समय बीतता गया। रमा परिस्थितियों के अनुकूल ढल गई। इसी आस में सब कुछ सहन करती रही कि एक दिन उसके दिन फिरेंगे। जब उसका बेटा बड़ा हुआ तो घर में बहू आ गई तो उसे लगा उसके अच्छे दिन आ गये। लड़का शहर कमाने गया तो कुछ दिन बहू के साथ ठीक-ठाक चलता रहा। लेकिन यह बहुत समय तक नहीं चला, पति और ननद के हौसले से बहू बात-बात पर उससे झगड़ने लगी, उसे कामचोर कहने लगी तो उसका दिल बैठने लगा। उसे बहू से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। एक बार रमा के सिर फिर दुःखों की गठरी लद गई। वह चुपचाप सब कुछ झेलती रही, इस आस में कि एक दिन जब उसका बेटा शहर से घर वापस आयेगा तो बहू को समझा-बुझाकर सब कुछ ठीक कर देगा।
रमा का बेटा शहर में एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था। उसे साल भर में एक बार ही बमुश्किल छुट्टी मिलती थी। जब वह गर्मियों के दिन छुट्टी लेकर घर आया तो रमा को बहुत खुशी हुई। उसने एक दिन अपनी आप-बीती उसे सुनाई, लेकिन उससे पहले ही घर के अन्य सदस्यों ने उसके कान भर दिए थे, इसलिए वह उल्टे अपनी मां को समझाने लगा कि सबके साथ अच्छा रहा कर, हर घर में थोड़ी बहुत कहासुनी चलती रहती है। तू किसी भी बात को राई का पहाड़ मत बनाया कर आदि-आदि। रमा समझ गई कि जब बेटा मां को समझाने लगे तो फिर वह अपना न रहकर किसी और का हो जाता है। अपने जिगर के टुकड़े की बातें सुनकर वह निराशा और दुःख में डूब गई। उसका दुःख यहीं खत्म नहीं हुआ। एक दिन पास के गांव में मेला लगा, जहां उसकी बहू जा रही थी, लेकिन उसे अपनी साड़ी नहीं मिल रही थी तो वह रमा के पास आकर बोली- “मेरी साड़ी कहांँ गई, क्या तुमने देखी उसमें मैंने रुपये भी रखे थे। कहीं तुमने तो नहीं चुरा ली?“
अकस्मात् सरासर झूठे आरोप सुनकर रमा तिलमिला उठी-“ अब मेरे ये दिन आ गये कि मैं तेरी साड़ी चुराऊँ? पैसे चुराऊँ।“
हल्ला सुनकर यशोदा भी पास आ धमकी-“ जरूर इसने ही चुराई होगी और दूसरा कौन है यहांँ?“
रमा से रहा नहीं गया वह दौड़कर अपने बेटे के पास गई। उसके मन में इतना विश्वास बाकी था कि उसका बेटा कम से कम इस झूठे आरोप में ननद और बहू का साथ नहीं देगा। वह बेटे से कुछ कह पाती इससे पहले ही शंकर बीच में आ धमका- “क्यों इतना चिल्ला चोट मचा है? क्या बात है? कोई मुझे भी बतायेगा कि नहीं?“ इस बीच उसका बेटा और यशोदा भी वहां पहुंच गई। यशोदा ने आते ही सुनाना शुरू कर दिया- “लो पूछ लो महारानी जी को। बहू के कपड़े और रुपये चुराकर भोली बन रही है।“ इतना सुनकर शंकर को बड़ा गुस्सा आया। बात-बात में दो-चार लात-घूसे जमाने का आदि होने से वह रमा को मारने लपका कि बीच में बेटा आ गया। बेटे ने पास जाकर पूछा -“क्या हुआ माँ! तू ही सच-सच बतला दें!् क्या तूने सचमुच चोरी की?“
“नहीं बेटा! चोरी जैसा घिनौना काम मैं सपने में भी नहीं कर सकती।“ यह सुनते ही यशोदा बड़बड़ाई-“बड़ी आयी सपने वाली, इसको तो आदत ही पड़ गई है चोरी करने की।“ शंकर ने भी हाँ में हाँ मिलाई तो वह जड़वत हो गई। “मां क्या ये सच है कि तू पहले भी चोरी करती आई है।“ बेटे ने उसे झिंझौड़ते हुए पूछा- “नहीं रे! तू भी इनकी बातों में आ गया, उन पर विश्वास करने लगा जो हमेशा मुझे इस घर से निकालने की फिराक में रहते हैं, जाने किस जन्म का बैर निकाल रहे हैं मुझसे।“ वह फूट-फूटकर रोने लगी।
बेटा, बहू, ननद और पति की प्रताड़ना से दुःखी होकर वह चुपचाप दूर कहीं भाग जाने की सोच निकलने लगी तो बेटा चिल्लाया -“कहां जा रही है, बताती क्यों नहीं तू।“ बेटे की बौखलाहट से परेशान होकर उसके मुंह से बरवस ही बोल फूट पड़े- “हां मैंने चोरी की। तू भी अपने बाप जैसे ही निकला।“
इतना सुनते ही बेटे ने उसका हाथ पकड़ा और उसे धक्का मारते हुए कहा-“चली जा, फिर कभी घर मत आना?“ यह सुनकर रमा तो घर आंगन में दहाड़े मार रोने लगी, जिसे देखकर यशोदा, बहू और शंकर खुश दिख रहे थे। आस-पास के लोग तमाशा देखने इकट्ठे हो गये। रमा का दिल बैठ गया। उसने सोचा भी नहीं था कि उसका जिस पर सहारा था वह इतना बेरहम और निर्लज्ज होगा कि उसे धक्के मारकर घर से बाहर कर देगा। बेटा बहू को लेकर मेला चला गया और घर वाले अपने कामकाज में लेकिन रमा वहीं सीढि़यों पर दिनभर रोती कलपती रही। उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। जैसे-तैसे दिन कटा और शाम हुई तो रमा भारी मन से उठी और अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनकर गौशाला की ओर निकल पड़ी। गौशाला पहुंचकर वह बहुत सारा बाहर पड़ा सूखा घास-फूस गौशाला के अंदर समेटने लगी तो पास के गौशाला वाली औरत को शंका हुई कि आज इसे क्या हो गया जो इतना घास गौशाला के अंदर भर रही है। पास जाकर उसके पूछने पर वह बड़ी लापरवाही से बोली-“रोज-रोज घास को बाहर से अंदर करो, तंग आ गई हूं यह सब करते-करते। यह रोज-रोज का झंझट.....अब बर्दाश्त नहीं होता।“
“रोज-रोज का झंझट“ पड़ोसी समझी नहीं।
“हाँ रोज-रोज का झंझट नहीं तो और क्या है?“ वह घूरते हुए बोली तो पड़ोसन ने सोचा आज इसका दिमाग खराब है, चुप रहने में ही भलाई है। वह शंकित मन अपने घर निकल पड़ी। रमा ने भी गौशाला को बंद किया और घर आ गई। आज न तो उससे किसी ने बात की और नहीं खाने को पूछा। बेटा-बहू मेले से बहुत सी चीजे खरीद कर लाये, लेकिन उसे किसी ने नहीं पूछा। एक बार भी उसे मां के कमरे में झांकने की जरूरत महसूस नहीं हुई। वह दुःखी मन से सबके सोने का इंतजार करने लगी। जैसे ही सब घरवाले सो गये, उसने भारी मन से चुपके-चुपके दबे पांव अपनी मां के घर की राह पकड़ी। कुछ ही देर में वह अपनी मां के घर पहुंच गई। उसने इधर-उधर झांकते हुए जैसे ही भराई आवाज में “मां! दरवाजा खोल।“ कहा।
उसकी बूढ़ी मां ने आशंकित होकर तुरन्त दरवाजा खोला-“इतनी रात गई, क्यों आई?“। “कहाँं से आऊंगी! भाग फूटे हैं मेरे! मैं तुझसे कहती थी न कि जैसे बाप वैसा ही बेटा भी निकलेगा तो मैं क्या करूंगी। लेकिन तू कहती रही ऐसा कुछ नहीं होगा। क्यों ब्याह दिया तूने मुझे उस घर में।“ एक सांस में कहते हुए रमा उससे लिपट गई। “क्या करती मैं बेटी, मैं भी तो मजबूर थी, गरीब की कौन सुनता है।“
दोनों मां-बेटी यूं ही बहुत देर तक अपने दुःखों की सुनते-सुनाते रहे। रमा बोली- “मां अब मैं तेरे साथ ही रहूंगी। अब उस घर कभी नहीं जाऊँगी?“ यह सुनकर उसकी मां ने उसे समझाया- “देख बेटी, हम एक ही गांव में रहते हैं, अगर मैं दूसरे गांव रहती तो तुझे अपने घर रखने में मुझे कोई परेशानी नहीं होती, लेकिन एक ही गांव में रहकर गांव वालों के बीच रहकर किस-किस को जवाब देती फिरूंगी। हुक्का पानी बंद हो जायेगा तो हम तो पहले ही मर जायेंगे?“ “ठीक है तू क्यों मेरे लिए अब इस बुढ़ापे में दुःख झेल पायेगी। मैं ही चली जाती हूँ सबसे दूर.......हमेशा के लिए।“ यह कहते हुए उसने बाहर से दरवाजे पर सांकल डाली और वहीं बाहर दरवाजे पर अपने शरीर पर लिपटे कुछ जेवर उतारकर रख गई।
माँ अंदर ही अंदर चिल्लाती रही लेकिन रमा कठोर मन से गौशाला की ओर निकल पड़ी। उसनेे बड़ी निष्ठुरता से यह कदम उठाया कि वह आज पहले गौशाला को जलाकर खाक कर देगी और फिर घर जाकर सारे घर को आग में झौंक कर फांस लगा लेगी। उसे अंधेरी राहों में कोई चिराग जल उठने की आस शेष न रही। पति, ननद और बहू को तो वह इसलिए झेलती रही क्योंकि उसे वे कभी भी अपने नहीं लगे, लेकिन जब उसके जिगर के टुकड़े ने उसे कटु वचन और उपेक्षा का दंश मारा तो उसकी सोचने-समझने की शक्ति कुंद हो गई और जीने की इच्छा जाती रही। उसने वहीं पहले से ही जमा घास-फूस पर आग लगा ली और छुपते-छुपते घर की ओर निकल गई। कुछ ही पल में गौशालाा धू-धू कर जल उठा। रमा के जाने के बाद उसकी मां ने जैसे-तैसे दरवाजे का सांकल खोला और सीधे प्रधान के घर पहुंची। उसके हाथ में रमा के जेवर की पोटली थी। उसने प्रधान का दरवाजा खटकाया तो आधी रात को किसी अनहोनी की आशंका के चलते प्रधान से फौरन दरवाजा खोला। सामने रमा की मां हड़बड़ाई खड़ी थी। रमा की बात चली तो दोनों आशंकित होकर शंकर की घर की ओर निकल पड़े। वे अभी बाहर आकर कुछ कदम ही होंगे कि प्रधान अंधेरी रात में उजाला दिखा तो उसकी नजर गौशाला की ओर गई जोे धू-धू कर जल रहा था। वह चिल्लाया- “अरे बाप रे! ये क्या हो रहा है!“ उसने गौशाला की ओर इशारा करते हुए कहा-“हो न हो ये आग रमा ने ही लगाई होगी।“ दोनों दौड़ते-दौड़ते, हांफते-हांफते शंकर के दरवाजे पर पहुंचे और जोर-जोर से दरवाजा खटकाते हुए -“शंकर! शंकर! जल्दी उठ, जल्दी उठ, देख! तेरे गौशाला में आग लग गई है।“ चिल्लाने लगे। शोरगुल सुनकर शंकर बदहवास उठा और जोर-जोर से दहाड़ मारते हुए गौशाला की ओर भागा। उसके चीखने-चिल्लाने से पूरा गांव जाग गया और उसके पीछे-पीछे बर्तन-भांडों में पानी भर-भर गौशाला की ओर भागने लगे। लोगों ने अंदर-बाहर धू-धू कर जलते गौशाला में पानी डालकर आग तो बुझा ली लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अंदर गाय, भैंस, बैल सभी जानवरों का तड़फ-तड़फकर दम निकल चुका था। सब खाक हो गया। शंकर की मां, यशोदा और बेटे-बहू बिलख-बिलख, दहाड़े मार सबको यकीन कोशिश दिलाने की कोशिश में थी कि रमा आग लगाकर भाग गई है।
सब लोग गौशाला में हुए नुकसान की बातें करते हुए अपने-अपने घरों की ओर निकल गये। क्या वाकई रमा आग लगाकर भाग गई? यह जानने को कोशिश किसी ने नहीं की और आपस में बातें करते-करते एक-एक कर खिसकते चले गए। बहुत से गांव वाले उसकी व्यथा समझते थे, लेकिन वे लाचार और बेवस थे। सब प्रधान व शंकर की दबंगई के चलते मौन रहने में ही अपनी भलाई समझते। बदहवास शंकर अपने मृत जानवरों के बीच रमा को तलाशने लगा, लेकिन वह न मिली तो वह उल्टे पांव घर की ओर भागा। घर आकर उसने रमा को मारने के इरादे से बाहर रखी कुल्हाड़ी उठाई और आग बबूला हो उसके कमरे की ओर लपका। इससे पहले कि वह अपने मंसूबों में सफल होता, उसने देखा कि रमा जमीन पर बेजान चिराग हाथ में लिए मृत पड़ी हुई है। चेहरे पर आत्मसंतुष्टि भरी स्मित् मुस्कान लिए मानो कह रही हो यही तो था मेरी अंधेरी राहों का चिराग।
समाप्त !
......कविता रावत