गाँव में शादी-ब्याह की रंगत - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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सोमवार, 13 जून 2016

गाँव में शादी-ब्याह की रंगत

दो चार दिन ही सही लेकिन जब भी शहर की दौड़-भाग भरी जिन्दगी से दूर पहाड़ी हरे-भरे पेड़-पौधों, गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी बलखाती पगडंडियों, खेत-खलियानों, मिट्टी-पत्थरों से बने घरों के बीच गाँव की सरल, सौम्य मिलनसार लोगों से मिलती हूँ तो मन खुशी से झूम तरोताजगी से भर उठता है।
गर्मियों में जब बच्चों की स्कूल की छुट्टियाँ होती हैं, तब मेरी तरह ही भले ही दो-चार दिन के लिए ही सही लेकिन हर प्रवासी की प्राथमिकता मेरे पहाड़ के गाँव ही होते हैं। गर्मियों में पहाड़ के गाँव बहुत याद आते हैं। हम प्रवासी पंछियों को शहर में आग उगलते सूरज से घबराकर पहाड़ों की गोद में बड़ा सुकून मिलता है। शहरी भीड़-भाड़ से उकताया मन पहाड़ का नाम सुनते ही शांति और ठण्डक से भर उठता है।
पहाड़ों के नैसर्गिक सौन्दर्य का अनुभव किसी के सुनाने-सुनने से नहीं अपितु वास्तविक आनन्द तो वहाँ पहुंचने पर ही मिलता है। पहाड़ों की बात निकले और उसमें हमारे उत्तराखंड का जिक्र न हो, ऐसे कैसे हो सकता है। यहाँ जब भी कोई सैलानी आता है, उसे यहाँ के मंदिर, मठ, साधु-संतों से ही नहीं अपितु सदियों से किसी संत की तरह तपस्या में लीन पहाड़ों को देखकर इसके देवभूमि कहे जाने का आशय स्वयं ही समझ में आ जाता है।      
अभी हाल ही में अपने एक रिश्तेदार की लड़की के विवाह समारोह में सम्मिलित होकर गाँव की कई खट्टी-मीठी यादें लेकर लौटी हूँ। प्रायः गर्मियों के दिनों में मेरी तरह ही जब अधिकांश प्रवासी गर्मी से राहत पाने, अपने घर-द्वार की सुध लेने, शादी-ब्याह या पूजन आदि समारोह में सम्मिलित होने के लिए गांव की ओर कूच करते हैं, तो हम प्रवासियों की तरह उजाड़ होते गाँवों की रौनक लौट आती है। शहर में घर-दफ्तर की चार-दीवारी से बाहर जब भी गाँव की खुली हवा में एक अलग दुनिया देखने, नाच-गाने, हंसी-मजाक एवं मेलमिलाप कर मौज-मस्ती का सुनहरा अवसर मिलता है, तो इसके लिए मैं बहुत ज्यादा सोच-विचार न करते हुए अपने पहाड़ के गाँव की ओर निकल पड़ती हूँ।           
गर्मियों के दिनों में गांव में शादी-ब्याह की खूब चहल-पहल रहती है। कई लोग तो बकायदा शहर से गाँव शादी करने जाते हैं। वे बखूबी जानते हैं कि गाँव में शादी कराने के फायदे ही फायदे  हैं। एक तो शादी-ब्याह का खर्चा भी कम होता है ऊपर से नाते-रिश्तेदारों से मिलने-जुलने के साथ ही शहर की गर्मी से कुछ दिन दूर पहाड़ की ठंडी-ठंडी हवा-पानी और अपनी जड़ों से मिलने का सुनहरा अवसर भी हाथ लग जाता है। इसके अलावा शादी में दिखावा से दूर अपनों का छोटी-छोटी खुशियों में घुल-मिल जाने का हुनर मन को बड़ा सुकून पहुंचाता है। यही बात  है कि मुझे आज भी शहर की चकाचौंध भरी शादी-समारोह के बजाय गांव की सादगी भरी शादियाँ बहुत भली लगती हैं। गांव की शादी में सबके चेहरे पर जो रौनक देखने को मिलती है, वह शहर की चकाचौंध भरी शादी-समारोह के ताम-झाम से हैरान-परेशान लोगों के चेहरों पर कहीं नज़र नहीं आती है।

हम शहर की बारात में कुछ देर के लिए भले ही बम-फटाखों और कनफोडू डीजे की धक-धक पर एक-दूसरे को देख-देख कितना भी उछल-कूद कर लें, लेकिन जो बात गांव की बारात में देखने को मिलती है, वह शहर से कोसों दूर हैं। गाँव की बारात में जब  ढोल-दमाऊ और बैंड-बाजे के साथ पहाड़ी धुन पर गाने बजते हैं तो फिर जो सुरीली झंकार घर-आंगन से लेकर सुदूर घाटियों तक गूंज उठती है, वह और कहीं सुनने-देखने को नहीं मिल पाती है। 
गाँव की एक झलक भर देखने से बचपन के दिनों की ढेर सारी यादें एक-एक कर ताजी हो उठती हैं।  बचपन में जब कभी किसी की शादी-ब्याह का न्यौता मिलता तो मन खुशी के मारे उछल पड़ता, लगता जैसे कोई शाही भोज का न्यौता दे गया हो। तब आज की तरह रंग-बिरंगे शादी के कार्ड बांटने का चलन नहीं था।
मौखिक रूप से ही घर-घर जाकर बड़े विनम्र आग्रह से न्यौता दिया जाता था। जैसे ही घर को न्यौता मिलता बाल मन में खुशी के मारे हिलोरें उठने लगती। नए-नए कपड़े पहनने को मिलेंगे, खूब नाच-गाना होगा और साथ ही अच्छा खाने-पीने को भी मिलेगा। यही सब ख्याल मन में उमड़ते-घुमड़ते। किसकी-किससे शादी होगी, कहाँ होगी, उसमें कौन बराती, कौन घराती होगा, सिर्फ खाना-पीना, नाचना-गाना ही चलेगा या कुछ लेना-देना भी पड़ेगा, किससे कैसा बात-व्यवहार निभाना पड़ेगा, इन तमाम बातों से कोसों दूर हम बच्चों को तो केवल अपनी मस्ती और धूम-धमाल मचाने से मतलब रहता। उस समय शादी में बैण्ड बाजे की जगह ढोल-दमाऊ, मुसक बाजा, रणसिंघा (तुरी) और नगाड़े की ताल व स्वरों पर सरांव (ऐसे 2 या 4 नर्तक जो एक हाथ में ढ़ाल और दूसरे में तलवार लिए विभिन्न मुद्राओं में मनमोहक नृत्य पेश करते हैं) बारात के आगे-आगे नृत्य करते हुए गांव के चौपाल तक जब पहुंचते थे तब वहां नृत्य का जो समा बंध जाता था, उसे देखने आस-पास के गांव वाले भी सब काम धाम छोड़ सरपट दौड़े चले आते थे।
हम बच्चे तो घंटों तक उनके समानांतर अपनी धमा-चौकड़ी मचाते हुए अपनी मस्ती में  डूबे नाचते-गाते रहते। घराती और बारातियों को खाने-पीने से ज्यादा शौक नाच-गाने का रहता। उन्हें खाने की चिन्ता हो न हो लेकिन हम बच्चों के पेट में तो जल्दी ही उछल-कूद मचाने से चूहे कूदने लगते, इसलिए जैसे ही खाने की पुकार होती हम फ़ौरन अपनी-अपनी पत्तल संभाल कर पंगत में बैठ जाते और बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार करने लगते। पत्तल में गरमा-गरम दाल-भात परोसते ही हम उस पर भूखे बाघ के तरह टूट पड़ते। तब हंसी-मजाक और अपनेपन से परोसे जाने वाला वह दाल-भात आज की धक्का-मुक्की के बीच छप्पन प्रकार के व्यंजनों से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट लगता था। 
......कविता रावत