एक छोटे से गांव खेतासर में हेमला जाट रहता था। उसके घर में दूध, पूत, धन, धान्य सभी था। सभी तरह से उसकी जिन्दगी सुखपूर्वक कट रही थी। उसकी अपनी प्रिय पत्नी से हमेशा प्रेमपूर्वक खूब पटती थी। वह हमेशा अपने बाल-बच्चों और नाती-पोतों से घिरा रहता था। सब कुछ होते हुए भी एक कसर बाकी थी कि वह अनपढ़-अज्ञानी ‘काला अच्छर भैंस बराबर’ था। एक बार अचानक उसकी घरवाली बीमार पड़ी और उसने खाट पकड़ ली। जाट पर इस बार भारी विपत्ति टूट पड़ी। उसने खूब दौड़-धूप की, किन्तु कोई चारा न चला, किसी देवता ने भी कोई सहारा न दिया। अंततः उसकी प्रिय पत्नी उसे छोड़ चल बसी। यह देख वह फूट-फूट कर रोने लगा। उसका रोना सुनकर आस-पड़ौसी आए और उसे ढ़ांढ़स देने लगे, लेकिन हेमला की समझ में कुछ नहीं आया। उसने एक रट पकड़ ली कि वह भी सन्तो की मां के संग सत्ता होगा। उसकी ऐसी बात सुन सभी लोग आश्चर्यचकित हुए और उसे समझाने लगे- ‘क्यों व्यर्थ ही बक रहा है, रहने दे रहने, पति संग पत्नी को सती होते तो सुना है हमने, लेकिन कभी यह नहीं सुना कि पत्नी संग कोई पति सत्ता हुआ हो।’ लोगों ने उसे बहुत समझाया लेकिन वह अपनी बात पर अड़ा रहा। वह लोगों से कहता अगर उसे किसी ने रोका तो उसे सत्ता का शाप लगेगा। उसके ऐसे बोल सुन लोग सोच विचारने लगे कि यदि वह अपने प्राण गंवाता है तो गवाएं, हम उसके शाप के भागीदार क्यों बने। विवश होकर सभी लोगों ने शव यात्रा की तैयारी की और चुपचाप श्मशान की ओर चलने में ही भला समझा। शव यात्रा में हेमला हाथ में श्रीफल लेकर संसार से हमेशा नाता त्यागने की प्रबल इच्छा से ’हर-हर’ कहता हुए आगे-आगे चलने लगा तो यह देख स्त्रियाँ मुक्तकंठ से उसकी प्रशंसा करने लगी, कहती- 'अद्भुत पत्नी प्रेम है हेमला का, धन्य है हेमला की पत्नी जिसे ऐसा पति मिला जो उसके साथ सत्ता होने जा रहा है।’ जब हेमला ने अपनी प्रशंसा सुनी तो उसका उत्साह चरम सीमा पर पहुंच गया। वह श्मशान घाट पहुंचने तक जोर-जोर से हर-हर की रट लगाता आया। श्मशान ताल से कुछ दूरी पर था, जहां कुछ ही दूरी पर पीलू का एक घना पेड़ था, उसी के पास चिता सजाई गई। एक बार फिर अंतिम बार बड़े बुजुर्गों ने हेमला को समझाना चाहा किन्तु सब व्यर्थ गया, वह न माना और सूर्य की ओर हाथ जोड़कर उछलकर हर-हर कहता हुए चिता में जा बैठा। संध्याकाल का समय था। सूर्य छिपने वाला था। हेमला तब तक 'हर हर’ की रट लगाता रहा जब तक उसके शरीर को लकड़ियों से पूरी तरह ढ़क न लिया गया। पूरी लकड़ी लगाने के बाद हेमला की आज्ञा लेकर जब चिता पर आग लगाई गई तब काले धुंए के साथ कुछ ही क्षण बाद उससे धू-धू कर भयंकर लपटें निकलने लगी। तेज लपट लगने से हेमला का जब तन झुलसने लगा तो उसका ज्ञान-विराग और पत्नी राग जाता रहा। असहनीय पीड़ा ने उसे भगने पर मजबूर कर दिया। अकुलाकर वह झट से चिता से बाहर उस ओर कूदा जहांँ अंधकार के कारण किसी की नजर उस पर नहीं पड़ी। वह पीलू के पेड़ की आड़ में छिप गया।
आग की लपटों में जले-भुने हेमला के अंगों में भयंकर पीड़ा हो रही थी। वह व्याकुल, व्यथित, विहाल, रात भर सिसकता रहा। बड़े सवेरे उठकर घिसटता जब उसने गूलर खाकर पानी पिया तो उसे कुछ राहत मिली। गांववालों के जागने से पहले वह यह सब काम करके वापस पीलू के पेड़ की आड़ में छिप गया। वह सोचता रहा कि इतने कष्ट सहते हुए वह कब तक यहां छिपा पड़ा रहेगा। एक पल को उसने सोच विचार कर गांव जाकर अपना सच्चा हाल सुनाने का मन बनाया लेकिन दूसरे पल ही सोचने लगा कि वह किस मुंह बेशरम बनकर गांव लौटेगा, लाखों लानतें देंगे लोग। उससे यह बात हरगिज नहीं होगी। वह जीते-जी गांव नहीं जा सकता। इससे अच्छा तो वह जंगम-जोगी बनकर परदेश चला जाय। अगर वह गांव जायेगा तो शरम के मारे मर जायेगा। ऐसी बात मन में सोचकर हेमला उदास होने लगा और मरघट वासी बन गया। उसी जगह वह कभी बीन-बीन कर गूलर खाता कभी छिप-छिपाते बकरियां पकड़ उनका दूध लगाकर पी जाता। यूं ही छिपते-छिपते बारह दिन हो गये। उसके जलने के घाव भी अच्छे हो गये। तेरहवीं के दिन उसे याद आई कि आज तो उसके घर में खूब मालपुए, पूड़ी-साग बना होगा, लेकिन क्या करें अब कोई उसके लिए पीलू के पेड़ के नीचे तो पत्तल परोस के नहीं लाने वाला है, इसलिए वह मन मसोसकर रह गया।

"था पूरा पच्चीस हाथ, काला काला-सा,
बड़े बड़े थे दांत, हाथ में था भाला सा।।
’दुडू-दुडू़’ कह, कूद सामने आ ललकारा;
बोली से पहचान लिया, था बाप तुम्हारा।
मारी पटक, पछाड़ हाय रे! नाइन मारी,
भाग बचा मैं, भाग न पाई वह बेचारी।
अरे चलो झट, हाय! मार ही डाली होगी;
पड़ी धूल में देह प्राण से खाली होगी।"
इस प्रकार विकल, विलपता नाई मन ही मन और भी दुःखी हुआ कि उसकी दिल्लगी उसे भारी पड़ गई। यों रात को हल्ला-गुल्ला सुन पूरे गांव के लोग हेमला के घर इकट्ठा हुए और वहीं सबने रात बितायी। सुबह-सुबह मौके पर पहुंचे तो नाइन को मृत देख सभी डरे, चौंके और चकराये। उन्हें पूर्ण विश्वास हो चला कि यह काम हेमला भूत का ही है। जल्दी से लोगों ने नाइन की वहीं चिता बनाई और नाई को ढ़ांढ़स देकर क्रियाकर्म की विधि पूरी करवाई। यों ही श्मशान में बहुत देर तक लोग बातें करते रहे, लेकिन मालपुओं की किसी को याद नहीं आई।
दिन चढ़ते ही पूरे गांव में हेमला की चर्चा जोर-शोर से होने लगी। कोई कहता हेमला का अत्याचारी भूत प्रकट हुआ है, जिसने राह चलते रात को नाइन को मार दिया है। कोई कहता रात-विरात भूलकर भी उस राह नहीं जाना। हेमला बहुत बड़ा भूत है। कब किसको खा जाय कोई नहीं जानता। इन सब बातों से बेखबर हेमला मरघट में छिपा रहा। मालपुए खाकर उसका मन तृप्त हुआ तो उसे आत्मग्लानि हुई,सोचने लगा- ’हाय हेमला! यह तूने क्या किया एक निरपराधिनी को मार दिया, उसने तेरा क्या बिगाड़ा था। बहुत बुरा है हमेशा भूत-भड़ंग बनकर मरघट में छिपे रहना। कब तक यूं दुःख सहता रहूंगा।’ यह सोचते-सोचते जैसे ही हेमला पेड़ की आड़ से बाहर आया तो उसने कुछ दूरी पर मुखिया को अकेला खड़ा देखा तो मारे खुशी के उछल पड़ा। वह विचारने लगा कि अगर मुखिया के पास जाकर अपना हाल सुनाऊँ तो इस दुःखिया का बेड़ा पार हो जाय। फिर सोचता कहीं अगर वह मुझे देख डरकर भागने लगे तो जाकर एकदम से उनके पैर पकड़ लूंगा।’ यही सोच उसने दबे पांव, चुपचाप पीठ-पीछे से जाकर अचानक मुखिया के पैर पकड़ लिए। मुखिया 'कौन' कहकर चिल्लाया तो 'हेमला' का नाम सुना तो चिल्लाया- ’अरे दौड़ियो, हाय! मुझे सत्ता ने खाया।’ कहते हुए गिर पड़ा, जिसे देख हेमला बहुत घबराया। खेतों में कुछ दूरी पर लोग काम रहे थे, मुखिया के शब्द सुनकर लोगों ने उस ओर देखा तो उन्हें हेमला के बड़े-बड़े बाल, नंग-धड़ंग शरीर दिखाई दिया। दिन-दोपहरी में भूत देखकर लोग घबराकर अनहोनी की बात से भयाकुल होकर चिल्लाने लगे- ‘अरे, हेमला भूत खड़ा है ताल-किनारे; देखो, उसने पटक हाय! मुखिया जी मारे’ मुखिया को बेहोश देख मरघटिया हेमला भागा और अभागा पीलू के पेड़ की आड़ में छिपते हुए सोचने लगा- अरे, चला था अच्छा करने, किन्तु बुरा हो गया। अब क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता क्यों विधाता मुझसे खपा हो गये हैं। जाने क्या लिखा है मेरे कपाल में, भूतपने से मुक्ति दीखते नजर नहीं आ रही है। उधर गांव के लोग मुखिया को उठा लाये। उन्हें बेदम बुखार चढ़ा, दस्त लग गये। वे बेहोशी में चौंककर चीख पुकार मचाते- ’वह आया-अरे दौड़ियो, हाय! मुझे सत्ता ने खाया।’ रात भर यों ही मुखिया बेचारा पड़े रहे और सवेरे लोक छोड़ परलोक सिधार गए। जब मुखिया की चिता तैयार हुई तो सत्ता ने सोचा दो हो गए। जब से मुखिया मरा, हेमला की धाक जम गई। लोग रात क्या दिन में उस जीवित जमदूत, भूतों के ताऊ के इलाके में जाने से डरने लगे। मुखिया की तेरहवीं पर मालपुए और पूड़ी-साग की बात सोचकर उसके मुंह में पानी आया तो उसका मन विकल हो उठा। तन-मन में संग्राम मचा। जाय तो किधर जायें। तन पर मन की जीत हुई तो बुद्धि चलाई और इधर-उधर से जोड़कर लकड़ियां लेकर आग जलाई। वहीं चिता की आग के लिए लाई हुई काली-काली हांडिया दिखी तो उन्हीं में आग भरकर खुरापात करने गांव की ओर निकल पड़ा। गांव के नजदीक आते ही उसने एक हांडी से आग उछाली और भयंकर आवाज के साथ उसे जोर से पत्थर पर दे पटका तो ऐसा दृश्य देखकर गांव वाले भोजन की पत्तल छोड़कर भूत-भूत कर भागने लगे। उसने एक-एक कर भयंकर आवाज के साथ आग और हांडी से तमाशा किया, जिसे देख लोगों में भगदड़ मची तो मौका पाकर वह उछलता-कूदता उनके बीच गया और वहां पहुंचकर उसने कुछ को उछल-उछल कर दो-चार लाते जमाई और मालपुओं की डलिया लेकर भाग खड़ा हुआ। डरे-सहमे गांव वालों ने मिलकर जैसे-तैसे रात काटी और सवेरा होने पर गांव छोड़ने की ठान ली। अब वे बड़ा गांव रहेंगे। हद हो चुकी, कब तक त्रास सहेंगे। पापी हाथ धोकर पीछे पड़ गया है। भूत है कि यमदूत। कहीं नहीं सुना ऐसा। इसके मारे कोई काम नहीं कर पायेंगे, नाइन और मुखिया की तरह एक दिन सबको खा जायेगा। खेत भले ही बड़े हैं किन्तु प्राणों से प्यारे नहीं हैं। हमारी जमीन, धन, धान्य सभी बाद में हैं। सभी एकमत हुए कि गांव छोड़ने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। अपना-अपना सामान बैलगाड़ियों में लादकर सारे गांव वाले खेतासर खाली करके चल दिए। दुःखी मन राह सोचते कि इस पिचाश ने तो मां से मोह तोड़ा है और जन्मभूमि का वास छुडा दिया है।

निरंतर ......... (मुंशी अजमेरी ’प्रेम’ कृत हेमलासत्ता से अनूदित)