इन दिनों बच्चों की परीक्षा हो रही है, जिसके कारण घर में एक अधोषित कर्फ्यू लगा हुआ है। बच्चे खेल-खिलौने, टी.वी., कम्प्यूटर, मोबाईल और संगी-साथियों से दूर संभावित प्रश्नों को कंठस्थ करने में लगे हुए हैं। ये दिन उनके लिए परीक्षा-देवी को मनाने के लिए अनुष्ठान करने के दिन हैं। परीक्षा रूपी भूत ने उनके साथ ही पूरे घर भर की रातों की नींद और दिन का चैन हर लिया है। बच्चों को रट्टा लगाते देख अपने बचपन के दिन याद आने लगे हैं, जब हम भी खूब रट्टा मारते तो, हमारे गुरूजी कहने लगते- “रटंती विद्या घटंती पानी, रट्टी विद्या कभी न आनी।“ लेकिन तब इतनी समझ कहाँ? दिमाग में तो बस एक ही बात घुसी रहती कि कैसे भी करके जो भी गलत-सलत मिले, उसे देवता समझकर पूज लो, विष को भी अमृत समझकर पी लो और पवनसुत हनुमान की भाँति एक ही उड़ान में परीक्षा रूपी समुद्र लांघ लो। परीक्षा करीब हों तो न चाहते हुए भी तनाव शुरू हो जाता है। जब हम कॉलेज में पढ़ते तो मेरी एक सहेली अक्सर कहती- यार आम के पेड़ों पर बौर देखकर मुझे बड़ा टेंशन होने लगता है क्योंकि इससे पता चलता है परीक्षा आने वाली है।
घर में परीक्षा का भूत सबको डरा रहा है। बच्चे परीक्षा के भूत को भगाने के लिए दिन-रात घोटे लगाने में लगे हुए हैं, लेकिन परीक्षा का भूत है कि जाता ही नहीं! उनके मन-मस्तिष्क में कई सवाल आकर उन्हें जब-तब आशंकित किए जा रहे हैं। यदि कंठस्थ किए प्रश्न नहीं आए तो? प्रश्न पत्र की शैली में परिवर्तन कर दिया तो? यदि प्रश्न पाठ्यक्रम से बाहर से पूछ लिए तो? यदि कठिन और लम्बे-लम्बे प्रश्न पूछ लिए तो?
जानती हूँ बच्चों को समझाना दुनिया का सबसे कठिन काम है, फिर भी समझा-बुझा रही हूँ कि आत्मविश्वास बनाए रखना। जो कुछ पढ़ा है, समझा है, कंठस्थ किया है, उस पर भरोसा करना। परीक्षा देने से पहले मन को शांत रखना। परीक्षा देने से पहले पढ़ने के लिए न कोई किताब-कापी साथ नहीं ले जाना और नहीं कहीं से पढ़ने-देखने की कोशिश करना। उन प्रश्नों पर चिन्ह लगाना जिन्हें कर सकते हो और जो प्रश्न सबसे अच्छा लिख सकते हो, उन्हें सबसे पहले करना। जो प्रश्न बहुत कठिन लगे उसे सबसे बाद में सोच-विचार कर जो समझ में आता हो, उसे लिखना। हर तरह से प्रत्येक परीक्षा के दिन समझाने की माथा-पच्ची करती हूँ, लेकिन बच्चे यह कहते हवा निकाल देते हैं कि प्रश्न पत्र देखते ही उन्हें यह सब भाषणबाजी याद नहीं रहती? अब उन्हें कैसे समझायें कि यह सब भाषणबाजी नहीं है!
बच्चों की परीक्षा जल्दी से खत्म हो, इसका मुझे ही नहीं बल्कि बच्चों के प्यारे राॅकी को भी बेसब्री से इंतजार है। जब से परीक्षा के दिन आये हैं, बच्चों के साथ उसका खेलना-कूदना क्या छूटा कि वह बेचारा उछलना-कूदना भूलकर मायूस नजरों से टुकुर-टुकुर माजरे को समझने की कोशिश में लगा रहता है।
बच्चों को पढ़ाने का काम बोझिल जरूर लगता है, लेकिन यदि उनके रंग में रम जाओ तो कभी-कभी रोचक प्रसंग देखकर मन गुदगुदा उठता है। ऐसा ही एक प्रसंग मुझे मेरे बेटे जो कि चौथी कक्षा की परीक्षा दे रहा है, देखने को मिला। मैं जब उसकी हिन्दी विषय की कॉपी देख रही थी तो मुझे उसमें उसके द्वारा लिखे मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग देखकर बहुत हँसी आई, जिसे देखकर वह नाराज होकर रोने लगा कि शायद उसने गलत लिखा है। बहुत समझाने के बाद कि उसने बहुत अच्छा लिखा है, चुप हुआ। आप भी पढ़िए आपको भी मेरी तरह जरूर हँसी आएगी।
...कविता रावत
25 टिप्पणियां:
:) वाकई माथा ठनका .....
गंभीर विमर्श में हास्य का तड़का वो भी एकदम खरा :)
सब काम एक तरफ और बच्चों को पढ़ना एक तरफ ..बहुत कठिन हैं पढ़ना-समझाना आजकल के बच्चों को ..
बच्चा बड़ा होशियार है ...रोचक मुहावरों का प्रयोग
बहुत सुन्दर ..
अरे बाप रे परीक्षा ......अपने को तो आज भी परीक्षा का नाम सुनकर ही बुखार आने को होता है .......बच्चों को पढ़ना अपने बस की बात नहीं ....बड़ी माथा पच्ची है आजकल .... बेटा तो बड़ा ही होशियार और होनहार जान पड़ता है ............
आज आप के ब्लॉग पर पोस्ट पढ़ कर अपने बचपन के दिनों को याद कर रहा हूँ ............“रटंती विद्या घटंती पानी, रट्टी विद्या कभी न आनी।“.....बार बार यही दोहराते थे हमारे गुरु जी
बहुत बढ़िया
बिल्कुल सही बात ..:)))
डब्बे में रोटी पड़े देखकर मेरा माथा ठनक गया. .........बहुत अच्छे ...मुझे भी रोटी की जगह पूड़ी ज्यादा पसंद आती थी इसी कारण कभी कभी रोटी टिफिन में वापस घर लेकर आता तो बहुत डाँट खानी पड़ती .......मासूम यादें बचपन की याद आ रही है हौले हौले से ............
बच्चों को रटते हुए देखना ऋग्वेदी वेदपाठी ब्राह्मणों की दिलाता है.... माँ-बाप की बड़ी रशाकशी है ये परीक्षा...
परीक्षा ही जीवन को साधती रहती है।
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १२५० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " ब्लॉग बचाओ - ब्लॉग पढाओ: साढे बारह सौवीं ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपने बिल्कुल ठीक कहा कि परीक्षा का भूत सिर चढ़ कर बोलता है। बच्चे घबराए घबराए से रहते हैं। पर हमें उनकी हिम्मत बढ़ाते रहना चाहिए। घर के बड़ों का साथ पाकर बच्चे हर परीक्षा उर्तीर्णं कर सकते हैं।
वाकई गजब का भूत है परीक्षा ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर तनाव भरा महीना { चर्चा - 2270 } में दिया जाएगा
धन्यवाद
कुछ बच्चे सबसे ज्यादा तब घबराते है जब वह परीक्षा देकर परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते है कही कोई कुछ पूछ न दे, ये घबराहट उस समय बच्चो के चहेरे पर साफ देखी जा सकती है... बाकी परीक्षा का भूत सर चढ कर बोलता है और हाँ खास तौर से परीक्षा के पहले दिन...
कविता जी, आजकल परिक्षा बच्चों की कहां होती है, असली परिक्षा तो उनके मम्मियों की होती है। मुहावरे का प्रयोग अच्छा लगा!
सच में मजा आ गया ... गंभीर काम को भी हास्य के पुट के साथ ....
ये सच है आजकल कर्फ्यू जैसा माहोल है हर उस घर में जहाँ बच्चों की परीक्षाएं चल रही हैं ... बच्चों के साथ साथ अभिभावकों की भी परीक्षा चल रही है जैसे ....
very nice: whatsapp awesome
A very good article presented in interesting way. Thanks Kavitajee.
बाह्यत ही अच्छा विषय आकर्षक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
हा हा हा... पिकाचु के बिजली के झटके से पिंजि को नानी याद आ गयी। बहुत सुन्दर।
वाह ! बहुत खूब !
बिल्कुल ठीक कहा
हाहाहाहाहा बचपन के दिन ताजा हो गए।
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कविता जी बच्चो के साथ साथ पूरे घर का माहोल बदल जाता है लगता है सबके पेपर चल रहे हैं । बहुत बढ़िया ।
परिक्षा का भूत वाकई सर पे चढ कर बोलता है। मुझे कोयल की बोली सुन कर परीक्षा का डर सताने लगता था। आज भी कोयल जब शुरु शरु में बोलना चालू करती है तो एक घबराहट सी होने लगती है तब अपने आपको विश्वास दिलाना पडता है कि हमारे परीक्षा देने के दिन लद गये।
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