हिन्दू साहित्य में गाय- प्राचीनकाल से ही भारत के जनमानस में गाय के प्रति सर्वोच्च श्रद्धा भाव रहा है। उसे राष्ट्र की महान धरोहर, लौकिक जीवन का आधार तथा मुक्ति मार्ग की सहयोगिनी माना गया है। ऋग्वेद में गाय को समस्त संसार की माता कहा गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि हम परस्पर वैसे ही प्रेम करें जैसे गाय बछड़े से करती है। अथर्ववेद में गाय के शरीर में समस्त देवताओं का वास माना गया है तथा उसके विभिन्न अंगों में उसके वास को दर्शाया गया है। अनेक विद्वानों का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा देवता का अपना स्वर्णिम प्रभामंडल होता है, जो गाय के दर्शन करने अथवा गाय का दूध पीने से दोगुना तक हो जाता है।
मनुष्य के पारलौकिक जीवन में गाय की महिमा की सर्वत्र चर्चा की गई है। जन्म, विवाह तथा मृत्यु पर गोदान को सर्वोच्च माना गया है। गौ-ग्रास देना, गौशाला को दान देने की बात को बार-बार दोहराया गया है।
लौकिक जीवन का आधार है गाय - गाय भारतीय जीवन का एक अभिन्न अंग है। भारतीयों के चहुंमुखी विकास का आधार गौपालन, गौरक्षा तथा गौसेवा रहा है। कृषि प्रधान देश होने से आज भी यह विश्व की क्षुधा शांत कर सकता है। यह दूसरी बात है कि रासायनिक उर्वरक, खाद तथा कीटनाशकों ने भारत भूमि की उर्वरता को धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है या कम कर दिया है। बावजूद इसके आज भी विश्व के अनेक देशों की तुलना में भारत की भूमि कम होने पर भी उसकी उर्वरता अधिक है।
गाय एक चलता फिरता चिकित्सालय है- प्रसिद्ध गौभक्त लाला हरदेव सहायक ने कहा था, ’गाय मरी तो बचता कौन, गाय बची तो मरता कौन?’ शास्त्रों में गाय के दूध को अमृत तुल्य बताया गया है, जो सभी प्रकार के विकारों, व्याधियों को नष्ट करता है। गाय के मूत्र में नाइटेªक्स, सल्फर, अमोनिया गैस, तांबा, लोहा जैसे तत्व होते हैं। गाय आयु प्रदान करती है इसीलिए कहावत है, ’गाय का दूध पीओ, सौ साल जिओ।’ गौमूत्र से अनेक भयानक रोगों, जैसे- कैंसर, हृदय रोग व चर्म रोग आदि के सफल इलाज हुए हैं। पंचगव्य अर्थात् गाय का दूध, दही, घी, गौमूत्र और गोबर-चिकित्सा पद्धति के लिए अत्यन्त उपयोगी माना गया है। इस संदर्भ में गौविज्ञान अनुसंधान केन्द्र, देवलापुर (नागपुर) ने अनेक प्रकार के अनुसंधान एवं सफल परीक्षण के द्वारा देश का मार्गदर्शन किया है।
विश्व में जहां कहीं भी भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ अथवा जो भी देश हिन्दुत्व से प्रभावित हुए उन्होंने गाय का महत्व समझा। जरथु्रस्त के विचार में ‘ग्यूसू उर्व’ शब्द गाय की महत्ता के लिए प्रयुक्त हुआ है तथा गाय को पृथ्वी की आत्मा कहा गया। अहुता बैंती गाथा में जरथु्रस्त ने गाय पर अत्याचार की आलोचना की है। अहुर मजदा में गौ की रक्षा की बात कही गई है। अवेस्ता के वेंदीदाद अध्याय में गौमूत्र में किसी तत्व को शुद्ध करने की शक्ति बतलायी गई है। आज भी चीन में गौमांस भक्षण को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। इसी भांति प्राचीन मिश्र अथवा यूनान में गाय को महत्व दिया जाता था।
गौरक्षा देश की रक्षा है- भारत में प्राचीनकाल से ही गौरक्षा और गौसेवा को बहुत महत्व दिया गया है। महाराजा रघु, भगवान श्रीकृष्ण, छत्रपति शिवाजी ने गौरक्षा को अपने शासन का मुख्य अंग माना। 1857 के महासमर का एक प्रमुख मुद्दा गाय की चर्बी का नई राइफल की गोलियों में प्रयोग ही था। बहादुरशाह जफर ने भी तीन बार गौहत्या पर प्रतिबंध की घोषणा कर हिन्दू समाज की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया था। कूका आंदोलन का केन्द्रबिन्दु गौरक्षा ही था। इस संदर्भ में महात्मा गांधी का कथन महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा था, ’मैं गाय की पूजा करता हूँ। यदि समस्त संसार इसकी पूजा का विरोध करे तो भी मैं गाय को पूजूंगा..... गाय जन्म देने वाली मां से भी बड़ी है। हमारा मानना है कि वह लाखों व्यक्तियों की मां है।’ उन्होंने यह भी कहा, ’गौवध बंद न होने पर स्वराज्य का महत्व नहीं रहता, जिस दिन भारत स्वतंत्र होगा, सब बूचड़खाने बंद कर दिये जाएंगे।’
भारत में गौहत्या - भारत में विधिवत बूचड़खाने खोलकर गौहत्या हत्या का क्रम 1760 ईं. में क्लाइव के शासनकाल में हुआ। 1760 ईं. में पहला बूचड़खाना खुला, जिसमें कई हजार गायें नित्य काटी जाने लगीं। 1910 ईं. में देश में बूचड़खाने बढ़कर 350 हो गये। 1947 में स्वतंत्रता के बाद इनकी संख्या बढ़कर वैध-अवैध कुल मिलाकर 36,000 हो गई। एक अनुमान के अनुसार नित्य लगभग एक लाख गौधन काटा जा रहा है। दुर्भाग्य से गाय के मांस का भारी मात्रा में निर्यात आर्थिक आय का एक प्रमुख साधन माना जाने लगा है। इतना ही नहीं गाय के मांस को स्वाद तथा कीमतों की दृष्टि से 18 भागों में बांटा गया है। गाय के पीठ के भाग को, जिसे शिरोन कहते हैं, सबसे अधिक स्वादिष्ट तथा महंगा बताकर बेचा जाता है।
गौहत्या रोकने के प्रयत्न- गौहत्या रोकने के संदर्भ में सर्वप्रथम अनुकरणीय प्रयत्न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया। 1952 में गौपाष्टमी से गौहत्या बंदी आंदोलन चलाया। लेकिन शर्मनाक ढंग से पं. नेहरू ने इसे एक राजनीतिक चाल कहा। इसके बावजूद अनेक मुसलमानों, ईसाईयों तथा यहूदियों ने हस्ताक्षर अभियान में सहयोग दिया। केवल चार सप्ताह की अवधि में पौने दो करोड़ लोगों से गौहत्या बंदी के समर्थन में हस्ताक्षर करवा कर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को भेंट किये गये। देश के अनेक संतो, ऋषियों, जैन-मुनियों ने इसमें पूरा सहयोग किया। इसके साथ ही गौहत्या बंदी के लिए केन्द्र को संविधान में संशोधन कर कानून बनाने का भी आग्रह किया गया। बाद में बंगाल तथा केरल को छोड़कर सभी प्रांतों में गौहत्या बंदी कानून भी बनाये गये, लेकिन राजनीतिक हितों का ध्यान रखते हुए न केन्द्र सरकार द्वारा कोई कानून बनाया गया और न ही प्रांतों से गौमांस के निर्यात अथवा गौहत्या को रोकने का कोई दबाव बनाया। इतना ही नहीं, कुछ वामपंथी लेखकों ने गौहत्या के समर्थन में वेदों के प्रमाण तक गढ़ डाले तथा सही अर्थों को समझे बिना इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में उन्हें जबरदस्ती शामिल करवा दिया। निष्कर्ष यही निकलता है कि गाय की रक्षा हर कीमत पर होनी चाहिए। भारत की अर्थव्यवस्था, सामाजिक चिन्तन तथा संस्कृति का विकास इसके बिना संभव नहीं है। गौहत्या रोकने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा कठोर कानून बनाया जाना चाहिए। इस कानून के उल्लंघन पर उत्तरदायी व्यक्ति तथा अधिकारी को कठोर सजा दी जानी चाहिए। गौहत्या को नर हत्या ही नहीं, बल्कि देश की हत्या माना चाहिए।
आरोग्य सम्पदा मासिक पत्रिका माह अक्टूबर 2014 में डाॅ. सतीश चन्द्र मित्तल जी द्वारा लिखित आलेख से साभार