यह चुनाव महोत्सव - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

यह चुनाव महोत्सव

इन दिनों चारों तरफ उत्सवों का उत्सव चुनाव महोत्सव की धूम मची है। एक ओर जहाँ जिन ढूंढा तिन पाइया, गहिरे पानी पैठि की तर्ज पर विभिन्न राजनैतिक दलों के साथ ही निर्दलीय उम्मीदवारों के दौड़ते वाहनों से आती-जाती एक से बढ़कर एक गीत-संगीत के साथ वादों-नारों की पुकार से घर-परिवार, गली-मोहल्ले अलसुबह से देर रात तक गुलजार हैं, वहीं दूसरी ओर गरीबों की झुग्गी-झोपडि़यों पर अलग-अलग तरह से सजी धजी बहुरंगी झंडी-डंडी और मालाओं से उनकी रौनक इसकदर बढ़ी है कि लगता है जैसे सारे त्योहारों का संगम हो चला हो, इनका कोई अपना चाहने वाला कई वर्ष और लाख मिन्नतों के बाद सुध लेने घर चला आया हो, जिससे इनके दिन फिरने वाले हों, बहार आने वाली हो। 
इस महोत्सव की रंग-बिरंगी बदलती छटा बड़ी निराली है। एक पल को उम्मीदवार जब गले में माला लटकाए अपने समर्थकों के साथ मतदाताओं से अपनेपन से मिलता है तब इस आपसी मेलमिलाप, भाईचारे को देख बरबस ही होली, दीवाली और ईद मिलन का आभास होने लगता है तो दूसरे पल ही जब मतदाता उनकी वर्षों बाद सुध लेने की वजह से नादानीवश नाराजगी में डांटने-फटकारने लगता है तो उम्मीदवार की दीनता भरी मुस्कराती चुपी किसी मझे हुए खिलाड़ी की तरह देखने लायक होती है।  अपनी भड़ास निकालने के बाद मतदाता खुश होता है, तो उम्मीदवार मन ही मन यह सोच मुस्कराता रहता है कि मतदाताओं से बंधी उनकी प्रीति कभी पुरानी नहीं हो सकती। क्योंकि-
प्रीति पुरानि होत है न, जो उत्तम से लाग।
सो बरसां जल में रहै, पत्थर न छोड़े आग।।
इसके साथ ही उम्मीदवार यह भी बखूबी जानते हैं कि यह दिनन का फेर है।  आने वाला समय उन्हीं का है, इसलिए अभी चुपचाप सुनकर जैसे-तैसे अपना उल्लू सीधा कर लेने में ही भलाई है-
अब ‘रहीम‘ चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर।
जब दिन नीके आइहैं, बनत न लगि हैं देर।।
यह करिश्माई महोत्सव है, क्योंकि इसमें सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, अमीर-गरीब एक मुख्यधारा से जुड़ते हैं। आम आदमी के हत्थे भले ही कुछ चढ़े न चढ़े लेकिन  बड़ी-बड़ी रैलियों और सभाओं के माध्यम से जब देश के तारणहारों के मुखारबिंद से उनकी दुर्लभ वाणी सुनने को मिलती है तो उन्हें लगता है ऊपर वाले ने उन्हीं के लिए यह सब छपर फाड़ के छोड़ा है। कल तक ऊपर उड़ने वाले, बड़े-बड़े एयरकंडीशन कमरों में बैठने वाले जब सड़क पर आकर शहर की गली-मोहल्लों से होकर झुग्गी-झोपडि़यों में हांफते-कांपते हुए सुदूर बसे गांवों तक उनकी सुध लेने पहुंचकर आम दीन-दुःखी घर-परिवारों से आत्मीय रिश्ता जोड़कर अपनी मुस्कराती जादुई वाणी से उनके दुःख-दर्द दूर करने का वादा करते हैं, भरोसा दिलाते हैं, तो उनके लिए यह किसी ईश्वर या खुदा के फरिश्ते के बोल से कम नहीं होते, जिसे देख वे फूले नहीं समाते।
अब चुनाव महोत्सव के रंग में सभी रम जाय, यह जरूरी नहीं। क्योंकि जिसे जो अच्छा लगता है वही उसके लिए काम का है, बाकी सब बेकार!  ठीक उसी तरह जैसे फल खाने वालों को अनाज से कोई लेना-देना नहीं होता-
नीकौ हू फीको लगे, जो जाके नहिं काज।
फल आहारी जीव कै, कौन काम कौ नाज।।
चुनावी महोत्सव की धूम में गरीब-गुरबे मतदाताओं को दो जून की रोटी की जगह सिर्फ नारे-वादों से पेट न भरना पड़े, इसके लिए समय रहते उन्हें जाग्रत होना होगा।अन्यथा फाख्ता उड़ाने के अलावा कुछ हाथ नहीं आएगा। उन्हें यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि यह नींद से प्यार करने का समय नही है क्योंकि यह संसार रात के सपने जैसा है- 
जागो लोगो मत सुवो, न करू नींद से प्यार।
जैसा सपना रैन का ऐसा ये संसार।।
यदि समय पर कोई दूर की सोचकर नोन-तेल, लकड़ी के चक्रव्यूह में से बाहर निकलकर सही को चुन लेने में सक्षम होता है, तो उसे बाद में पछताना नहीं पड़ता है। समय रहते चेत जाना ही बुद्धिमानी है। इस बात को महान समाज सुधारक कबीरदास जी ने बहुत सटीक शब्दों में व्यक्त किया है-
चेत सबेरे बावरे, फिर पाछे पछताय।
तोको जाना दूर है, कहै कबीर बुझाय।।

         ...कविता रावत

21 टिप्‍पणियां:

vijay ने कहा…

चेत सबेरे बावरे, फिर पाछे पछताय।
तोको जाना दूर है, कहै कबीर बुझाय।।

सत्यवचन! ये समय जागने का है, सोने का नहीं..
सोये तो फिर ५ साल तक रोये ...

Unknown ने कहा…

सुन्दर आलेख कविता रावत जी।

Surya ने कहा…

कविता जी...आपके सामयिक विषय की पोस्ट सीधे दिल में उतर जाती हैं ......आपने अपने स्वभाव के अनुकूल मतदाताओं को बड़ी कुशलता से समझने की सुन्दर कोशिश की है,,,,,,,
देखते हैं क्या रंग लाता है यह महोत्सव अबकी बार

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर आलेख ! कविता जी.
नई पोस्ट : पुरानी फाईलें और खतों के चंद कतरे !

virendra sharma ने कहा…

वाह इस बेढ़ब उत्सवी माह को भी आपने संस्कृति के रंगों में बदल दिया एक बोध कथा सी सीख दे दी कबीर के झरोखे

से .
जागो लोगो मत सुवो, न करू नींद से प्यार।
जैसा सपना रैन का ऐसा ये संसार।।
यदि समय पर कोई दूर की सोचकर नोन-तेल, लकड़ी के चक्रव्यूह में से बाहर निकलकर सही को चुन लेने में सक्षम होता है, तो उसे बाद में पछताना नहीं पड़ता है। समय रहते चेत जाना ही बुद्धिमानी है। इस बात को महान समाज सुधारक कबीरदास जी ने बहुत सटीक शब्दों में व्यक्त किया है-
चेत सबेरे बावरे, फिर पाछे पछताय।
तोको जाना दूर है, कहै कबीर बुझाय।।

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे ने कहा…

भारतीय संस्कृति और विविध संदर्भों को इकठ्ठा कर कविता जी आपने चुनावी माहौल पर सहज और नुकिला प्रहार किया है इसे महोत्सव कहकर।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार को (22-11-2013) खंडित ईश्वर की साधना (चर्चा - 1437) में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Meenakshi ने कहा…

कविता जी सही कहती हैं आप कि उत्सवों के साथ चुनाव किसी महोत्सव से कम नहीं हैं .............. चुनाव महोत्सव एक नए रूप में पढ़ना बहुत रुचिकर लगा .....
संत कबीर के मार्फ़त वोटरों को जागते रहने का सन्देश बहुत सुन्दर तरीके से दिया है आपने इसके लिए बधाई हो.....

Anita ने कहा…

सही कहा है कविता जी, चुनाव बहुत सारे लोगों के लिए एक उत्सव बन जाता है...रोचक पोस्ट !

nayee dunia ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा शनिवार 23 /11/2013 को मेरा ये जीवन और नौ ग्रह ... ...( हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल : 049 )
- पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....

संतोष पाण्डेय ने कहा…

क्या बात है। समय पर चेत जाना ही सबसे कठिन है।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

महोत्सव तो है ... और आपने तो कबीर के साथ साथ अन्य दोहों के माध्यम से इस चुनावी माहोल को गरमा दिया है ... ये सच है की समय रहते सभी को जाग जाना चाहिए नहीं तो अगले पांच साल का उलट फेर न जाने क्या गुल खिलायेगा इस देश में ...

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सटीक रेखांकन .... चुनावी माहौल कुछ ऐसा ही बन जाता है ....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

Bahut dino se dooe tha blog se.. Lekin ise na padhta to ek behatareen vishleshan se vanchit rah jata... Rochak shaili me saamayik post!!

Rajput ने कहा…

Bahut sateek aur sarthak rachna

आशीष अवस्थी ने कहा…

बहुत सुंदर परिभाषित रूप से आपने बात उठायी हैं , आदरणीया बहुत सुंदर , धन्यवाद
नया प्रकाशन --: तेरा साथ हो , फिर कैसी तनहाई

PS ने कहा…

जागो लोगो मत सुवो, न करू नींद से प्यार।
जैसा सपना रैन का ऐसा ये संसार।।
........................
चुनाव भी रात का देखा ही सपना है ..हम मतदाताओं को तो एक दिन के जागना है या फिर आपने बड़ा अच्छा चित्रांकन किया है महोत्सव जैसा वैसा ही रात का देखा सपना है जहाँ हमारी ५ साल की फुर्सत और कुर्सी वालों की पौ बारह ५ साल तक......
कुछ भी हो मजा आ गया कविता जी
सामयिक लिखने का आपका अंदाजे-बयां का क्या कहने ...लाजवाब ....लाजवाब

Dr. pratibha sowaty ने कहा…

सार्थक लेखन / अभिवादन

RAJ ने कहा…

वाह भई खूब रंग जमा है चुनाव महोत्सव का ...
बधाई हो बधाई!

Ranjana verma ने कहा…

सच कहा चुनाव महोत्सव की छटा बहुत ही निराली होती है बिलकुल दीवाली होली और ईद कि तरह ...

Bharti Das ने कहा…

चुनाव सचमुच ही एक उत्सव बन गया है .खुबसूरत लिखी है