आखिर देबू ने घर से भागने की ठान ली। वह आधी रात को भारी मन से चुपके से उठा और एक थैले में मैले-कुचैले कपड़े-लत्ते ठूंस-ठांसकर घर से चल पड़ा। सूनसान रात, गांव की गलियों में पसरा गहन अंधकार। अंधकार जैसे निगलने आ रहा हो। आसमान में गरजते बादल और भयानक चमकती बिजली की कड़कड़ाहट से उसका दुःखी मन और भी भारी होता जा रहा था। भारी दुःख में जिस तरह डर कहीं दूर भाग खड़ा होता है, उसी तरह आज डर -डर, सहम-सहम कर रहने वाले देबू के मन से डर कोसों दूर था। वह गांव की सुनसान तंग गलियों से निकलकर बाजार की पगडंडी पर आ पहुंचा। उसका मन इतना व्यथित था कि वह एक नज़र भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता था। कभी सहसा चल पड़ता कभी रूक जाता। उसके आंखों में आसूं थे किन्तु सूखे हुए। वह सहमा-सहमा बाजार की ओर भारी कदम बढ़ाता जा रहा था। उसकी आंखों में चाचा-चाची की हर दिन की मारपीट का मंजर और कानों में गाली-गलौज की कर्कश आवाज बार-बार गूंज रही थी। बाजार पहुंचकर उसने निश्चय किया कि वह शहर की ओर जाने वाली सड़क के सहारे चलता रहेगा। वह दुर्गम पहाड़ी को काटकर बनाई सड़क को कोस रहा था। उसके जेहन में वह खौफनाक याद आज भी ताजी थी जब इसी सड़क ने एक हादसे में एक झटके में उससे उसके मां-बाप को निगल लिया, जिसने उसके बचपन के साथ उसका सुख-चैन सबकुछ उससे छीन लिया। जिसके कारण उसे चाचा-चाची के टुकड़ों पर पलने के लिए मजबूर होना पड़ा।
वह अपने गांव से कोसों दूर निकल चुका था। एकाएक जोरों की बारिश होने लगी और फिर ओले गिरने शुरू हो गए। अपने ही ख्यालों में खोया वह भींगकर कांपने लगा। सड़क किनारे उसे एक गौशाला दिखाई दी। वह जान बचाने की खातिर उसके भीतर जा घुसा। आखिर जीने की तमन्ना बाकी जो थी। वहीं उसने इधर-उधर बिखरे पड़े घास-फूंस को बटोर कर उसके अंदर घुसकर कुछ राहत महसूस की। बाहर ओलों का गिरना थमा भी नहीं था कि बर्फवारी शुरू हो गई। उसे याद आने लगा कि किस तरह माँ-बाप के बिछुड़ने पर पूरे गाँव के सामने चाचा-चाची ने बड़ी सहानुभूति दिखाते हुए उसे गले लगाकर अपना बेटा कहा और प्यार-दुलार कर जाने कितने ही दिलासे देकर चुप कराया था। सहानुभूति का ज्वार सालभर बाद ही पूरी तरह उतर हो जाएगा इस बात की समझ उसके बूते की बात न थी। स्कूल जाना बंद करवाकर छोटे-छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी और घर के छोटे-बड़े काम तले उसका मासूम बचपन घुट कर रह जाएगा, यह उसने कभी सोचा ही न था। जाने कितनी ही दुखद भरी बातों में वह उलझता चला गया।
जनवरी का प्रथम सप्ताह। निष्ठुर सर्दी का मौसम। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ बिछ गई थी। घुप्प अंधेरी रात बर्फबारी से चांदनी रात सी बन पड़ी थी। देबू वहीं ठण्ड से बचने के लिए घास-फूस अपने ऊपर समेटे हुए ठिठुरा रहा था। कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? बडी जटिल समस्या थी! सोचता! काश अगर मेरे मां-बाप जीवित होते तो मुझे यह दिन नहीं देखने पड़ते। घर में इकलौता जो था! मजे से स्कूल जाता, खाता-पीता और खूब मौज मस्ती करता। कौन रोकने-टोकने वाला बैठा था। उसके उत्पीडि़त मन में और भी जाने कितनी बातें आकर उसे और भी व्यथित कर रही थी। इसी उधेड़बुन में लेटे -लेटे एक नींद का झौंकें ने आकर उसे अपने आगोश में ले लिया। जब किसी का भी दुःख गहराता है तो उस समय उसके सबसे करीब उसकी माँ होती है। देबू भी रात भर अपनी मां के आंचल की सुखद छांव की भूल-भुलैया में करवट बदल-बदल कर भटकता रहा। सुबह जब एक तेज हॉर्न की आवाज उसके कानों में गूंजी तो वह हड़बड़ाकर उठा और फ़ौरन अपनी पोटली थामे उस ओर तेजी से भाग निकला। हांफते-हांफते वह बस तक पहुंचा लेकिन बस ठसाठस भरी थी। वह किसी भी हाल में वापस घर नहीं लौटना चाहता था। कोई उसे पकड़कर वापस घर न भेज दे इसलिए वह चुपके से बस के पीछे खड़े होकर उसके चलने का इंतज़ार करने लगा। जैसे ही घीरे से बस आगे बढ़ी वह बड़ी फुर्ती से सीढियों के सहारे छत पर चढ़ गया। कभी अपने दोस्तों के साथ वह जब भी बाजार आता था तो मस्ती में इसी तरह बस की सीढियों पर लटकते हुए अगले मोड़ तक मस्ताते हुए चल पड़ता फिर जैसे ही मोड़ पर बस धीमी होती झटपट कूद जाता। तब कभी उसने यह कभी सोचा भी न होगा कि यह मस्ती भरा खेल उसके काम भी आ सकता है। वह छत पर रखे सामान के बीच छुपकर तब तक लेटा रहा जब तक बस शहर के बस स्टैंड पर नहीं रुकी। कोई उसे देख न लें, पहचान न ले, इससे पहले ही वह बस से फुर्ती से उतरकर सरपट भाग खड़ा हुआ। गांव की घुटन भरी जिन्दगी को भूल वह शहर की घुटन से बेखबर उसकी चकाचौंध में कहाँ गुम हो गया, यह खबर लेने वाला कोई न था।
53 टिप्पणियां:
अच्छी कहानी !!
कभी अपने पहाड़ों की यह रोज के घटनाये थी, भागकर ही मैदानों में होटलों इत्यादि में बर्तन मांझने आकार ऐसे गरीब कुंठित और कम पढ़े लिखे नौजवान यही सब करते थे , आज होता है नहीं मालूम किन्तु यह एक सच्ची कहानी जैसी है !
सुन्दर लघु कहानी ,खबर उसकी कौन लेगा , सहर के नये दलदल में जिदगी जो उलझ क्र रह गयी है ,गाँव में आज भी
कम से कम खबर लेने वाले तो हैं ही
इतना बेखबर हुआ कि खुद की खबर नहीं....
दिल को छूती कहानी...
अनु
छोटी, पर दिल को छू लेने वाली कहानी
नया शहर और हजारों अंजान चेहरों में एक और शामिल हो गया
लघुकथा गहरी संवेदना भरी है जो संवेदन मन को झंझोड़ने के लिए पर्याप्त है। गांव में आज भी लोग एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेते है लेकिन शहर में घुटन ही घुटन है। यहां एक दूसरे को आस पड़ोस की खबर तक नहीं रहती। ऐसे में यहां तो गांव से परेशान होकर भागे हुए लोगों के लिए गांव से कहीं ज्यादा घुटन थोक में भरी पड़ी है। यथार्थ को व्यक्त करती मानवीय संवेदना जगाती प्रभावपूर्ण कथा.....
कहानी अच्छी लगी और लेखन भी .....
bahut sanvedansheel hongi aap. itni bhavpurn abhivyaktie ek sanvedansheel hriday ka hi srijan ho sakti hai, nihsandeh ye kahani dil ko chhoo lene wali hai.badhai ek pyari rachna ke liye.
मैं तो इसे अपने गाँव के देबू की दुःख भरी दास्तान कहूँगा, जो मुझे मेरी माँ सुनायी थी ...अब वो कहाँ होगा कोई नहीं जानता ..कभी हमने भी सोचा नहीं .. आज पढ़कर मन दु:खी हुआ .... काश कि मैं भी ऐसा लिख पाता .. क्या मालुम वह पढ़ लिख गया होगा और मेरा लिखा पढ़कर मिलने चला आता ........अब तो यही कहना होगा सबका अपना अपना भाग्य होता है ....अपने पास संभाल कर रखूँगा इस अनुपम कृति को ..... आभारी हूँ .....
meri tippani kya SPAM khaa gaya ?
हजारों देबू इसी तरह शहरों में भटकने के लिए गाँव छोड़ देते हैं , दुखों के मारे ।
मार्मिक लघु कथा।
भयानक विडम्बना !!!!!!!!!!!!
सुन्दर प्रयास करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो .
आप भी जाने कई ब्लोगर्स भी फंस सकते हैं मानहानि में .......
"जब किसी का भी दुःख गहराता है तो उस समय उसके सबसे करीब उसकी माँ होती है"
कितना सत्य कहा आपने
like like...happy blogging
न जाने कितने देबू शहर में रोटी की तलाश में लगे हैं ...
शुभकामनायें आपको !
बच्चों पर ऐसा अन्याय देख कर मन दहल उठता है!
मार्मिक...
मगर देबू की दूसरी दुखभरी कहानी तो शहर पहुँचने के बाद शुरू होगी... अगर वो ग़लत हाथों में पड़ गया तो ... :( ओह! भगवान ना करे!
~सादर!!!
बहुतही अच्छी कहानी
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी...
कहानी अच्छी लगी
New post कृष्ण तुम मोडर्न बन जाओ !
देबू का कहानी पढ़कर बहुत दुःख हुआ ......ऐसे दुर्घटना में तात्कालिक सहानुभूति तो सभी दिखा लेते हैं लेकिन एक अंतराल के बाद सब भूल जाते हैं .........हम भलीभांति देख सकते हैं यह देबू की कहानी ही नहीं बल्कि बहुत से देबू शहर आ इधर उधर भटकते फिरते हैं जिनकी खोज खबर, सुध बुध लेने की फुर्सत किसी के पास नहीं .......
पलायन किसी समस्या का हल नहीं और किसी शहर में गुम होने के बजाय कहीं से शुरुआत करना बेहतर ....यह एक विचार **** आपकी कहानी सोचने को मज़बूर करती दर्द भरी .
शायद गाँव की घुटन देबू को शहर कि घुटन से लड़ने की ताकत दे ..... जब अपने अत्याचार कराते हैं तो ज्यादा कष्ट होता है .... मार्मिक कहानी ।
मन को कोई घुटन न भावे,
राह कठिन पर निकली आवे।
संवेदना जगाती प्रभावपूर्ण कथा.....
recent post: गुलामी का असर,,,
बहुत खूब ये धाराविक कूच गाँव का शहर की ओर ज़ारी है
यही है हासिल ६५ बरसों का .गणतन्त्र मुबारक ,भगवान् शिंदे साहब की हिफाज़त करे जो हिन्दुओं को आतंकी कहके आनंद मग्न हैं .
...... घुटन अब हमारे मन में पैठ गई है :-(
आपने देबू की मर्म व्यथा में संवेदना उंडेल दी है....कहानी में बहुत दम है..........................
शहर की घुटन में देबू क्या कर पाता है? मेरे हिसाब से इस कहानी को आगे भी लिखा जाना चाहिए .... इसी शुभकामना के अपेक्षा के साथ .........
गाँव की घुटन देबू को शहर में आकर घुटन से दूर कर कर दें यही प्रार्थना है .......बहुत मार्मिक कहानी!
very touching story
दिल को छू लेने वाली कहानी ,,,,
अपने माँ पिता अपने ही होते हैं,,,
मर्मस्पर्शी !
अच्छी कहानी...सोच में पड़ जाना स्वाभाविक है की देबू का क्या हुआ होगा!
बच्चे क्यों घर से भागते हैं उसपर एक अच्छी कहानी लिखी आपने ....!!
बधाई .............!!
शहरों में लाख बुराइयां सही पर एक बात है कि ये किसी को भी चुपचाप जीने देने की आज़ादी देते हैं
सशक्त विचारोत्तेजक कथा.
६४ वें गणतंत्र दिवस पर बधाइयाँ और शुभकामनायें.
गणतन्त्रदिवस की हार्दिक शुभकामना के साथ-
कहानी में जो नवीनता है वह सराहनीय है ही, साथ में,समाज की वास्तविकता भी उजागर की गयी है |साधुवाद !!
देबू की कहानी मन में गहरी पैठ गयी ...
किस्मत के मारे दुखियारों को कहीं भी चैन नहीं मिलता ... देबू की दुखभरी दास्ताँ अपने गाँव घर की सी कोई सच्ची कहानी आँखों के सामने नज़र आने लगी ...
देबू जैसे बच्चे ही कालान्तर में अपराधी बन जाएं या गलत कामों में लग जाएं, कोई सन्देह नहीं है। कोई सुखद जीवन जी पाए इन परिस्थितियों में तो ऐसा बहुत कठिन है। बहुत मार्मिक कथांक।
ज़िन्दगी कहाँ से कहाँ ले जाती है - बेखबर है जीनेवाले
आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी स्पैम में चली गई। ब्लॉग विजिट के लिए धन्यवाद।
अपने माँ-बाप की जगह कोई दूसरा कभी नहीं ले सकता .........जिसका कोई नहीं उसका ऊपर वाला ही मालिक है वह जैसा रखे ...........
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी कविता जी.....पढ़ते पढ़ते सोच में डूब गया था
गहरी संवेदनाएं लिए ... मन को छू गई ये कहानी ... पहाड़ों का परिवेश आँखों के सामने आ जाता है ...
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, बधाई.
सादर
नीरज'नीर'
मेरी नई कविताएँ
KAVYA SUDHA (काव्य सुधा): धर्म से शिकायतKAVYA SUDHA (काव्य सुधा): जमी हुई नदी
नमस्ते, आपकी यह रचना "पाँच लिंकों का आनंद " http://halchalwith5links.blogspot.in के 713 वें अंक में गुरूवार 29 -06 -2017 को लिंक की गयी है। चर्चा में शामिल होने के अवश्य आइयेगा,आप सादर आमंत्रित हैं।
दिल को छू लेने वाली....
बहुत ही सुन्दर कहानी...
दर्दभरी कहानी।
दर्दभरी कहानी।
दर्दभरी कहानी।
दर्दभरी कहानी।
सुन्दर।
कविताजी लेखनी का जादू चलता रहे। बधाई!
कहानी हृदयस्पर्शी तो है ही,एक कड़वी सच्चाई से भी रूबरू कराती है आदरणीय कविताजी ।
Bahut hi Marmik Kahani... bachpan sirf apno ka pyar chahta hai jo logo ko badi muskil se mil pata hai .....aur jisko milta hai use uski kadra nhi kar pata hai .....nice
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