किसी भी देश में राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्र चिन्ह की भांति ही राष्ट्रभाषा का भी बराबर महत्व होता है। जिस व्यक्ति के मन में इन सबका सम्मान नहीं, उसकी राष्ट्र के प्रति भी अपनी कोई आस्था नहीं हो सकती है। राष्ट्रभाषा किसी भी स्वतंत्र देश की संपत्ति होती है और हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। राष्ट्रभाषा का महत्व राष्ट्रीय सम्मान की दृष्टि से होता है। एक ही राष्ट्र के निवासी जब आपस में मिलने पर बात विदेशी भाषा में करें तो यह एक सीधे से अर्थ में विपत्ति टूटना है। एक ही घर के दो व्यक्ति किसी विदेशी भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनायें तो माना जा सकता है कि वह दोनों वैचारिक स्तर पर दरिद्र हैं। दूसरे देश से भाषा का आयात कर अपना काम चलाना किसी भिखारीपन से कम नहीं कहा जा सकता। जिसकी अपनी भाषा है वह दूसरे की भाषा का सम्मान तो कर सकता है मगर दूसरी भाषा पर आश्रित होना दिवालियेपन से कम नहीं। राष्ट्रभाषा के बिना किसी भी राष्ट्र की उन्नति अधूरी है। अपनी राष्ट्रभाषा के प्रयोग से जो आत्मीयता का बोध होता है, वह किसी दूसरी भाषा से नहीं हो सकता है। तभी तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कहते हैं कि-
निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल।।
राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। हमारे साथ स्वतंत्र होने वाले पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित किया तो तुर्की के जनप्रिय नेता कमाल पाशा ने स्वतंत्र होने के तत्काल पश्चात् वहां तुर्की को राष्ट्रभाषा बना दिया। इतना ही नहीं अपने नाम के साथ ‘पाशा’ विदेशी शब्द हटाकर अपना नाम कमाल अतार्तुक कर दिया। हमारे पश्चात् स्वतंत्र होने वाले अनेक राष्ट्रों ने अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा की घोषणा कर दी, किन्तु भारत के कर्णधार ‘ सबको खुश करने’ की नीति पर चले तो उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी की घोषणा करके उस पर अंग्रेजी की ऐसी तलवार लटका दी, जिसे हटाने में किसी सूरमा में ताकत शेष न रही। संविधान-निर्माण के समय हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करवाने के लिए जिन असंख्य हिन्दी प्रेमियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने प्रदर्शन किए, लाठियों का सामना किया, वे परतंत्रता-काल में हिन्दी के हिमायती कांग्रेसी नेताओं की राजनीति के चक्कर में फंस गए। जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को सदैव के लिए प्रयोगशील बना दिया गया। संसद में भी हिन्दी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को अनुमति मिल गई और कहा गया कि जब तक भारत का एक भी राज्य हिन्दी का विरोध करेगा, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ नहीं किया जाएगा। इसी की दुःखद परिणति है कि आज भी हमारी राष्ट्रभाषा कबीरदास के दोहे, “चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।“ जैसे हालातों से जूझते हुए राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ होने की राह बाट रही है।
यह निर्विवाद सत्य है कि हिन्दी की पहचान हिमगिरि से लेकर कन्याकुमारी तक व्याप्त है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इसकी परम्परा अंततः पुष्ट और सुदीर्घ है। भक्तिकाल का सम्पूर्ण साहित्य भी हिन्दी भाषा में ही रचित है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रतता के 67 वर्ष बाद भी देश में हिन्दी पढ़ने, बोलने, समझने वालों की संख्या 75 प्रतिशत के लगभग होने के बावजूद भी उसे आज पर्यन्त राष्ट्रभाषा का उचित सम्मान और महत्व प्रदान करने में सफल नहीं हो पाये हैं। संविधान की धारा 351 के अंतर्गत भले ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है, मगर सरकारी स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का महत्व अभी प्राप्त न हो सका।
आज अंग्रेजी मानसिकता हिन्दी-अभिरुचि का गला घोंट रही है। हिन्दी के पक्षपाती, उसके कर्णधार तथा उसके नाम पर व्यवसाय करने वाले, राजनीति की रोटियाँ सेंकने वाले उसे गंगा में समाधिस्थ करने पर तुले हुए हैं। ऐसे में कच्छप गति से आगे बढ़ती हिन्दी के रथ को गति प्रदान करने के लिए चाणक्य चाहिए जो हिन्दी के विरुद्ध 'उत्तर-दक्षिण की बात खड़ी करके भारतीय समाज को विघटित' किए जाने वाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश करके, हिन्दी विरोधी ‘फूट डालो, राज्य करो’ नीति को उजागर करके लोभ, लालच, ममता, स्वार्थ के कंटकों को हटाकर जन-मानस में हिन्दी संस्कार का अमृत पहुंचा सके।
.....कविता रावत
38 टिप्पणियां:
आयुर्वेद और योग जैसे भारतीय परम्परागत चिकित्सा अध्यन में अंगरेजी का बोलबाला बढ़ रहा है जो एक बहुत बड़ी दुखप्रद स्थति हैं ..चिकित्सकों को चाहिए ही वे हमारी राष्ट्रभाषा में अध्यन अध्यापन कार्य करें और सरकार को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए ..
बहुत सुन्दर सामयिक आलेख
जब तक भारत का एक भी राज्य हिन्दी का विरोध करेगा, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ नहीं किया जाएगा। .............................
सबसे बड़ा रोड़ा अटका के रखा है ...और उत्तर दक्षिण के बीच फंस गयी राष्ट्रभाषा हिंदी
हिंदी दिवस पर गहरा चिंतन .....
विचारणीय पोस्ट
सामयिक और सार्थक पोस्ट
अच्छी रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
आपने बिलकुल सही कहा ..
संविधान-निर्माण के चौसठ वर्ष पश्चात भी भारत के दक्षिण पूर्वी प्रदेशों में हिंदी-सरिता बून्द-बून्द बनकर रिसती रही यह कभी धाराओं में प्रवाहित ही नहीं हुई । मुग़ल-काल से लेकर अबतक जिस किसी ने भी भारत पर शासन किया उसने भारतीय भाषाओँ को जैसे बेड़ियों से बांध कर रखा । यह भारतीयों का दुर्भाग्य ही है कि संविधान निर्माण के पश्चात संस्कृत भाषा को कालापानी का दंड मिला और अंग्रेजी भारत पर राज करने लगी.....
संस्कृत विश्व की प्राचीनतमा, दुर्लभा एवं वैज्ञानिक भाषा है, अपने अथाह ज्ञान के प्रकाश द्वारा यह सदियों से हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को आलोकित करती आ रही है इस मातृवत भर्तृ का तिरष्कृत रूप देखकर हृदयों का कुंठा से भर आना स्वाभावक ही है.…..
मातृवत भर्तृ = सौभाग्यवती माता
एक ही राष्ट्र के निवासी जब आपस में मिलने पर बात विदेशी भाषा में करें तो यह एक सीधे से अर्थ में विपत्ति टूटना है। एक ही घर के दो व्यक्ति किसी विदेशी भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनायें तो माना जा सकता है कि वह दोनों वैचारिक स्तर पर दरिद्र हैं। दूसरे देश से भाषा का आयात कर अपना काम चलाना किसी भिखारीपन से कम नहीं कहा जा सकता। जिसकी अपनी भाषा है वह दूसरे की भाषा का सम्मान तो कर सकता है मगर दूसरी भाषा पर आश्रित होना दिवालियेपन से कम नहीं। राष्ट्रभाषा के बिना किसी भी राष्ट्र की उन्नति अधूरी है। अपनी राष्ट्रभाषा के प्रयोग से जो आत्मीयता का बोध होता है, वह किसी दूसरी भाषा से नहीं हो सकता है। तभी तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कहते हैं कि-
निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल।।
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हिंदी दिवस के मौके पर बहुत सुन्दर सार्थक लेखन .
हिंदी है हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
बहुत सुंदर, सार्थक और सामयिक आलेख ” हिंदी दिवस ” पर...
किसी भी स्वाधीन राष्ट्र में उसकी राष्ट्रभाषा इतने समय तक उपेक्षित नहीं रही है। राष्ट्रभाषा होने के बावजूद हिंदी षड्यंत्रों का शिकार रही है। स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिंदी के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं। उन्ही का परिणाम है कि हिंदी आजतक अपना अनिवार्य स्थान नहीं पा सकी है।
आप सबको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-09-2014) को "मास सितम्बर-हिन्दी भाषा की याद" (चर्चा मंच 1736) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
सार्थक और सामयिक आलेख !
सुंदर प्रस्तुति व आलेख , कविता जी धन्यवाद ,हिंदी दिवस की शुभकामनाओं सहित !
Information and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
हिंदी हिन्दू हिदुस्तान
यही हमारी है पहचान
...सार्थक और सामयिक आलेख !
हिंदी है हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
.. हिन्दुस्तानियों के धड़कन है हिंदी .....
हिंदी दिवस पर सुन्दर सामयिक आलेख
जय भारत
बहुत ही शानदार, जानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
बहुत बधाई....
सार्थक पोस्ट.... हिंदी का मान बना रहे
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बहुत अच्छी रचना !
सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में हिंदी ही पिरो सकने में समर्थ है आयातित भाषाएँ देश की उन्नति में कभी भी सहायक नहीं हो सकती इसलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मानजनक स्थान मिलना ही चाहिए ..
दिवस विशेष पर सार्थक आलेख
यह देश का दुर्भाग्य है कि भारत की कोइ भी राष्ट्र भाषा ही नहीं है | राज-भाषा दसे जी बहलाया गया है !
सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति
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बिल्कुल दुरुस्त बातें कहीं है..जब एक तरफ विदेशी हिंदी सीखने की कोशिश कर रहे हैं..तब हम अपने को खिचड़ी बनाकर जाने दुनिया को क्या दिखाना चाहते हैं
हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान
यही भारत की पहचान
..........
सामयिक और सार्थक पोस्ट
हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान
यही भारत की पहचान
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आपकी चिन्तायें सटीक है।
बहुत अच्छी रचना ...
हिंदी दिवस, हिंदी पखवाढ़ा को अवसर पर उचित लेख. एक विनती... यदि आप हिंदी को राष्ट्रभाषा बनोने के बारे किसी दस्तावेज से अवगत हों तो कृ,या सूचित करें, मेरी जानकारी में तो ऐसा कुछ नहीं है.
सादर,
सशक्त सार्थकप्रस्तुति
Sunder steek aur saarthak aalekh.... Badhaayi..!!
बहुत सुन्दर
निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल।।..
कई बार जब टी वी पर बहस देखता हूँ तो मन में खटास सी जाती है .. जब इस बात पर बहस होती है की हिंदी को ही क्यों माध्यम बनाया जाए ...
आजादी के इतने सालों में जो काम हम नहीं कर पाए आज कर पायेंगे लगता नहीं ... सच में चिंता की बात है ...
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कविता जी,
आपके इस ब्लॉग से पूरी तरह सहमत हूँ - मात्र इस बात के कि आज भी हिंदी हमारी राषट्रभाषा नहीं है.
बल्कि यूँ कहें कि भारतच में आज तक कोई राष्ट्रभाषा हुई ही नहीं.
ऐसा प्रतीत होता है कि आप लेख में राजभाषा को राष्ट्रभाषा कह रही हैं .
यदि आपके पास ऐसा कोई दस्तावेज हो जिससे हिंदी को राष्ट्भाषा का दर्जा दिया गया है और मुझे गलत कहा जा सके तो कृपया पोस्ट करें... आभारी रहूँगा.
अयंगर.
कविता जी ,बहुत ही सार्थक सृजन ।
हिन्दी दिवस पर सार्थक आलेख
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