क्या भरोसा है जिंदगानी का - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

क्या भरोसा है जिंदगानी का

कहते हैं अपना दुःख बाँट देने से मन हल्का हो जाता है. सुख बाँटने से दूना और दुःख बाँटने से आधा रह जाता है. यही मन में सोच अपने गाँव की अभी हाल ही की एक दुःखद वृतांत जिसने मेरे अंतर्मन तक को झिंझोड़ दिया, को ब्लॉग परिवार के साथ बाँटकर मन हल्का करने का प्रयास कर रही हूँ. गत वर्ष जहाँ बच्चों की गर्मियों की छुटियों में हम गाँव से सभी धार्मिक यात्रा में बद्रीनाथ से लगभग ४० किलोमीटर पहले जोशीमठ गए जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पहाड़, सड़कें मन को लुभा रहे थे, वहीँ अभी जून माह की दुःखप्रद यात्रा में गहन वेदना से भरी आँखों से वही पहाड़ और टेढ़ी- मेढ़ी सड़कें इतनी भयावह नज़र आई कि उनकी खूबसूरती वीरानगी में बदली दिखी. १३ जून को जब रात को ८:३० बजे गाँव से हमारे ९ निकट सम्बन्धियों की जिसमें मेरे ममेरा देवर भी शामिल था, जिनकी टाटा सूमो गहरी खाई में गिर जाने से दर्दनाक मौत की खबर मिली तो एकपल को लगा जैसे पाँव तले जमीं खिसक गयी, सहसा विश्वास ही नहीं हो हुआ. एक बीमार व्यक्ति को अस्पताल तक पहुँचाने से पहले ही एक साथ ९ लोग अपने परिवार और हम सबसे सदा-सदा के लिए दूर चले गए. पूरी रात दुःखी मन गाँव के और भागता जा रहा था और इतनी दूरी बहुत अखर रही थी कि इस समय हमें पीड़ित दुःखी परिवारों की बीच होना चाहिए था.
          दूसरे दिन सुबह भारी दुःखी मन से गाँव के लिये निकले, वहां पहुंचे तो सारा गाँव मातम में डूबा मिला. एक पल में किसी का बाप, भाई, बेटा, पति तो किसी का सगा सम्बन्धी सबसे दूर चला गया. शोक संतप्त परिवारों को सांत्वना देते लोग कोई उस बीमार व्यक्ति को तो कोई उस हाल फ़िलहाल ही बनी नई अधूरी सड़क को मनहूस बताकर अपने दुखी मन का गुबार बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे. रह रह कर जब भी मृतको की बीबी और छोटे-छोटे मासूम बच्चों की ओर नज़र घूमती गला भर-भर आता और ऑंखें नम हुए बिना नहीं रहती और मन यह सोचने पर मजबूर होता कि अब इनका कैसे गुजर बसर होगा! कोई अपना पूरा कुटुंब छोड़ यूँ ही सबको रोता कलपता छोड़ गया था. एक परिवार के तो दो ही लड़के थे, एक पिछली बरसात में बिजली गिरने से मारा गया तो दूसरा इस दुर्घटना का शिकार हो गया, घर में बुढ़ी माँ और पत्नी को जिन्दा लाश के तरह छोड़ गया. एक परिवार सभी ५ आदमी चल बसे. सभी परिवारों की बड़ी दारुण स्थिति किसी से छुपी नहीं है; न जाने इसमें ईश्वर की क्या मर्जी है!
           बच्चों के स्कूल खुलने की वजह से हमें जल्दी ही वापस भोपाल लौटना पड़ा. लौटते समय बस और ट्रेन में वह ग़मगीन दृश्य बार-बार आँखों में कौंध उठता और रह रहकर शोक में डूबे सभी परिवारवालों की मनः स्थिति समझकर मन और दुखी होने लगता. सच में नियति के आगे प्राणी कितना असहाय, बेवस और निरीह बन जाता है. शायद आदमी की नियति यही है कि वह जिस घोड़े पर बैठा होता है उसकी लगाम ऊपर वाले के पास होती है तभी तो अभी हमारे इस दुःख का घाव अभी हरा-भरा भी नहीं है कि गाँव से वापस आते ही दबे पाँव पीछे-पीछे चाचा ससुर की मृत्यु की खबर आ गई और फिर गाँव की एक शोकभरी यात्रा शुरू... ...

              मृत्यु शाश्वत सत्य है, यह जानते हुए भी दुनिया में आकर प्राणी न जाने क्या- क्या करता है? भले ही किसी की मृत्यु पर उसी परिवार को पूरी जिंदगी उसका खामियाजा भुगतने पर मजबूर होना पड़ता है, फिर भी मेरा मानना है कि यदि हम ऐसे समय में स्वयं उपस्थित होकर शोकग्रस्त परिवार को सांत्वना देते हुए उनके इस दुःख को बाँट पाते हैं तो इससे निश्चित ही उनको जीने की राह मिलती है.....

गाँव की इस दुःखद यात्रा के बारे में सोच दुखियारा मन कहता है कि-

क्या भरोसा है जिंदगानी का
आदमी बुलबुला है पानी का
            ये दुनिया तो है दो दिन का मेला
            भरा है जिसमे अपना-पराया झमेला!
भले ही आदमी-आदमी से भेद करता है
पर अंत सबको बराबर कर देता है!

                                        .....कविता रावत