत भी अपना रूप बदल रही है उससे तो एक दिन ऐसा आयेगा कि लोग भूल जायेंगे कि सावन के मायने क्या है. इंसानों की तो बाते ही क्या....
ReplyDeleteछोटे और एकल परिवार तथा महानगरी संस्कृति के चलते ऐसा भी तो होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि ये मौसा-मौसी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, आँगन, तुलसी चौरा, नीम/बरगद की छांव और और ..... क्या होता है. यह हकीकत है...... अधिक बारिस के चलते आसाम में गेंहू और गन्ना नहीं होता है. तो वहां पर किसी स्थानीय निवासी ने कभी वर्षों पहले किसी से जिज्ञासावश पूछ लिया होगा कि "चीनी का पेड़ कैसा होता है और आटे का पेड़ भी कैसा होता है." तो वहां पर यह कहावत खूब चल पड़ी...
भोपाल पर केन्द्रित लेख के साथ अपने इलाके की फोटो का अच्छा संगम बन पड़ा है. आभार.
प्रकृति की सुन्दर छटा देखने और पढ़ने को मिला..मन को छू लेने वाला सुन्दर संस्मरणात्मक....आभार
ReplyDeleteहम लाख चाहने पर भी इस शहरी आपाधापी के चलते प्रकृति को करीब से दिखाने और समझाने में असमर्थ से हो रहे हैं।
ReplyDeleteसही कहा आपने.....बहुत ही सार्थक और सारगर्भित पोस्ट.
तीव्र गति से अपनी यात्रा शीघ्र पूर्ण करने को तत्पर दिखती वे नदी, बरबस ही याद आने लगती है। हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को बटोरने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े चले जाते थे । घंटों उसके उतार की राह ताकते रहते थे। इस बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, जिनसे हम बेपरवाह रहते थे।
ReplyDelete....प्रकृति की सुन्दर छटा को संस्मरण के रूप में पढना और देखना बहुत अच्छा लगा.. कुछ न कुछ सार्थक सन्देश आपकी ब्लॉग पोस्ट पर देखना सुखकर लगता है... .धन्यवाद
सावन तो आकर चला गया। मन घर से बाहर की ताजी सावनी बयार के लिए बस तरस कर रह गया। भादों भी कहीं यूँ ही फिसल न जाए इसलिए भादों की शुरूवात में ही एक दिन हम सब रिमझिम बरसती बूंदों में बड़े तालाब के किनारे-किनारे शहर की शान मरीन ड्राइव कहलानी वाली वीआईपी रोड पर निकल पड़े।
ReplyDelete..हम भी वीआईपी रोड पर घूमना फिरना बहुत पसंद करते हैं ...बच्चों के साथ घुमने का अलग ही मजा है पर समय ही तो है जो रुला देता है....आपका यह सजीव चित्रण मन को भा गया...प्रशसनीय लेख के लिए आपका आभार
भादों की बरसती काली घटाओं की ओट से निकलकर अब तो अक्सर जीवन के चारों ओर संघर्षों, दुर्घटनाओं, दुर्व्यवस्थाओं की व्यापकता देख हरपल उपजती खीज, घुटन और बेचैनी से राहत पहुँचाने आकुल-व्याकुल मन जब-तब अबाध गति से बहती नदी धार में जीवन प्रवाह का रहस्य तलाशने सरपट भागा चला जाता है।
ReplyDelete..प्रकृति का सुन्दर चित्रण ...प्रकृति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है लेकिन आज के भागदौड़ अखरती हैं..
बढ़िया सुन्दर रंचना पढवाने के लिए आभार
उम्र के साथ ... समय के सार्थ साथ बदलाव आते रहते हैं ... प्राकृति कभी आशा बंधाती है कभी वास्तविकता में ला पटकती है ... पर ऐसे पल जीवन को हमेशा उत्साह देते अहिं ...
ReplyDeleteप्रकृति का सुन्दर चित्रण ..
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक और सारगर्भित पोस्ट.
आपकी प्रस्तुति और चित्र दोनों ही लाजबाब हैं.
ReplyDeleteप्रकृति का अनोखा अहसास कराती सुन्दर
प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
प्रकृति का अनोखा अहसास कराती सुन्दर और सारगर्भित पोस्ट.
ReplyDeleteशनिवार १७-९-११ को आपकी पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है |कृपया पधार कर अपने सुविचार ज़रूर दें ...!!आभार.
ReplyDeleteयादों की मनोहर झांकी
ReplyDeleteaapki lekhni me drshya utpan karne ki takat hai .sunder varnan kiya hai .abhar
ReplyDeleterachana
जब मैं फुर्सत में होता हूँ , पढ़ता हूँ और तहेदिल से इन भावनाओं का शुक्रगुज़ार होता हूँ ....
ReplyDeleteजिंदगी की भागदौड़ के बीच इतना सुन्दर चित्रण पढना मन प्रसन्न हुआ.. सुन्दर लेखन के लिए बधाई
ReplyDeleteham padhkar gaon kee beeti yaadon mein doob gaye.. barsati nadi ki teevra dhar ka tede-medhe rahon se gujna kabhi nahi bhool pate hain aur nahi bhoolinge...
ReplyDeletebahut bahut dhanyavaad aapka...
मन को छू लेने वाला यादों की मनोहर झांकी.. ..
ReplyDeleteक्या कहें ..........
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना है.....जो की खूबसूरत शब्दों के ताने बाने में बुनी गई है......
समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। कई बार तो इंसानो की मूल फितरत भी... जबकि कहा जाता है कि आदमी की मूल प्रवृत्ति कभी नहीं बदलती।
ReplyDeleteजिन्दगी की भगदड के बीच फुरसत से बिताए पल अच्छे लगे।
यथार्थ का सुन्दर चित्रण ...
ReplyDeleteप्रकृति को करीब से देखना बहुत भाया..
बहुत बढ़िया लगा ! बेहतरीन प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
... नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं....
ReplyDeleteआपका जीवन मंगलमयी रहे ..यही माता से प्रार्थना हैं ..
जय माता दी !!!!!!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआजकल कुछ निजी व्यस्तताओं के कारन ब्लॉग जगत में पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा हूँ जिसका मुझे खेद है, बावजूद इसके आपको स:परिवार नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ ,
ReplyDeleteजय माता दी ...........
KAVITA JI
ReplyDeletePranam. main bhi uttrakhand se hoon. apke es post me uttrakhand ki photos dhekh kar aisa laga jaise ye photo mere aangan se hi khichi ho.apnapan mahsus hua hai..
बहुत ही मनभावन यादों के इन्द्रधनुषी रंगों को समेटे ...माटी कि सुगंध बिखेरती अनुपम प्रस्तुति ....आपको सपरिवार मित्रों सहित नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएं !!!
ReplyDeleteआपके लेख से बहुत सारी यादें ताजा हो गयी कविता जी दिल को छू लेने वाली लेख धन्यवाद दुबारा से यादों को याद दिलाने के लिए
ReplyDeleteMADHUR VAANI
BINDAAS_BAATEN
MITRA-MADHUR
नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएं !
ReplyDeleteबारिश की बूंदों की तरह बहाते हुए ले गईं आप यादों के गलियारे से.
ReplyDeleteआज हम दौड़ भाग की ज़िन्दगी जी रहे हैं .....
ReplyDeleteसमय कम है ...
जगह कम है ...
एक दुसरे के लिये समय कम है ....
प्रकृति को बैठ कर निहारना तो बस स्वप्न की सी बातें रह गयी हैं ...वो हम तब करतें है जब पैसे खर्च करके कहीं घूमने जायें ....लेकिन अपने आस पास इसे देखने की फुर्सत ही नहीं .....
एक रोचक और मन छु लेने वाला लेख ....
आपको पहली बार पढ़ा .... क्या आप भी मुझ तक आयेंगी ?
तीव्र गति से अपनी यात्रा शीघ्र पूर्ण करने को तत्पर दिखती वे नदी, बरबस ही याद आने लगती है। हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को बटोरने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े चले जाते थे । घंटों उसके उतार की राह ताकते रहते थे। इस बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, जिनसे हम बेपरवाह रहते थे.................
ReplyDeleteप्रकृति का सजीव चित्रण पढ़कर गाँव की ओर हमारा मन भी भागने लगा है.............. बीते दिनों की याद यूँ ही जीवन में उमड़-घुमड़कर शहर में मन की कुछ तो बेचैनी कम करने में सफल हो ही जाती हैं ऐसा मैं भी अक्सर सोचता हूँ........................
तीव्र गति से अपनी यात्रा शीघ्र पूर्ण करने को तत्पर दिखती वे नदी, बरबस ही याद आने लगती है। हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को बटोरने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े चले जाते थे । घंटों उसके उतार की राह ताकते रहते थे। इस बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, जिनसे हम बेपरवाह रहते थे.................
ReplyDeleteप्रकृति का सजीव चित्रण पढ़कर गाँव की ओर हमारा मन भी भागने लगा है.............. बीते दिनों की याद यूँ ही जीवन में उमड़-घुमड़कर शहर में मन की कुछ तो बेचैनी कम करने में सफल हो ही जाती हैं ऐसा मैं भी अक्सर सोचता हूँ........................
बेहतरीन प्रस्तुती.
ReplyDeleteपनीला, तरल, भीगा-भीगा सा.
ReplyDeleteSome truly nice and useful info on this internet site , likewise I think the design has got fantastic features.
ReplyDeleteजगजीत सिंह आधुनिक गजल गायन की अग्रणी है.एक ऐसा बेहतरीन कलाकार जिसने ग़ज़ल गायकी के सारे अंदाज़ बदल दिए ग़ज़ल को जन जन तक पहुचाया, ऐसा महान गायक आज हमारे बिच नहीं रहा,
उनके बारे में और अधिक पढ़ें : जगजीत सिंह