हमारा देश लगभग 1000 वर्ष तक विदेशियों का गुलाम रहा है। भारत को गुलाम बनाने में विदेशियों से कहीं अधिक भारतीय लोगों का भी हाथ रहा। हमारे एक मित्र ने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था- “यह देश है वीर गद्दारों का“ इस देश के वीरों ने पराक्रम कम और परिक्रमा के द्वारा सभी कुछ प्राप्त कर लिया और हमारे ऊपर, विदेशियों से हाथ मिलाकर शासन करते रहे और हमें गुलाम बनाकर रखे रहे। जब हम स्वतंत्र होने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे, सुविधा भोगी भारतीय लोग हमारे ऊपर शासन तथा हमें गुलाम बनाये रखने के लिए भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की परिक्रमा करने लगे और मुखौटा बदल कर इस ओर हो लिए। वैसे तो हमारा संविधान ही अंग्रेजी के संविधान की नकल और उनके हस्तक्षेप के नीचे बना है और देश के वीर गद्दार लोग, भाषा के मामले में भी दबाव बनाने लगे कि भारत की राजभाषा अंग्रेजी बने, किन्तु महात्मा गांधी और उनके जैसे अनेक राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत नेताओं ने इसका तीव्र विरोध किया और भारतीय भाषा विशेषकर हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा/राजभाषा बनाने की वकालत की। जब संविधान बनने लगा तो अंग्रेजी परस्तों ने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत् अहिन्दी भाषियों को उकसाया व दावेदारी खड़ी करवा दी। किन्तु संविधान सभा के अध्यक्ष डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने तीन अहिन्दी भाषी संविधान सभा के सदस्यों की समिति बनाकर राजभाषा सम्बन्धी सुझाओं और उन्हीं के प्रयासों और विचारों को महत्ता देकर संविधान के अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक के राजभाषा खण्ड को सर्वसम्मति से पारित कराया, जिसमें अनुच्छेद 343(1) के अनुसार देवनागरी में लिखी हिन्दी को भारत संघ की राजभाषा एवं अनुच्छेद 345 के अनुसार भारत की प्रादेशिक भाषाओं को भी प्रदेशों की राजभाषा बनाने की व्यवस्था की गई।
हमारे संविधान निर्माताओं एवं राजभाषा समिति के अहिन्दी भाषी सदस्यों ने बड़ी सूझ-बूझ एवं ईमानदारी से तत्कालीन परिस्थितियों से ताल-मेल/समन्वय कर जो व्यवस्था प्रस्तुत की, उसकी सराहना ही की जानी चाहिए। किन्तु भारतीय अंग्रेजी परस्तों को चैन नहीं था और वे दक्षिण भारतीयों के नेताओं को उकसा कर और पं. जवाहर लाल नेहरू को उल्टा सीधा पढ़ाकर अहिन्दी भाषियों के हितों के नाम पर वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम में देश में कुछ कार्यों के लिए द्विभाषिक स्थिति (अंग्रेजी परस्ती को बढ़ावा) और पुनः आन्दोलन करवा कर वर्ष 1967 में अधिनियम में संशोधन कर धारा 3 में एक उपधारा 5 जोड़कर पुनः कुछ कार्यों के लिए अंग्रेजी के काम काज को जारी रखने की व्यवस्था (अंग्रेजी परस्तों को बढ़ावा) करवा लिया। सच तो यह है कि यह सब कुछ हिन्दी भाषी/उत्तर भारतीय अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजी परस्तों के द्वारा कुचक्र रचा गया था। इस व्यवस्था से देश के अहिन्दी भाषा-भाषियों को कोई लाभ नहीं दिया गया और आगे भी अंग्रेजी परस्त अहिन्दी भाषियों के नाम की आड़ में सारा कुचक्र चला रहे हैं और देश पर जबरदस्ती गैर कानूनी तरीके से अंगे्रजी को लादकर देश की सामान्य जनता को लूट व ठग रहे हैं, जिसका बहुत लम्बा चौड़ा इतिहास है। अभी हाल ही में इन अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजी परस्तों ने वर्ष 2011 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुपके से सी-सेट लागू कर 22.5 अंकों की अंग्रेजी को, प्रतिभागियों पर लाद दिया, ताकि हिन्दी तथा अन्य भाषा-भाषी पीछे चले जाये। वर्ष 2013 में तो इन लोगों ने 100 अंकों का एक और अंग्रेजी का पर्चा थोप दिया, जिसके अंक मेरिट में जुड़ना था, किन्तु संसद में तीव्र विरोध के कारण अंग्रेजी परस्त सरकार को अध्यादेश वापस लेना पड़ा था।
इस संबंध में मुझे एक कहानी याद आ रही है कि काफी समय पहले भारत का एक पहलवान इंग्लैण्ड गया और उसने घोषणा किया और प्रसारित किया कि यहां को कोई पहलवान हमसे कुश्ती लड़ सकता है। यह बात जब इंग्लैण्ड के पहलवानों को पता चली तो वे आपस में जुटकर विचार किये कि कुश्ती में भारत के पहलवान को हराने की क्षमता किसी में नहीं है, लेकिन कुछ तिकड़म करके उसे परास्त किया जा सकता है। इंग्लैण्ड के पहलवान, वेट लिफ्टिंग (भार उठाने) में माहिर थे। उन लोगों ने भारत के पहलवान के सामने शर्त रखी कि यदि आप इस 10 मन (लगभग 400 किलो बराबर) की नाल उठा लेंगे तो, तभी हम लोग आपसे कुश्ती लड़ेंगे। भारत का पहलवान चालाक था। दूसरे दिन जब वह अखाड़े में गया तो उसने इंग्लैण्ड से पहलवानों से कहा कि जो पहलवान इसको उठाते हैं, उनसे कहिए कि वे उसे उठाकर दिखायें। इंग्लैण्ड का पहलवान चूंकि 10 मन की नाल (भार) उठाने में अभ्यस्त था, तुरन्त मिनट भर में उसे उठा लिया। ठीक उसी समय भारत के पहलवान ने फुर्ती के साथ नाल उठाने वाले पहलवान के पीछे से पैरों के बीच एक हाथ डालकर और एक हाथ गर्दन में डालकर उस पहलवान को उठा लिया, क्योंकि वह 10 मन से अधिक वहन के पहलवानों को उठाने का अभ्यस्त था। फिर इसके बाद इंग्लैण्ड के पहलवानों ने उसके समक्ष हार मान ली। इसी तरह देश का उच्च सरकारी तंत्र/अभिजात्य वर्ग इसी प्रकार से अंग्रेजी की दीवाल खड़ी कर देश की सामान्य जनता के युवाओं को परास्त करने की जुगत/कुचक्र रचता रहता है। अतः इस देश की सामान्य जनता, गरीब तथा पिछड़े वर्गों के युवाों को भाषा, विशेष कर देश की राजभाषा की स्थिति को जानना चाहिए और उसे प्रतिष्ठापित कराने के लिए संघर्ष करना चाहिए, ताकि इस देश में सामाजिक आर्थिक न्याय व जनतांत्रिक व्यवस्थाएं पुष्पित व पल्लवित होती रहें। यह भी ध्यान में रखना होगा कि वर्ष 2011 में जारी संघ लोग सेवा आयोग का आदेश अभी लागू है, जिसके लिए संघर्ष करने की जरूरत है।
अंग्रेजी परस्तों का आतंक जारी है। नई सरकार कुछ हिन्दी के लिए करना तो चाहती है किन्तु सरकारी अमला देश की वर्तमान सरकार की राजभाषा नीति को विफल करने के लिए तमाम कुचक्र चला रहे हैं।
- जगदीश नारायण राय
14 टिप्पणियां:
कुचक्र तो क्रमोतर जारी है।
जय हिंदी, जय हिन्द
ये कुचक्र जारी रहेगा जब तक जनता इसको जन आन्दोलन नहीं बनाएगी ... मीडिया में ही देख लो ... अंग्रेजी मीडिया ज्यादा छाया हुआ है ... उनकी कोटरी मीडिया की दिशा तय करती है ...
आपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 05/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 263 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
साजिशें जारी हैं ...अगर साजिशें न होती तो १००० वर्ष तक देश गुलाब न रहता ........
अंग्रेजी परस्तों का आतंक जारी है। नई सरकार कुछ हिन्दी के लिए करना तो चाहती है किन्तु सरकारी अमला देश की वर्तमान सरकार की राजभाषा नीति को विफल करने के लिए तमाम कुचक्र चला रहे हैं।
सरकार ही तो गम्भीर नहीं हो पाती
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इंग्लिश के पीछे भाग उठे, हिंदी जिनकी निज माता है।
जिसके बेटों की बुद्धि फिरी, उस माँ को चैन न आता है।
संघर्ष जारी रहे ।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " कंजूस की मेहमान नवाज़ी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
अंग्रेजो ने अपनी जड़े कितनी गहरी कर दी कि आज भारतीय चाहे वह कितना भी पढा लिखा क्यों न हो तब तक पढा लिखा नहीं है जबतक वह अंग्रेजी नही जानता हो । क्या जब हिन्दुस्तान में अंग्रेजी नहीं थी उस समय हिन्दुस्तान ने तरक्की नहीं की, इतिहास इस बात का गवाह है कि व्यापार करने के लिए अंग्रेजों ने कैसे स्थल एवं समुद्र मार्गो से देष में संपर्क साधा । तब भारत कितना समृद्व रहा होगा यह उन खोजकर्ताओं के द्वारा लिखी किताबों से समझा जा सकता है । आवष्यकता आविष्कार की जननी है, आज हम देखते हैं कि एक अनपढ और साक्षर व्यक्ति तक भी अत्याधुनिक तकनीक से बने स्मार्टफोन का सरलता से संचालन कर देता है जिसे आज के इंजीनियरिंग पढने वाले बच्चों के पढाया जाता है ।
एक अनपढ भी बुद्विमान हो सकता है पढा लिखा ही बुद्विमान नहीं होता इसकी कोई गारंटी नहीं है । कबीर, तुलसी, कालीदास जैसे कवि ज्यादा पढे लिखे नहीं थे या अनपढ थे । उसके लिखे ग्रंथों पर आज कई षिक्षकों की आजीविका चल रही है और कई छत्र शोध कार्य भी कर चुके हैं । जिन देषों भाषा अंग्रेजी नहीं है क्या वे पिछड़े हुए हैं । धीरूभाई अंबानी ने क्या एम0बी0ए0 की डिग्री ली थी ।
Bahut badiya ma'm. I love my India. Bahut achha likha hai apne.
अतिसुन्दर ! नयी पीढ़ी की मानसिकता में बदलाव लाना आवश्यक है।
अंग्रेजी भाषा सीखने मैं कोई खराबी नहीं है. जब कुएं के मेंढक कुएं से बहार निकलते हैं तो उनको पता चलता है की बाहरी दुनिया के लोगों को उनकी भाषा की कोई ज़रुरत नहीं है.
हिंदी को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजी को निशाना बनाने की ज़रुरत नहीं है. अगर हिंदी ( या दुनिया की कोई भी भाषा) मैं दम है तो उसको उसके स्थान से कोई नहीं हिला सकता. समय के साथ चलिए और उस भाषा को सीखिये जिसका पूरी दुनिया मैं उपियोग होता है. बदला अच्छा है. उसे गले लागिये. वर्ण आपका हश्र भी उन संस्कृत बोलने वालो की तरह होगा जो आजकल अपनी पसंदीदा भाषा को सिर्फ किताबों की गलियों मैं पाते हैं.
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