चैत्र मास का प्रथम दिवस हिन्दू नववर्ष जो चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ सूचक भी है। भारतीय समाज के आध्यात्म, जीवन दर्शन, अन्नोपार्जन, व स्वास्थ्य समृद्धि का महत्वपूर्ण पर्व है। विजय ध्वज स्वरूप गुड़ी पड़वा व घटस्थापना इस महापर्व के प्रतीकात्मक सूचक है। पडवा, प्रथमा नवचन्द्र के उत्थान का सूचक है और यह विदित है कि सृष्टि निर्माता ब्रह्मा ने इस दिन सृष्टि का निर्माण का शंखनाद किया। भारत वर्ष के प्रत्येक भाग में यह त्यौहार एक महापर्व के रूप में मनाया जाता है।
पड़वा शब्द मूलतः देवनगरी लिपी से उत्पन्न हुआ है एवं संस्कृत, कन्नड, तेलगू, कोंकणी, आदिभाषाओं में इसको इन्हीं नाम से जाना जाता है। कर्नाटक व आन्ध्रप्रदेश मेें उगादि नाम से यह दिवस नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस पर्व का विशेष महत्व है। नवरेह नाम से कश्मीर में और चेती चाँद नाम से सिंधी समाज में इस पर्व का महत्व सर्वमान्य है। नव रोज नाम से यह दिन पारसी, बहोई समाज के नव वर्ष आगमन का आनन्दोत्सव दिवस है। मूल रूप से कृषि आधारित भारतीय जीवनशैली का यह महत्वपूर्ण त्यौहार है। इस दिन भारत की मूल दो फसलों मेें से एक रबी की पूर्णता मानी जाती है और नवीन फसल की शुरूआत की जाती है। इतिहास बताता है कि यह दिवस शक संवत के प्रारंभ का सूचक भी है। इस दिन सूर्य एक अद्भूत स्थान पर उदित होता है, जहाँ भू-मध्य रेखा और यामयोत्तर रेखाएँ मिलते हैं; ठीक उस बिन्दु के ऊपर सूर्य अवतरित होता है और हम बसंत ऋतु में प्रवेश करते हैं ।
गुड़ी को गृह प्रवेश द्वार के दाहिने ओर एक ऊँचें स्थान पर स्थापित किया जाता है। यह एक विजय सूचक है और अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों में इसका उल्लेख है। एक लंबी सीधी छड़ी पर लाल, हरे, पीले, मोटेदार कपड़े के साथ एक छोर पर मोटा नीम पत्र, आम्र पत्र व पुष्प हार बांधा जाता है। एक ताम्र या रजत कलश को उलटा कर इस पर रखा जाता है। ब्रह्मध्वज, इन्द्रध्वज छत्रपति शिवाजी के विषय सूचक राजा शालीवाहन एवं भगवान राम की सत्य विजय के सूचक स्वरूप में गुड़ी प्रसिद्ध है। भारतवासी अपने घर को साफ कर आंगन में रंगोली डाल सूर्य की प्रथम किरण को देखकर गुड़ी की स्थापना करते हैं। इस दिन पूजा के उपरांत नीम की पत्तियों को खाया जाता है। नीम की पत्तियों के अर्क में गुड़ व इमली मिलाकर भी इसका प्रसाद बनाया जाता है। यह एक रक्तशोधक एवं शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढाने वाला सत्व है, जिसको प्रसाद के रूप में देकर पूरे समाज को रोगमुक्त करने की भारतीय परम्परा का बोध होता है।
इस दिवस से सूर्य की किरणों का ग्रीष्म प्रभाव भी हमें महसूस होने लगता है। बाजार नई फसल से सराबोर हो जाते हैं। आम, कटहल और फल-फूल वातावरण को पुनर्जीवित करते हंै। दक्षिण भारत में इस त्यौहार का एक विशेष महत्व है। कन्नड भाषा में बेवू बेला का अर्थ है जीवन के 6 भाव- दुःख, खुशी, डर, आश्चर्य, क्रोध, व विरक्ति। इस दिन छः पदार्थों के खाद्य पदार्थों से तैयार प्रसाद खाया जाता है। नीम, इमली, गुड़, केरी, मिर्च व नमक से बने इस प्रसाद भोग का अर्थ है कि हमें अपने जीवन में सभी भावों को एक साथ खुशी-खुशी ग्रहण करना चाहिए और जीवन को स्वस्थ व संतुलित रूप से व्यतीत करना चाहिए। "युगादि पछडी" के नाम से प्रचलित यह प्रसाद विशेष रूप से वर्ष में एक बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर ही बनाया जाता है। सुस्वाद पौष्टिक आहार पूरण पोली, ओबट्टू, पोलेलू इस दिन खाया जाता है। इनके नाम भले ही भिन्न है, परन्तु वह लगभग एक ही प्रकार से बनाया गया संतुलित पौष्टिक आहार है। भारतीय जीवन दर्शन व आयुर्वेद पर आधारित यह समस्त भोज्य पदार्थ वातारण व मौसम के बदलाव के साथ हमारे शरीर को स्वस्थ रखते हैं। यज्ञ व मंत्रोच्चारण के साथ चन्द्र की परिवर्तित मार्ग दशा का समस्त प्राणिजगत पर प्रभाव ‘‘पंचांगश्रवणम्‘‘ के रूप में समाज के विद्वानों व पण्डितों द्वारा किया जाता है। शुभ स्वास्थ्य व उपज के सूचक आम्र पत्र तोरण व नीम पत्र से सिंचित मधुर पवन पूरे प्रांगण को मधुर व रोगमुक्त करती है।
वास्तव में एक वैज्ञानिक दृष्टि वाले समृद्ध समाज के सूचक इस महापर्व से हमें पुनः बोध होता है कि हम ब्रह्म सृजित इस सृष्टि के महान सनातन धर्मी भारतवर्ष की संताने बनकर अनुग्रहित हुए हैं ।
गुड़ी पड़वा- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की मंगलमय कामनाएं।
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