किसी राष्ट्र की संस्कृति उस राष्ट्र की आत्मा है। राष्ट्र की जनता उस राष्ट्र का शरीर है। उस जनता की वाणी राष्ट्र की भाषा है। डाॅ. जानसन की धारणा है, ’भाषा विचार की पोषक है।’ भाषा सभ्यता और संस्कृति की वाहक है और उसका अंग भी। माँ के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के बीच जो मेल होना चाहिए वह अपनी भाषा द्वारा ही संभव है। विदेशी भाषा द्वारा संस्कार-रोपण असम्भव है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं कि, ’अपने देश, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से ही हो सकता है।’ महात्मा गांधी जी कहते हैं, ’अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त नहीं बन सकता। समाज का सुधार अपनी भाषा से ही हो सकता है। हमारे व्यवहार में सफलता और उत्कृष्टता भरी हमारी अपनी भाषा से ही आएगी।’ कविवर बल्लतोल कहते हैं, ’आपका मस्तक यदि अपनी भाषा के सामने भक्ति से झुक न जाए तो फिर वह कैसे उठ सकता है।’ अज्ञेय जी कहते हैं, ’किसी भी समाज को अनिवार्यतः अपनी भाषा में ही जीना होगा। नहीं तो उसकी अस्मिता कुण्ठित होगी ही होगी और उसमें आत्म-बहिष्कार के विचार प्रकट होंगे।’ कालरिज का कहना हैं, ’भाषा मानव-मस्तिष्क की वह प्रयोगशाला है, जिसमें अतीत ही सफलताओं के जय-स्मारक और भावी सफलताओं के लिए अस्त्र-शस्त्र एक सिक्के दो पहलुओं की तरह साथ रहते हैं।’ इसका अर्थ है कि भाषा के द्वारा ही प्राचीन गौरव अक्षुण्ण रहता है और उज्ज्वल भविष्य के बीज उसमें निहित रहते हैं। भारत के प्राचीन गौरव की महिमा को जीवित रखने के लिए विश्व में उसकी विजय-पताका फहराने के लिए हिन्दी की उन्नति अनिवार्य है।
राष्ट्रभाषा स्वतंत्र देश की संपत्ति होती है और हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, लेकिन अधिकांश देशवासी हिन्दी को महत्व न देकर अंग्रेजी के मोहपाश में फंसे हैं। संविधान की धारा 351 के अंतर्गत हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन सरकारी स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का महत्व अभी तक प्राप्त न हो सका है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ करने की अंतिम शर्त कि,'भारत का एक भी राज्य जब तक हिन्दी को नहीं चाहेगा, वह राज्यभाषा नहीं बन सकती’ गले की फांस बनी है। वस्तुतः यह शर्त हमारे नीति-नियंताओं द्वारा अनंतकाल तक अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने के लिए एक षड्यंत्र था, जिसे उन्होंने अंग्रेजों द्वारा ’फूट डालो, राज्य करो’ के सिद्धांत से सीखा, जिसे शासन-संचालन की अचूक औषधि समझा जाता है। भाषा के प्रश्न पर उत्तर-दक्षिण की बात खड़ी करके भारतीय समाज को विघटित कर दिया गया। हिन्दी कहने को राष्ट्रभाषा है, किन्तु प्रांतीय भाषाएं भी उसके इस अधिकार की अधिकारिणी बना दी गई है। अंग्रेजी साम्राज्य की देन अंग्रेजी आज भी प्रमुख भाषा बनकर भारत पर राज्य कर रही है। आज भी अच्छी नौकरी चाहिए या नौकरी में तरक्की या व्यापार को बढ़ाना हो या फिर ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों से काम निकलवाना हो, इन सभी के लिए अंग्रेजी बोलनी-लिखनी बहुत जरूरी है। आईसीए, पीसीए, पीएससी हो या यूपीएससी सभी प्रतियोगी परीक्षाओं का माध्यम अंग्रेजी है, यही उदरपूर्ति का साधन और उन्नति का माध्यम बना हुआ है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका और जापान दोनों को अपनी-अपनी भाषा पर गर्व है। ये अपनी-अपनी भाषा द्वारा राष्ट्र को यश प्रदान करने में गौरव अनुभव करते हैं। यही कारण है कि आज वैज्ञानिक दृष्टि से अमेरिका और औद्योगिक प्रगति की दृष्टि से जापान विश्व में सर्वोच्च शिखर पर आसीन हैं, किन्तु हमारी बिडम्बना देखिए हम आज भी अपनी राष्ट्रभाषा को वह सम्मान नहीं दे पाएं हैं, जिसकी वह अधिकारिणी है। आज इसके लिए हमें ऐसे चाणक्य चाहिए जो हिन्दी के विरुद्ध किए जाने वाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश करके, हिन्दी की पताका फहराने वालों की हिन्दी विरोधी नीति को उजागर करके जन-मानस में हिन्दी-संस्कार का अमृत पहुंचा सके। लोभ, लालच, ममता, स्वार्थ के कंकटों को हटाकर मार्ग में पुष्प बिखेर दे, ताकि माँ-भारती का रथ सरलता से चलकर भारत-भारती का भाल विश्व-प्रांगण में उन्नत कर सके। जब जनता और सत्ता दोनों मिलकर हिन्दी को सच्चे हृदय से अपनाएंगे, राजनीति का छल-छद्म से दूर रखेंगे तो निश्चित ही हिन्दी का विकास द्रुतगति से संभव हो सकेगा।
12 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 15 सितम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
संग्रह करने योग्य प्रस्तुति..धन्यवाद
बहुत सुन्दर और तथ्यपरक लेख ।
बहुत गहरी, अच्छी और हर किसी के मनन की बात लिखी है आपने ... पर देश के कर्णधार जो हर बात में राजनीति देखते हैं वो क्या इस बात को इतना सहज सोच पायेंगे ... क्या वो ऐसा कभी भी होने देंगे ... हिन्दी का गौरव देश के लोगों को ही दिलवाना होगा ...
राजनैतिक विभेद के कारण हिन्दी रूप से सतारूढ़ न हो सकी। यही विडम्बना है।
बहुत ही बदिआ लिखा है आप्नने
बहुत अच्छा लेख है।
अंग्रेज यहां से चले गए
अंग्रेजी उनकी नहीं गई
कितना अभागा देश हमारा
हिंदी इसकी चली गई।
बहुत सुंदर
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