क्रांतिकारी कवि रूप में बिस्मिल की याद - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

क्रांतिकारी कवि रूप में बिस्मिल की याद

वन्दे मातरम् का उद्घोष के साथ फाँसी के तख्ते से “मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ। I wish the downfall of British Empire!" का सिंहनाद करने वाले महान क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसम्बर, 1927 को फाँसी दी गई, जिसे शहादत दिवस के रूप में याद किया जाता है। 9 अगस्त को सहारनपुर-लखनऊ पैसेजर ट्रैन  से जाने वाले खजाने को ‘काकोरी’ नामक स्टेशन पर लूटकर दुनिया में पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और उनके नौ साथियों ने तहलका मचा दिया। इसके लिए उन पर सभी पर मुकदमा चला, जिसमें से ‘बिस्मिल, रोशन, लहरी और अशफाक को फाँसी की सजा  सुनाई गई। बिस्मिल को बचाने के लिए 250 रईस, आनरेरी मजिस्ट्रेट तथा जमींदारों के अतिरिक्त विधान सभा तथा विधान परिषद् के 78 सदस्यों ने भी अलग-अलग अपीलें की, लेकिन वाइसराय सबकी अपीलें खारिज कर दी।
          11 जून 1897 को उत्तरप्रदेश में जन्में बिस्मिल ने अपनी  30 वर्ष की अल्पायु में पूरे 11 वर्ष क्रांतिकारी जीवन जिया और अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से जकड़ी भारत माता को आजाद कराने  के लिए सशस्त्र क्रांतिकारी अभियान के साथ ही अपनी कलम की तीखी धार से ‘बोलशेविक कार्यक्रम’, ‘अमेरिका ने आजादी कैसे प्राप्त की’ और ’स्वदेशी रंग’ आदि पुस्तकों का प्रकाशन कर हताशा और निराशा में डूबे जनमानस को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जगाया। एक क्रांतिकारी कवि के रूप में वे हमेशा युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं। तत्समय उनकी रचनाएं युवा क्रांतिकारी मंत्र की तरह जपा करते थे-
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है
रहबरे-राहे-मुहब्बत रह न जाना राह में
लज्जते-सहरा-नवर्दी दूरिए-मंजिल में है?
आज मक्तल में ये कातिल, कह रहा है बार-बार
अब भला शौके-शहादत भी किसी के दिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत की चर्चा गैर की महफिल में है।
बिस्मिल को जेल की चारदीवारी में बंद कर उन पर जुल्म ढहाये गये, बेड़ियों में जकड़े गए, लेकिन जेल की चारदीवारी उनके क्रांतिकारी कदमों को आगे बढ़ने से रोक न पायी। उन्होंने जेल में कलम को अपना मारक हथियार बनाकर अग्रेजों  के इरादों का माकूल जवाब दिया-
तेरी इस जुल्म की हस्ती को ऐ जालिम मिटा देंगे
जुबां से जो निकालेंगे वो हम करके दिखा देंगे।
हमारे सामने सख्ती है क्या इन जेलखानों की
वतन के वास्ते सूली पे हम चढ़कर दिखा देंगे।
हमारी फांका-मस्ती कुछ न कुछ रंग लाके छोड़ेगी
निशां तेरा मिटा देंगे तुझे जब बद्दुआ देंगे।
जिन्दगी के आखिरी समय में ’बिस्मिल’ को भारत माता को आजाद न करा पाने का मलाल सालता रहा, लेकिन उन्हें इतना विश्वास जरूर था कि उनकी इन्कलाबी आग एक दिन रंग लायेगी।  वे दृढ़ता से कहते हैं कि भले ही उन्हें एक दिन मौत मिटा देगी लेकिन उनका नाम कभी नहीं मिटा पायेगी-
दुश्मन के आगे सर यह झुकाया न जायेगा
बारे अलम अब और उठाया न जायेगा
अब इससे ज्यादा और सितम क्या करेंगे वो
अब इससे ज्यादा उनसे सताया न जायेगा
यारो! अभी है वक्त हमें देखभाल लो
फिर कुछ पता हमारा लगाया न जायेगा
हमने लगायी आग है जो इन्कलाब की
उस आग को किसी से बुझाया न जायेगा
कहते हैं अलविदा अब अपने जहान को
जाकर के खुदा के घर से तो आया न जायेगा
अहले-वतन अगरचे हमें भूल जाएंगे
अहले-वतन को हमसे भुलाया न जायेगा
यह सच है मौत हमको मिटा देगी एक दिन
लेकिन हमारा नाम मिटाया न जायेगा
आजाद हम करा न सके अपने मुल्क को
‘बिस्मिल’ यह मुँह खुदा को दिखाया न जायेगा
स्वदेशी के प्रचार-प्रसार के लिए बिस्मिल किसी से पीछे नहीं रहे। स्वतंत्रता के लिए संघर्षों के ‘स्वदेशी रंग’ में रंगते हुए उन्होंने उसे आगे बढ़ाने के लिए जनमानस को प्रेरित करते हुए कहा-
तन में बसन स्वदेशी, मन में लगन स्वदेशी,
फिर से भवन-भवन में विस्तार हो स्वदेशी ......
सब हों स्वजन स्वदेशी, होवे चलन स्वदेशी,
मरते समय कफन भी, दरकार हो स्वदेशी।
‘बिस्मिल’ की भारत माता पर अपने प्राणों को एक बार नहीं सौ बार न्यौछावर करने की तीव्र उत्कंठा उनके द्वारा गोरखपुर जेल से फाँसी के एक घंटे पूर्व माँ को संबोधित एक पत्र में देखने को मिलती है, उन्होंने लिखा कि-
देश दृष्टि में माता के चरणों का मैं अनुरागी था,
देशद्रोहियों के विचार से मैं केवल दुर्भागी था।
माता पर मरने वालों की नजरों में मैं त्यागी था,
निरंकुशों के लिए अगर मैं कुछ था तो बस बागी था।
जाता हूँ, तो मातृ! यही वर, भारत में फिर जन्म धरूँ।
एक नहीं, तेरी स्वतंत्रता पर जननी! सौ बार मरूँ!
बिस्मिल अच्छी तरह जानते थे कि राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति युवा होते हैं। युवाओं के दम पर ही विश्व में बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ हुई हैं। इतिहास गवाह है कि भारतीय युवा शक्ति भी इसमें किसी से पीछे नहीं रही है। समय-समय पर देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर भीतर घुसने वाले मंगोल, कोल और हूण आक्रमणकारियों के साथ ही यूनान के महान कहा जाने वाले सिकन्दर का भी मुँहतोड़ जवाब देकर उनके दुस्साहस को युवाओं ने ही कुचला है। देशोपकार के लिए सैकड़ों बार मर मिटने को तैयार बिस्मिल को विश्वास था कि उनके मरने के बाद उनके लहू से सैकड़ों बिस्मिल, रोशन, लहरी और अशफाक जन्म लेंगे जो भारत माता को जंजीरों से मुक्त कराकर ही दम लेंगे-
यदि देश हित में मरना पड़े मुझको सहस्त्रों बार भी,
तो भी मैं इस कष्ट को निज ध्यान में न लाऊँ कभी
हे ईश! भारतवर्ष में शतबार मेरा जन्म हो
कारण सदा ही मृत्यु भी, देशोपकार कर्म हो
मरते ‘बिस्मिल’, रोशन, लहरी, अशफाक अत्याचार से
होंगे पैदा सैकड़ों, उनकी रुधिर की धार से
उनके प्रबल उद्योग से उद्धार होगा देश का
तब नाश होगा सर्वदा दुःख, शोक के लवलेश का।
गोरखपुर जिले में राप्ती नदी के किनारे बिस्मिल की अन्तिम इच्छानुसार बाबा राघवदास ने उनका अंतिम संस्कार कर उनके भस्मावशेष से बरहज देवरिया जिला में उनकी समाधि का वैदिक रीति से निर्माण करवाया, जहाँ उनकी अभिचित्रित रचना बड़ी ओजस्वी और सारगर्भित हो उठी-
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का, यही बाकी निंशा होगा।
इलाही वो भी दिन होगा, जब अपना राज देखेंगे
तब अपनी भी जमीं होगी और अपना आसमां होगा।।

महान क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल को शहादत दिवस पर नमन!
जय हिन्द
.....कविता रावत