गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश ।
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय ।
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध ।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल ।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥
सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय ।
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय ।
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय ।
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय ।
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय ।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु ।
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है ।
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे ।
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं ।
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार ।
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास ।
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय ।
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध ।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल ।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥
सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय ।
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय ।
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय ।
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय ।
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय ।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु ।
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है ।
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे ।
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं ।
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार ।
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास ।
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥