अन्धेरी राहों का चिराग - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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सोमवार, 19 जनवरी 2015

अन्धेरी राहों का चिराग

निष्ठुर सर्दी का मौसम। सुबह तड़के रमा घर की एक सुनसान अन्धेरी कोठरी में चिमनी के सहारे भारी दुःखी मन से चक्की पीसे जा रही थी। बाहर ठंड का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। आसमान गरज-चमक दिखाकर ओले बरसा रहा था। सारा गांव ठंड से अपने घरौंदों में दुबका हुआ था। परिवार के अन्य सदस्य भी नींद के आगोश में थे। रमा सबसे बेखबर चुपचाप चक्की के साथ ही हुए अपनी उपेक्षित, तनाव व कडुवाहटभरी जिन्दगी के बारे में सोच-सोच पिसी जा रही थी। 
बाहर घोर अन्धकार छाया था। रमा सारा अनाज पीसकर गौशाला में जानवरों को चारा डालने और भैंस दुहने के लिए अंधेरा छंटने का इंतजार करने लगी। ओले गिरने बन्द हुए ही थे कि तेजी से बर्फ गिरनी लगी, जिससे ठंड और बढ़ती चली गई। रमा ने जैसे ही दरवाजा खोला उसे सीढि़याँ और आंगन के साथ-साथ पेड़-पौधे भी सफेद चादर ओढ़े मिले। बर्फ गिरना बंद हुआ तो रमा बाल्टी लेकर नंगे पैर उस भयानक ठण्ड में गौशाला की ओर चल पड़ी। वह जल्दी-जल्दी अपने कंपकपाते कदम गौशाला की ओर बढ़ाये जा रही थी। ठंड से उसका बदन सुन्न हुआ जा रहा था।  गौशाला में पहुंचते ही जब उसने आग जलाई तो उसे ठंड से कुछ राहत मिली। जानवरों को घास-पात देकर और भैंस दुहने के बाद उसने घर की राह पकड़ी। गौशाला से बाहर निकलते ही फिर वह ठंड की चपेट में थी। ठिठुरते हुए उसके दांत किटकिटा रहे थे। सारा बदन कंपकंपा रहा था। वह इस आस में घर की ओर तेजी से अपने कदम बढ़ा रही थी कि शायद जल्दी घर पहुंचकर उसे राहत मिल जाय। किन्तु ऊपर वाले ने उसका ऐसा भाग्य रचा ही न था। अभी उसने घर के आंगन में पांव धरे ही थे कि उसके कानों में जो कर्कश और चुभते शब्द सुनाई दिए, उन्हें सुनकर उसके पांव जहां की तहां ठिठक गये- ’अभी तक नहीं आई महारानी जी, न जाने क्या करती रहती है? जहाँं जायेगी वहीं चिपक जायेगी, मैं तो तंग आ चुकी हूँ इससे।’ और फिर ’अरे शंकर! देख के आना जरा अपनी देवी जी को। सुबह-सुबह मनहूस गई कहां? देख! कहीं मर तो नहीं गई।’
          ‘कहाँ गई होगी मां जी? अपनी मौसी के पास बैठी होगी अड्ड मारकर। अभी जाता हूँ। देखता हूं वहां क्या चुगली कर रही है?“ और इसी के साथ शंकर ने तेजी से गुस्से में जैसे ही बाहर कदम बढ़ाये तो सामने रमा को देखते ही बरस पड़ा- “कहां मर गई थी इतनी देर तक? तुझे फिकर है कि नहीं घर द्वार की?“ बेचारी रमा अवाक उसका मुंह ताकते रही, बोली कुछ नहीं। जानती थी कि कुछ बोलूंगी तो सुबह-सुबह बखेड़ा खड़ा हो जायेगा और जानवरों की तरह मार पडे़गी। उसने चुपचाप घर के अंदर घुसने में ही अपनी भलाई समझी। घर में उसकी ननद यशोदा जो कि अपने ससुराल से एक बार भागकर जो आई तो फिर यहां घर की मालकिन बन बैठी, चूल्हे के पास पसरकर आग सेंक रही थी। दो भाईयों की इकलौती बड़ी बहिन होने से उसका सारे घर में हुक्म चलता था। रमा बेचारी ठंड से कांपती हुई चूल्हे के पास खड़ी क्या हुई कि वह बरस पड़ी-“तो आ गई महारानी! आ बैठ जा? अपनी हड्डियां अच्छी से सेंक ले तू भी। ठंडा गई होगी न?“ रमा को यशोदा के कडुवे बोल चुभे तो वह बिफर पड़ी- “बाहर निकलकर काम करके देखो तब पता चले? अंदर ही अंदर बस हुकम भर चलाना है?   
        रमा का इतना क्या कहना था कि यशोदा ने सुबह-सुबह सारा घर आसमान पर चढ़ा लिया, लगी चिल्लाने- “अरे शंकर!“ सुनता है कि नहीं?
“क्या हुआ दीदी?“ शंकर भागता आ धमका।
“पूछता है; क्या हुआ?“ सुना तूने! ये चुडै़ल मुझे क्या कह रही है?“
“क्या कहा इस कमीनी ने तुझे?“ शंकर ने आवेश में आकर रमा के बाल झिंझोड़ते हुए पूछा।  “कहती है कि तू सिर्फ हुकम चलाना जानती है। काम-धाम कुछ नहीं करती।“ यशोदा ने आपत्ति दर्ज की।
“तेरी ये मजाल चाण्डाल कहीं की। निकल जा .... मेरे घर से। निकल अभी... अभी निकल ... तेरी इस घर को कोई जरूरत नहीं। तू क्या सोचती है तू नहीं रहेगी तो हम भूखों मर जायेंगे। निकल जा .... जा।“ शंकर उसके बाल बेदर्दी से झिंझोड़ते हुए उसे घसीट-घसीट कर बाहर ले आया और लगा पीटने।
बेचारी रमा बुरी तरह मार खाकर रोती कलपती रही लेकिन यशोदा का दिल बिल्कुल नहीं पसीजा। सुबह-सुबह चिल्ला चोट सुनकर आस-पडोस वाले इकट्ठा होकर तमाशबीन बन  खुसर-फुसर करने लगे तो यशोदा दौड़ी-दौड़ी शंकर के पास गई और रमा को बचाने का उपक्रम करते हुए बोली- “अरे क्यों मार रहा है? छोड़ दे.... इंसान रहती तो कुछ समझती। जानवर को कितना भी मारो वह फिर अपनी चाल पर आ जाता है?“ फिर लोगों को सुनाते हुई बोली- “देख! कैसा तमाशा देख रहे हैं लोग! कुछ तो ख्याल कर! कल को सभी यही कहेंगे कि बेचारी को मारते रहते हैं। लक्षण तो इसके किसी को देखने हैं नहीं?“ यशोदा की बात मानकर शंकर ने रमा को तो छोड़ दिया किन्तु रमा अपनी ननद के कटु वचन सुन सुबकते-सुबकते गुस्साई- “क्या लक्षण हैं मेरे? बता तो जरा सब लोगों को, वे भी तो देखे आज!“ घायल शेरनी की तरहवह एकाएक पास पड़ी दरांती की ओर लपकी और उसे लहराते हुए चीखी-“बता! नहीं तो तेरे अभी सारे गांव वालों के सामने टुकड़े-टुकड़े कर दूँगी।“ 
“है अपने बाप की बेटी“ यशोदा अपना सिर रमा की ओर झुकाकर बौरायी-“धौंस दिखाती है गांव वालों की .....कर मेरे टुकड़े?“ 
         रमा का दुस्साहस देखकर शंकर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसका चेहरा तमतमा उठा, आंखे बाहर निकल आयी। उसने रमा को कच्चा चबा डालने वाली निगाहों से तरेरा और दांत पीसते हुए उस पर बाज की तरह झपटा- “जरा हाथ तो बढ़ा, यहीं अभी तेरे हाथ काटकर कुकुरों को नहीं खिला दिया तो मैं अपने बाप की औलाद नहीं“ उसका रौद्र रूप देखकर पास खड़े लोगों ने चुपके से खिसकना ही उचित समझा। लोगों का  जाते देख रमा भी दरांती वहीं पटककर बड़बड़ाती हुई घर के दरवाजे पर निढाल होकर रोने लगी। शंकर पीछे-पीछे गाली-गलौच करता आया दरवाजे पर उसको बड़बड़ाते हुए दो-चार लात जमाकर घर के अंदर घुस गया। 
         रमा वहीं दरवाजे पर पड़ी-पड़ी अपने बीते दुर्दिनों की याद कर लम्बी-लम्बी सिसकियां भर रही थी। कितना नीरस जीवन है उसका, तनाव ही तनाव, दुःख ही दुःख, खुशी कभी देखी ही नहीं। बचपन में मां चल बसी तो घर के कामकाज में ही खप गई। बाप ने दूसरी शादी की लेकिन उसे कोई राहत नहीं मिली। कुछ साल बाद वह भी चल बसे। सौतेली माँ ने यद्यपि उसे अपनी बेटी जैसी पाला पोसा, फिर भी वह सोचती अगर आज उसकी मां जिन्दा होती तो वह कम से कम ऐसे घर में और उसी गांव में नहीं ब्याही होती। लेकिन अब जाऊँ भी तो कहाँ? वह सोच में डूबी ही थी कि उसने अपनी सौतेली माँ जो कि उसी गांव में अकेली दिन गुजार रही थी, जो लोगों से उनकी लड़ाई-झगड़े की बातें सुनकर दौड़ी-दौड़ी चली आयी थी, को सामने देखा तो उससे लिपट गई और बिलखते हुए बोली- “माँ मुझे इस नरक से बाहर निकाल ले चल, नहीं तो मैं फांस लगा लूंगी।“ उसके मुंह से फांस लगाने की बात सुन उसकी सौतेली माँ की रूह कांप उठी, क्योंकि इससे पहले भी गांव में दो-चार ऐसी दुर्घटनायें घट चुकी थी, जिस पर कभी किसी गांव वाले ने मुंह तक नहीं खोला।  यही सोच वह उसे समझाने लगी- “देख बेटी, मैं तेरी सौतेली माँ जरूर हूँं लेकिन मैंने कभी भी तेरे को सौतेला नहीं समझा। जरा सोच! अगर तूने कोई गलत कदम उठाया तो तेरा ये छोटा सा मासूम बच्चा तेरे बिना कैसे जियेगा। कौन देखभाल करेगा उसकी।“
“जब मैं ही नहीं रहूंँगी तो मेरी तरफ से कोई जिये या मरे। मुझे कुछ लेना-देना नहीं इससे। कल ये भी बड़ा होकर अपने बाप की तरह मारने दौड़ेगा तो तब क्या करूँगी मैं? कहाँ जाऊँगी मैं, बता? रमा रोते हुए बड़ी निराश होकर बोली।
         “नहीं बेटी, धीरज रख। मुझे विश्वास है ये तुझे जरूर सुख देगा।“ रमा की मां ने बच्चे की ओर देखते हुए कहा- “अब जा काम कर ले।“
          रमा को थोड़ी आत्मीय शांति मिली तो उसने पास ही सुबकते हुए मासूम बच्चे को अपनी सीने से चिपका लिया। सोचने लगी- सच ही कहती है माँ! जब वह मेरी मौसेरी मां होकर मेरा सगे बच्चों जैसा देखभाल कर सकती है तो मैं क्यों नहीं कर सकती। उसे अपने बेटे से आशा बंधी कि बड़े होकर जरूर वह उसका सहारा बनेगा, तब उसके जीवन में खुशी के फूल खिल उठेंगे। यह सोचकर वह जी उठी।“

शेष अगली पोस्ट में .....
.....कविता रावत