भूलते भागते पल - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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रविवार, 11 सितंबर 2011

भूलते भागते पल

सुबह बच्चों का टिफिन तैयार करते समय किचन की खुली खिड़की से रह-रहकर बरसती फुहारें सावन की मीठी-मीठी याद दिलाती रही। सावन आते ही आँगन में नीम के पेड़ पर झूला पड़ जाता था। मोहल्ले भर के बच्चों के साथ स्कूल से लौटने के बाद 'पहले मैं', पहले मैं' की चकल्लस में झूलते-झूलते कब शाम उतर आती , इसका पता माँ-बाप की डांट पड़ने के बाद ही चलता था । आज जब उस नीम के पेड़ को देखती हूँ तो महसूस करती हूँ उसकी जिन टहनियों पर कभी सावन आते ही झूले डल जाया करते थे अब उपेक्षित सा ठूंठ बन खड़ा अपनी बेबसी के मारे आकाश निहारता रहता है। उसकी छाया तले घर वालों ने वाहनों के लिए एक शेड बना लिया है, उसकी यह बदली तस्वीर खटके बिना नहीं रहती। समय के साथ कितना कुछ बदल जाता है। अब तो उसकी झरती पत्तियां भी आँगन बुहारने वालों को सबसे बेगार का काम लगने लगा है। अपनी ओर देखती हूँ तो अपना भी हाल कुछ दयनीय बन पड़ा है। सुबह कच्‍ची नींद से जागने के बाद बच्चों के लिए टिफिन, उनके नाज-नखरे सहते हुए उनकी रवानगी और फिर अपने ऑफिस के लिए कूच। फिर शाम को बच्चों को झूलेघर से लेना, उनके होमवर्क की माथापच्ची के साथ अपने होमवर्क यानी खाना पकाने की जद्दोजहद के बीच झूलती जिंदगी सावन के झूले से कमतर नहीं है।
सावन तो आकर चला गया। मन घर से बाहर की ताजी सावनी बयार के लिए बस तरस कर रह गया। भादों भी कहीं यूँ ही फिसल न जाए इसलिए भादों की शुरूवात में ही एक दिन हम सब रिमझिम बरसती बूंदों में बड़े तालाब के किनारे-किनारे शहर की शान मरीन ड्राइव कहलानी वाली वीआईपी रोड पर निकल पड़े। जब कभी थोडा समय होता है तो यही वह जगह है जब प्रकृति को करीब से देखने और अनुभव करने का मौका मिलता है। इस बार सामान्य से अच्छी बारिश के चलते लबालब हुए जा रहे तालाब और आस पास के हरे-भरे नज़ारों को देखने का कुछ अलग ही आनंद आया। 
     जिस दिन भी जमकर बारिश होती है और सड़क, नाले छोटी सी नदी के आकार में बहते दिखते हैं तो मुझे गाँव की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों के बीच बहते निर्मल जलस्रोत याद आने लगते हैं। और याद आने लगता है गाँव के निकट बहती दो नदियों का संगम। जिसमें एक छोटी सी नदी में साफ़ पानी और दूसरी बड़ी नदी में चाय सा बहता पानी मिलकर एक बड़ी नदी का विकराल रूप ले लेता है।  तीव्र गति से अपनी यात्रा शीघ्र पूर्ण करने को तत्पर दिखती वे नदी, बरबस ही याद आने लगती है। हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को बटोरने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े चले जाते थे । घंटों उसके उतार की राह ताकते रहते थे। इस बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, जिनसे हम बेपरवाह रहते थे। 
पिछले बार जब बरसात में गाँव जाना हुआ तो नदी में आयी बाढ़ देखने का मौका मिला, बचपन जैसा उत्साह तो मन में नहीं था लेकिन बचपन के दिन रह-रह कर याद आते रहे। अब तो बचपन अपने बच्चों में ही दिखने को रह गया है। उनको हम लाख चाहने पर भी इस शहरी आपाधापी के चलते प्रकृति को करीब से दिखाने और समझाने में असमर्थ से हो रहे हैं। कोई भी प्रकृति के अन्तःस्थल में छुपी आनंद की धाराओं को तब तक कहाँ अनुभव कर पाता है जब तक वह स्वयं इनके करीब न जाता हो।   भादों की बरसती काली घटाओं की ओट से निकलकर अब तो अक्सर जीवन के चारों ओर संघर्षों, दुर्घटनाओं, दुर्व्यवस्थाओं की व्यापकता देख हरपल उपजती खीज, घुटन और बेचैनी से राहत पहुँचाने आकुल-व्याकुल मन जब-तब अबाध गति से बहती नदी धार में जीवन प्रवाह का रहस्य तलाशने सरपट भागा चला जाता है।

.....कविता रावत