इन दिनों चारों तरफ उत्सवों का उत्सव चुनाव महोत्सव की धूम मची है। एक ओर जहाँ जिन ढूंढा तिन पाइया, गहिरे पानी पैठि की तर्ज पर विभिन्न राजनैतिक दलों के साथ ही निर्दलीय उम्मीदवारों के दौड़ते वाहनों से आती-जाती एक से बढ़कर एक गीत-संगीत के साथ वादों-नारों की पुकार से घर-परिवार, गली-मोहल्ले अलसुबह से देर रात तक गुलजार हैं, वहीं दूसरी ओर गरीबों की झुग्गी-झोपडि़यों पर अलग-अलग तरह से सजी धजी बहुरंगी झंडी-डंडी और मालाओं से उनकी रौनक इसकदर बढ़ी है कि लगता है जैसे सारे त्योहारों का संगम हो चला हो, इनका कोई अपना चाहने वाला कई वर्ष और लाख मिन्नतों के बाद सुध लेने घर चला आया हो, जिससे इनके दिन फिरने वाले हों, बहार आने वाली हो।
इस महोत्सव की रंग-बिरंगी बदलती छटा बड़ी निराली है। एक पल को उम्मीदवार जब गले में माला लटकाए अपने समर्थकों के साथ मतदाताओं से अपनेपन से मिलता है तब इस आपसी मेलमिलाप, भाईचारे को देख बरबस ही होली, दीवाली और ईद मिलन का आभास होने लगता है तो दूसरे पल ही जब मतदाता उनकी वर्षों बाद सुध लेने की वजह से नादानीवश नाराजगी में डांटने-फटकारने लगता है तो उम्मीदवार की दीनता भरी मुस्कराती चुपी किसी मझे हुए खिलाड़ी की तरह देखने लायक होती है। अपनी भड़ास निकालने के बाद मतदाता खुश होता है, तो उम्मीदवार मन ही मन यह सोच मुस्कराता रहता है कि मतदाताओं से बंधी उनकी प्रीति कभी पुरानी नहीं हो सकती। क्योंकि-
प्रीति पुरानि होत है न, जो उत्तम से लाग।सो बरसां जल में रहै, पत्थर न छोड़े आग।।
इसके साथ ही उम्मीदवार यह भी बखूबी जानते हैं कि यह दिनन का फेर है। आने वाला समय उन्हीं का है, इसलिए अभी चुपचाप सुनकर जैसे-तैसे अपना उल्लू सीधा कर लेने में ही भलाई है-
अब ‘रहीम‘ चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर।जब दिन नीके आइहैं, बनत न लगि हैं देर।।
यह करिश्माई महोत्सव है, क्योंकि इसमें सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, अमीर-गरीब एक मुख्यधारा से जुड़ते हैं। आम आदमी के हत्थे भले ही कुछ चढ़े न चढ़े लेकिन बड़ी-बड़ी रैलियों और सभाओं के माध्यम से जब देश के तारणहारों के मुखारबिंद से उनकी दुर्लभ वाणी सुनने को मिलती है तो उन्हें लगता है ऊपर वाले ने उन्हीं के लिए यह सब छपर फाड़ के छोड़ा है। कल तक ऊपर उड़ने वाले, बड़े-बड़े एयरकंडीशन कमरों में बैठने वाले जब सड़क पर आकर शहर की गली-मोहल्लों से होकर झुग्गी-झोपडि़यों में हांफते-कांपते हुए सुदूर बसे गांवों तक उनकी सुध लेने पहुंचकर आम दीन-दुःखी घर-परिवारों से आत्मीय रिश्ता जोड़कर अपनी मुस्कराती जादुई वाणी से उनके दुःख-दर्द दूर करने का वादा करते हैं, भरोसा दिलाते हैं, तो उनके लिए यह किसी ईश्वर या खुदा के फरिश्ते के बोल से कम नहीं होते, जिसे देख वे फूले नहीं समाते।
अब चुनाव महोत्सव के रंग में सभी रम जाय, यह जरूरी नहीं। क्योंकि जिसे जो अच्छा लगता है वही उसके लिए काम का है, बाकी सब बेकार! ठीक उसी तरह जैसे फल खाने वालों को अनाज से कोई लेना-देना नहीं होता-
नीकौ हू फीको लगे, जो जाके नहिं काज।फल आहारी जीव कै, कौन काम कौ नाज।।
चुनावी महोत्सव की धूम में गरीब-गुरबे मतदाताओं को दो जून की रोटी की जगह सिर्फ नारे-वादों से पेट न भरना पड़े, इसके लिए समय रहते उन्हें जाग्रत होना होगा।अन्यथा फाख्ता उड़ाने के अलावा कुछ हाथ नहीं आएगा। उन्हें यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि यह नींद से प्यार करने का समय नही है क्योंकि यह संसार रात के सपने जैसा है-
जागो लोगो मत सुवो, न करू नींद से प्यार।जैसा सपना रैन का ऐसा ये संसार।।
यदि समय पर कोई दूर की सोचकर नोन-तेल, लकड़ी के चक्रव्यूह में से बाहर निकलकर सही को चुन लेने में सक्षम होता है, तो उसे बाद में पछताना नहीं पड़ता है। समय रहते चेत जाना ही बुद्धिमानी है। इस बात को महान समाज सुधारक कबीरदास जी ने बहुत सटीक शब्दों में व्यक्त किया है-
चेत सबेरे बावरे, फिर पाछे पछताय।तोको जाना दूर है, कहै कबीर बुझाय।।
...कविता रावत