संस्कृत में परीक्षा शब्द की व्युत्पत्ति है- 'परितः सर्वतः, ईक्षणं-दर्शनम् एव परीक्षा।' अर्थात् सभी प्रकार से किसी वस्तु या व्यक्ति के मूल्यांकन अथवा अवलोकन को परीक्षा कहा जाता है। पढ़ने, देखने और सुनने में सिर्फ एक साधारण सा शब्द है-परीक्षा। लेकिन जो कोई भी परीक्षा के दौर से गुजरता है, उसे इन तीन अक्षरों में ही या तो तीनों लोक या फिर इसके परे एक अलग ही लोक नजर आने लगता है। बच्चे हो या सयाने जिन्दगी में परीक्षा के दौर से कभी न कभी सबको ही गुजरना पड़ता है। आजकल कुछ ऐसे ही दौर से गुजरना पड़ रहा है। साल का पहला माह जनवरी तो यूं ही जनजनाती निकल गई लेकिन जब फरवरी फरफराती हुई आई तो वसंत के साथ-साथ बच्चों की परीक्षा ऋतु लेकर भी आ गई, जिसके परिणामस्वरूप अच्छे खासे घर में भूचाल आकर अघोषित कर्फ्यू जैसा माहौल बन गया है। बच्चों के साथ-साथ अपनी भी परीक्षा की घडि़यां आन पड़ी हैं। बच्चों के साथ-साथ हम भी घर में कैद होकर रह गए है। बच्चों की परीक्षा की तैयारी में जुते रहने से कभी-कभी मन भ्रम की स्थिति में रहता है कि मूलरूप से यह परीक्षा बच्चों की है या मेरी! एक प्रश्न पत्र खत्म होते ही दूसरे प्रश्न पत्र की तैयारी के लिए आफिस से छुट्टी लेकर किताब-कापियों में सर खपाकर कम्प्यूटर पर माडल पेपर तैयार करना और उसके बाद सामने बड़ी मुस्तैदी के साथ हल करवाना कोई हंसी-खेल का काम नहीं है। छोटे बच्चों के साथ यह समस्या रहती है कि उन्हें बड़े बच्चों की तरह न तो परीक्षा की चिन्ता रहती है और नहीं प्रश्न पत्र का भय। जिसके कारण यह समस्या बन जाती है कि बच्चों को किस तरह से पढ़ाया जाय, रटाया जाय। पढ़ाने-रटाने से पहले खुद रटना और फिर रटाना पड़ता है। उन्हें कभी समझा-बुझाकर, कभी डांट-डपटकर और कभी बहला-फुसलाकर टीवी और कम्प्यूटर बन्द करके दूर रखना पड़ता है जिसके लिए कभी-कभी अपनी तो नानी क्या परनानी भी याद आने लगती है। वैसे जब कभी गुस्सा फूट पड़ता है तो आपको बता दूं कि दो बच्चों में एक लाभ तो जरूर है कि एक को डांट-डपट या एक-आध चपत लग गई तो समझो दूसरा अपने आप चुपचाप सही राह पकड़ लेता है।
परीक्षा के इन दिनों देर रात तक पढ़ने-पढ़ाने, रटने-रटाने का सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक बच्चे ऊंधते-ऊंघाते वहीं लुढ़क नहीं जाते हैं। देर रात तक बच्चों को पढ़ाने के चक्कर में सुबह समय पर जगाना भी कम मशक्कत का काम नहीं है! कभी-कभी तो छोटा बेटा उठते ही बांसुरी की वह तान छेड़ देता है जिसे सुनकर टिफिन तैयार करते हुए सुबह-सुबह सिर चकराने लगता है। तब मन में तो आता है कि एक-आध थप्पड़ जड़ ही दूं लेकिन जब सामने आकर उसका मासूम रूंआसा चेहरा देखती हूं तो दया आ जाती है और फिर ख्याल आता है कि इस समय लाड़-प्यार, समझा-बुझाकर कर चुप कराना ही उचित है वर्ना मन विद्रोही होने पर परीक्षा में जाने क्या-क्या उल्टा-पुल्टा लिखकर आ जायेगा और मेरी सारी मेहनत धरी की धरी रह जायेगी। बखूबी समझ गई हूं कि समय रहते यदि उनका मनोविज्ञान समझने की भूल कर बैठी तो यह भूल बहुत मंहगी साबित होगी।
यदि बच्चों को पढ़ाना कला की श्रेणी में आता है तो मेरे अनुभव के अनुसार छोटे बच्चों को पढ़ाना एक विशिष्ट कला के साथ ही विज्ञान भी है। कला इसलिए क्योंकि इसमें नए-नए तरीकों की सृजन की आवश्यकता पड़ती है और विज्ञान इसलिए कि इसमें क्रमबद्ध तरीके से प्रत्येक पाठ का सुव्यवस्थित ढंग से पढ़ाने का पूरा-पूरा ध्यान रखना पड़ता है। इधर अगर जरा भी चूक हुई तो उधर विपरीत परिणाम आने की पूरी संभावना रहती है।
इन परीक्षा के दिनों में बच्चों के साथ-साथ अपनी भी परीक्षा समान्तर रूप से चल रही है। घर के अन्य तमाम गैर जरूरी काम निपटाते हुए बच्चों को रटाने-लिखाने में रात-दिन कैसे बीत रहे हैं इसका कुछ पता नहीं! अब तो आखिरी प्रश्न पत्र का बेसब्री से इंतजार है तभी थोड़ी बहुत राहत मिल सकेगी। उसके बाद चैन की सांस तो तभी ले पाऊंगी जब परीक्षा का अनुकूल परिणाम निकलेगा।
...कविता रावत
46 टिप्पणियां:
बढ़िया बात कही आपने. बच्चों के साथ आजकल माँ की भी परीक्षा शुरू हो जाती है. मेरी दीदी भी आजकल बच्चों की परीक्षा की 'तैयारी' कर रही है. उनके भी दो बच्चे हैं और दोनों शरारती होने के साथ ही लापरवाह भी हैं.
बच्चों के साथ साथ माता - पिता की भी परीक्षा होती है ॥यूं तो जीवन भर हर पल [परीक्षा में ही बीतता है ... अनुकूल परिणाम आने के लिए शुभकामनायें
सच में अभिभावकों के लिए भी इम्तिहान ही हैं , खासकर माओं के लिए.... शुभकामनायें
कला भी है विज्ञान भी है, दोनों ही पास हो जाते हैं, पढ़ने वाला भी, पढ़ाने वाला भी।
सच्ची.....ये इम्तिहान का मौसम भी न.....
जब तक नतीजे न आयें दिल बैठा सा रहता है...
हम तो अपनी परीक्षाओं के वक्त भी घबराते थे...अब बच्चों के साथ भी बी.पी. बढ़ा रहता है :-(
सादर
अनु
यदि बच्चों को पढ़ाना कला की श्रेणी में आता है तो मेरे अनुभव के अनुसार छोटे बच्चों को पढ़ाना एक विशिष्ट कला के साथ ही विज्ञान भी है। बिल्कुल सच कहा आपने ...
समस्या तो है ही,
परीक्षा तो मां बाप की ही होती है, बस आवश्यकता धैर्य की है।
माता- पिता की परीक्षा तो बच्चा पैदा होते शुरू हो जाता है .यह तो केवल किताबी ज्ञान की परीक्षा है.---सबको झेलना है -- बस आवश्यकता धैर्य की है
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माँ बाप की मेहनत और लगन का नतीजा ही बच्चो के सार्थक परीक्षा परिणाम के लक्ष तक पहुचाता है,,,
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श्रीमती वन्दना गुप्ता जी आज कुछ व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (23-02-2013) के चर्चा मंच-1164 (आम आदमी कि व्यथा) पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सचमुच बच्चों की नहीं माता पिता की परीक्षा होती है
कविता जी , परीक्षा ही नही आजकल तो पढाई भी मां बाप को ही पढनी होती है और हिंदी मीडियम के पढे मां बाप को दो दूनी चार की बजाय टू टवेन्जा टू सीखना पडता है
बहुत बढ़िया बात कही आपने .
माँ से अच्छा न तो बच्चे को कोई समझ सकता है और नहीं पढ़ा सकता है ........बहुत समझदारी का काम है ये .....
छोटे बच्चों को पढ़ाना एक विशिष्ट कला के साथ ही विज्ञान भी है। ....... इधर अगर जरा भी चूक हुई तो उधर विपरीत परिणाम आने की पूरी संभावना रहती है...दुरुस्त बात कही आपने ....
.. मुझे भी अब बच्चों के पीछे जमकर लगना पड़ेगा...
मन के मुताबिक परिणाम मिले यही शुभकामना है मेरी ..
सही बात...बच्चों के साथ-साथ मां की भी परीक्षा होती है आजकल..जान सांसत में रहती है मांओं की
बहुत सारगर्भित बात कही, वर्तमान भौतिकवादी युग में शिशु के पैदा होने के पहले से ही माँ बाप के लिए परीक्षा की घड़ी शुरू हो जाती है जो अनवरत चलती ही रहती है.
बहुत ही सारगर्भित बातें कही. वर्तमान समय के भौतिकवादी युग में शिशु के जन्म के पहले से ही माँ बाप के लिए परीक्षा की घड़ी प्रारंभ हो जाती है और यह अनवरत चलती रहती है.
सादर
नीरज'नीर'
www.kavineeraj.blogspot.com
यह समस्या सभी के साथ आती ही आती है. सुंदर आलेख.
सही कहा आपने ... मेरी बेटी भी दसवीं में है ओर पूरे घर में कर्फ्यू लगा हुवा है ... ऑफिस के साथ साथ उसको भी पढाता हूं शाम को ... उनका तनाव देख के लगता है क्या हो गया है आजकल ...
मन में तो आता है कि एक-आध थप्पड़ जड़ ही दूं लेकिन जब सामने आकर उसका मासूम रूंआसा चेहरा देखती हूं तो दया आ जाती है और फिर ख्याल आता है कि इस समय लाड़-प्यार, समझा-बुझाकर कर चुप कराना ही उचित है..हाँ अगर ऐसा न किया तो फिर उन्होंने पेपर में अगर गुस्सा उतार दिया तो फिर तो गयी भैंस पानी में समझो......
ये के दिन अपने भी चल रहे हैं ... मन की बातें कह दी आपने ..बहुत सुन्दर ..
माँ-बाप की बड़ी रशाकशी है ये परीक्षा ........
बहुत उम्दा ..
मेरी नई रचना
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
अगर देखा जाय तो परीक्षा माँ बाप की ज्यादा और बच्चे की कम ,वास्तव में यह बच्चों पर अत्याचार है,
सही कहा, परीक्षा बच्चों की कहां, अपनी ही है।
नोट:
अगर आपको रेल बजट की बारीकियां समझनी है तो देखिए आधा सच पर लिंक...
http://aadhasachonline.blogspot.in/2013/02/blog-post_27.html#comment-form
आम बजट पर मीडिया के रोल के लिए आप "TV स्टेशन" पर जा सकते हैं।
http://tvstationlive.blogspot.in/2013/03/blog-post.html?showComment=1362207783000#c4364687746505473216
आज के बच्चों को रटते हुए देखना ऋग्वेदी वेदपाठी ब्राह्मणों की दिलाता है
बच्चों के भविष्य को सुंदर बनाने के लिये माँ बाप का योगदान बहुत आवश्यक है.
गुलाबों की बहार से होते हुए बंसत का गीत घर-परिवार की उलझन से गुजरता हुआ परीक्षा केंद्र तक पहुंचा तो अपना बचपन याद आ गया..जहां झापड़ और डांट माता श्री से ऐसे मिलती थी जैसे गर्मी में धूप, सर्दी में ठंड....बरसात में बारिश तो नहीं कह सकता क्योंकि आजकल तो दिल्ली में ढंट में बारिश होने लगी है और बरसात में बारिश गायब होने लगी है...खैर इतना पढ़ने के बात उन कमबख्तमारों को झापड़ लगाने का मन करता है जो गृहस्वामिनी के काम को कमततर समझते हैं।
वइसे एक बात है जो मीठी नींद पढ़ते पढ़ते आती थी वो फिर कभी नहीं आई...अब भी आती है तो पढ़ते पढ़ते ही आती है....प्यारी तस्वीर ने याद दिलाया..हाहाहाहा
Now a days I am going through the same task. Their exams are going on and I am also engaged in studying with my kids apart from all the routine chores.
उम्दा अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
बच्चों से ज्यादा परिक्षा के तनाव में अभिभावक ही रहते हैं मानो उनकी ही परिक्षा हो. अगर बोर्ड की परिक्षा है तो उफ़.... घुमती फिरती ज़िंदगी बस परिक्षा पर अटक जाती है. परिस्थिति का सटीक ब्योरा... शुभकामनाएँ.
Shayd ye pariksha mata pita ki jyada hai.
सही ही है
बच्चों के परीक्षा में माता- पिता का सहयोग तो जरुरी ही है ...
बहुत उपयोगी व रुचिकर लिखा है ।
ऐसी बहुत सी सामान्य बातें हैं जिन पर हम अकसर गौर नहीं करते हैं. ये आलेख आपकी संवेदनशील होने का परिचायक है जो लेखकीय गुण को प्रदर्शित करता है. बधाई .
समय के चक्र ने बचपन को भी निगलने की कोशिश की हैं, साथ तो चलना तो पड़ेगा लेकिन दबाव न देकर उनकी मौलिक प्रतिभा को पनपने दिया जाय, बेहतर लगता हैं। वरना परिवर्तन कैसे आएगा
हर चीज चुनाव देती हैं। और हर चुनाव के अपने फायदे और नुकसान । अब गर बच्चा हिंदी में अच्छा हैं , तो जरुरी नहीं की वो गणित में टॉप करे। मेरी सोच में गर इतना सा माँ बाप बच्चो को समझने लग जाये, और बच्चे अपनी हर बात उन्हें बेझिझक कह पाए, तो हम न केवल एक बेहतर मानव का निर्माण करेंगे बल्कि बहुत सी आत्महत्याओ, कुंठाओ और दमन से समाज को बचा पाएंगे .
Very true. Agrred
If you are in USA or Canada, you may be behind the bar. See How we can bring the change, otherwise..We need to change this middle class mentality Or better to not have kids...I may look little rude, but we have to think now, when there is every where mad crowd.
समय के चक्र ने बचपन को भी निगलने की कोशिश की हैं, साथ तो चलना तो पड़ेगा लेकिन दबाव न देकर उनकी मौलिक प्रतिभा को पनपने दिया जाय, बेहतर लगता हैं। वरना परिवर्तन कैसे आएगा
हर चीज चुनाव देती हैं। और हर चुनाव के अपने फायदे और नुकसान । अब गर बच्चा हिंदी में अच्छा हैं , तो जरुरी नहीं की वो गणित में टॉप करे। मेरी सोच में गर इतना सा माँ बाप बच्चो को समझने लग जाये, और बच्चे अपनी हर बात उन्हें बेझिझक कह पाए, तो हम न केवल एक बेहतर मानव का निर्माण करेंगे बल्कि बहुत सी आत्महत्याओ, कुंठाओ और दमन से समाज को बचा पाएंगे .
बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
सारगर्भित चिंतन
परीक्षा तो माँ बाप की होती है बच्चो से ज्यादा, बहुत सटीक लेख
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