“ तम्बाकू नहीं हमारे पास भैया कैसे कटेगी रात,
भैया कैसे कटेगी रात, भैया............
तम्बाकू ऐसी मोहिनी जिसके लम्बे-चौड़े पात,
भैया जिसके लम्बे चौड़े पात....
भैया कैसे कटेगी रात।
हुक्का करे गुड़-गुड़ चिलम करे चतुराई,
भैया चिलम करे चतुराई,
तम्बाकू ऐसा चाहिए भैया
जिससे रात कट जाई,
भैया जिससे रात कट जाई"
भैया कैसे कटेगी रात, भैया............
तम्बाकू ऐसी मोहिनी जिसके लम्बे-चौड़े पात,
भैया जिसके लम्बे चौड़े पात....
भैया कैसे कटेगी रात।
हुक्का करे गुड़-गुड़ चिलम करे चतुराई,
भैया चिलम करे चतुराई,
तम्बाकू ऐसा चाहिए भैया
जिससे रात कट जाई,
भैया जिससे रात कट जाई"
सुनाते तो हम बच्चों को बड़ा आनंद आता और हम भी उनके साथ-साथ गुनागुनाते हुए किसी सबक की तरह याद कर लेते। जब कभी हमें शरारत सूझती तो किसी के घर से हुक्का-चिलम उठाकर ले आते और बड़े जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर बारी-बारी गाना सुनाया करते। हम बखूबी जानते कि गांव में तम्बाकू और बीड़ी पीना आम बात है और कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इसलिए हम तब तक हुक्का-चिलम लेकर एक खिलाने की तरह उससे खेलते रहते, जब तक कि कोई बड़ा-सयाना आकर हमसे हुक्का-चिलम छीनकर, डांट-डपटकर वहाँ से भगा नहीं लेता। डांट-डपट से भी हम बच्चों की शरारत यहीं खत्म नहीं हो जाती। कभी हम सभी अलग-अलग घरों में दबे पांव, लुक-छिपकर घुसते हुए वहाँ पड़ी बीड़ी के छोटे-छोटे अधजले टुकड़े बटोर ले आते और फिर उन्हें एक-एक कर जोड़ते हुए एक लम्बी बीड़ी तैयार कर लेते, फिर उसे माचिस से जलाकर बड़े-सयानों की नकल करते हुए बारी-बारी से कस मारने लगे। यदि कोई बच्चा धुंए से परेशान होकर खूं-खूं कर खांसने लगता तो उसे पारी से बाहर कर देते, वह बेचारा मुंह फुलाकर चुपचाप बैठकर करतब देखता रहता। हमारे लिए यह एक सुलभ खेल था, जिसमें हमें बारी-बारी से अपनी कला प्रदर्शन का सुनहरा अवसर मिलता। कोई नाक से, कोई आंख से तो कोई आकाश में बादलों के छल्ले बनाकर धुएं-धुएं का खेल खेलकर खुश हो लेते ...........................