सुदूर हिमालय की गोद में बसे पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड देवभूमि के नाम से जाना जाता है। यहाँ पौराणिक काल से ही विभिन्न देवी-देवताओं का पूजन भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रचलित है। इनमें से एक शक्ति-पीठ ‘कालिंका देवी’ (काली माँ) पौड़ी और अल्मोड़ा जिले के चैंरीखाल में बूँखाल चोटी पर अवस्थित है। इस चोटी से देखने पर हिमालय के दृश्य का आनन्द बहुत ही अद्भुत और रोमांचकारी होता है। सामने वृक्ष, लता, पादपों की हरियाली ओढ़े ऊंची-नीची पहाडि़याँ दिखाई देती हैं और पीछे माँ कालिंका के मंदिर का भव्य दृश्य।
माँ कालिंका के बारे में मान्यता है कि सन् 1857 ई. में जब गढ़वाल और कुमाऊँ में गोरखों का राज था, तब सारे लोग गोरखों के अत्याचार से परेशान थे। इनमें से एक वृद्ध व्यक्ति जो वडि़यारी परिवार का रहने वाला था, वह काली माँ का परम भक्त था। एक बार भादौ महीने की अंधेरी रात को रिमझिम-रिमझिम बारिश में जब वह गहरी नींद में सोया था, तभी अचानक उसे बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ ही एक गर्जना भरी आवाज सुनाई दी, जिससे वह भयभीत होकर हड़बड़ाकर उठ बैठा। जब उसने बाहर की ओर देखा तो माँ कालिंका छाया रूप में उसके सामने प्रगट हुई और उससे कार्तिक माह की एकादशी को पट्टी खाटली के बन्दरकोट गांव आकर उनका मंदिर बनवाने को कहकर अंतर्ध्यान हो गई। भक्त की भक्ति एवं माँ की शक्ति के प्रताप से देखते-देखते गांव में मन्दिर बन गया। दिन, महीने, साल बीते तो एक वडि़यारी परिवार का विस्तार तेरह गांव तक फैल गया। तब एक दिन मां कालिंका अपने भक्तों के सपनों में आकर बोली कि वे सभी मिलकर उनकी स्थायी स्थापना गढ़-कुमाऊँ में कर ममगांई परिवार को पूजा का भार सौंपे। माँ के आशीर्वाद से सभी गांव वालों ने मिलकर बूंँखाल की चोटी पर शक्तिपीठ कालिंका मंदिर की स्थापना की। जहाँ हर तीसरे वर्ष पौष कृष्ण पक्ष में शनि और मंगलवार के दिन मां कालिंका के मंदिर में मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर गांवों में बसे लागों के अलावा हजारों-लाखों की संख्या में देश-विदेश के श्रद्धालुजन आकर फलदायिनी माता से मन्नत मांगते हैं।
कोठा गांव में मां कालिंका की पहली पूजा के साथ ही शुरू होता है मां कालिंका की न्याजा (निशाण) का गांव-गांव भ्रमण। अपने भक्तों की रक्षा करती हुई माता अंत में मेले के दिन मंदिर में पहुंचती है। इसके बाद विभिन्न पूजा विधियों के साथ ही शुरू होता है माँ का अपने पार्षद, हीत, घडियाल और भैरों बाबा के साथ अद्भुत तांडव नृत्य। जैसे ही जागरी (माँ का पुजारी) ’दैत संघार’ के स्वरों ‘जलमते थलमते दैता धारिणी नरसिंगी नारायणी’ आदि के साथ ’जै बोला तेरो ध्यान जागलो! ऊँचा धौलां गढ़ तेरा, दैत चढ़ी गैन जोग माया’ का ढोल, दमाऊँ, नगाड़े की थाप पर जोर-शोर से उच्चारण करता है, पश्वा (जिस पर देवी आती है) अपने सिर पर लाल चुनरी बांधकर दैत्य संहार करने को उद्धत होकर रौद्र रूप धारण कर भयंकार रूप से किलकारियां मारता है। उसकी भुजायें और रक्त वर्ण नेत्र फड़कने लगते हैं। वह एक हाथ में खड्ग और दूसरे में खप्पर, माथे पर सिंदूर के साथ अग्याल के चावल लेकर हुंकार मारता है, तो दैत्य संहार के निमित्त भैंसे की बलि दे दी जाती है और इसी के साथ मनौतियों के लिए आये नर भेड़-बकरियों का सामूहिक बलि का सिलसिला चल पड़ता है। लेकिन इस बार 23 दिसम्बर को प्रशासन ने मंदिर की 2 किमी की सीमा में पुलिस बल तैनात कर सख्त रवैया अपनाया तो पशु बलि प्रथा को रोकने में अभूतपूर्व कामयाबी मिली, जिससे यह पावन मंदिर आस्था के नाम पर हजारों बेजुबान पशुओं के खून से रंगने से बचकर अन्य शक्तिपीठ कालीमठ, चन्द्रबंदनी, धारी देवी, ज्वाल्पा एवं देलचैरी आदि सात्विक पूजा स्थलों की श्रेणी में शामिल हो गया।
इस मेले का मुख्य आकर्षण यह है कि जो भी भक्तगण मां कालिंका के मंदिर में मन्नत मांगते हैं, उनकी मनोकामना पूर्ण होती है तथा अगले तीसरे वर्ष जब यह मेला लगता है, तब वे खुशी-खुशी से मां भगवती के दर्शन के लिए आते हैं।
"देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।।"

जय माँ कालिंका!
.....कविता रावत
प्लीजेंट वैली राजपुर, देहरादून से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'हलन्त' के अंक नवम्बर, 2019 में प्रकाशित मेरा लेख 'आदिशक्ति माँ कालिंका"
प्लीजेंट वैली राजपुर, देहरादून से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'हलन्त' के अंक नवम्बर, 2019 में प्रकाशित मेरा लेख 'आदिशक्ति माँ कालिंका"
जय माँ काली ...
ReplyDeleteभारत वर्ष का समाज विविध किवंदितियों और रीति रिवाजों के कारण भी एक दूजे से जुड़ा हुआ था ... मेला और आस्था का वर्णन पढ़ के बहुत अछा लगा ...
रोचक एवमं सुन्दर विवरण !
ReplyDeleteहल्द्वानी से यहाँ जाने के लिए बस मिलती है क्या ?
सुन्दर संस्मरण!
ReplyDeleteजय माँ कालिंका!
जय माँ काली की!
ReplyDeleteपहाड़ो वाली काली माँ की जै हो........
ReplyDeleteमाता रानी की जय हो!
ReplyDeleteहमेशा की तरह सुंदर....
ReplyDeleteजय माँ काली ...
बहुत सुंदर एवं रोचक विवरण.
ReplyDeleteनई पोस्ट : तेरी आँखें
नई पोस्ट : सच ! जो सामने आया ही नहीं
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर चित्र और जानकारी.....
ReplyDeleteशक्ति-पीठ कालिंका देवी पर प्रकाश डालता सुन्दर आलेख...
ReplyDeleteसुंदर विवरण...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ऐतिहासिक जानकारी !
ReplyDeleteसंत -नेता उवाच !
क्या हो गया है हमें?
देर से ही सही लेकिन अब आस्था के नाम पर सदियों पुरानी यह धारणा की "पशुबलि के बिना देवी की पूजा अधूरी है" बदल रही है और उसका स्थान "सात्विक पूजा" ले रही है..
ReplyDelete..माँ कालिंका के बारे में सुन्दर चित्रण .....
माँ की कृपा सब पर बनी रही यही प्रार्थना है ...
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तुते
ReplyDelete..... सुन्दर विवरण जानकारी कविता जी हमे तो इसके बारे में पता ही नहीं था अपर आपने जिस सुंदरता से विवरण किया है बहुत खूब पहाड़ो वाली काली माँ की जय हो
सुन्दर पहाड़ों के बीच वास करने वाली माँ काली (कालिंका) की जय हो!
ReplyDeleteसुन्दर जानकारी. धन्यवाद.
ReplyDeleteगढ़-कुमाऊँ की काली पूजन मेला का सुन्दर वर्णनं .....
ReplyDeleteमाँ कालिंका की कृपा सब पर सदा बनी रही और लोग सात्विक पूजा करे ऐसी सदिच्छा है ........
जय माँ पहाड़ो वाली की !
सुन्दर ...
ReplyDeleteजय माँ कालिंका!
मां कालिकां के पीठ को सात्विकता के साथ पूज कर अच्छा कार्य हुआ। पहाड़ों की बलि प्रथा पर बहुत विमर्श हुआ था कि ऐसा क्यों होता है, पर कई शक्तिपीठों व मन्दिरों में बलि प्रथा पर रोक की पहल का साहस अब तक नहीं हो सका था। यह सोच ज्यादा अाश्चर्य होता था कि अधिकांश महिलाएं मांसाहारी नहीं हैं, केवल पुरुष और बच्चे (बाल जिज्ञासावश) ही मांसहार करते हैं, तब भी वर्षों से बलि प्रथा का पहाड़ो में बनी रही थी। दुख यह भी है कि देवशक्ति से परिपूर्ण इस पर्वत क्षेत्र को यहां के लोग छोड़-छोड़ कर भाग रहे हैं। और दूसरी तरफ से शहरी mafia जिनके पास पैसे अधिक हैं, वे वहां की जमीनें खरीद-खरीद कर वहां बड़े-बड़े रिजार्ट बना रहे हैं। केदारनाथ में भी एक प्रकार का mafia ही कंक्रीट निर्माण में लिप्त था। जिसका दुष्परिणाम सब लोगों ने देखा सन् २०१३ की आपदा में। शहरों को जीवनदान देनेवाली कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक की पर्वतमालाओं (गढ़वाल-कुमाऊं की पर्वतमाला सहित) के लिए भारतीय शासन को एक पर्वतीय प्राधिकरण बनाना चाहिए, जो वहां के प्राकृतिक उत्स को बचा कर रखने में नीतियां बनाने और उनका त्वरित क्रियान्वयन करने में सहायक बने और इसके लिए स्थानीय मूल निवासियों को वहीं बसाने की वृहद योजना भी बने। आपने मां कालिकां का बहुत सुन्दर वर्णन किया। बर्फ से लदी पहाड़ियों बीकेच स्थित मन्दिर का नयनावलाेकन करना अत्यन्त सुखकर है।
ReplyDeleteसच कहा सर ये पलायन को रोक सकता हैं
Deleteजय माँ काली
ReplyDeleteसुंदर, चित्रमय जानकारी...आभार
पढ़कर अच्छा लगा बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.......
ReplyDeletehttp://dharmraj043.blogspot.in/2015/01/blog-post.html?m=1
जय हो ! सुन्दर जानकारीपूर्ण आलेख.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया !
ReplyDeleteसमय निकालकर मेरे ब्लॉग http://puraneebastee.blogspot.in/p/kavita-hindi-poem.html पर भी आना
रोचक संस्मरण...जानकारी भरा आलेख।
ReplyDeleteजीवंत वर्णन... अच्छी जानकारी... माता के चरणों में प्रणाम!!
ReplyDeleteबूंखाल की कालिंका के विषय में लोगों की अटूट धारणाये हैं कि जो मनोती करें वह पूर्ण होती है। इस बार बलि पर रोक लग सकी यह प्रसन्नता का विषय है। http://gaonwasi.blogspot.in/2010/12/blog-post_18.html इस लिंक पर भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
ReplyDeleteउत्तम रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चित्रमय जानकारी..पशुओं की बलि बंद कर देना निश्चय ही सराहनीय प्रयास है..जय माँ काली..
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद कविता जी
ReplyDeletewww.mahakalitrust.org
Kavitaji thanks for such a nice blog about shaktipeeth
ReplyDeletewww.mahakalitrust.org
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