कोरोना में घर-परिवार और हाॅस्पिटल का संसार - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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शुक्रवार, 21 मई 2021

कोरोना में घर-परिवार और हाॅस्पिटल का संसार


कोरोना की मार झेलकर 10 दिन बाद हाॅस्पिटल से घर पहुंचा तो एक पल को ऐसे लगा जैसे मैंने दूसरी दुनिया में कदम रख लिए हों। गाड़ी से सारा सामान खुद ही उतारना पड़ा। घरवाले दूरे से ही देखते रहे, कोई पास नहीं आया तो एक पल को मन जरूर उदास हुआ लेकिन जैसे ही मेरे राॅकी की नजर मुझ पड़ी वह दौड़ता-हाँफता मेरे पास आकर मुझसे लिपट-झपट लोटपोट लगाने लगा तो मन को बड़ा सुकून पहुँचा, सोचा चलो कोई तो है जिसने हिम्मत दिखाकर आगे बढ़कर मेरा स्वागत किया। सारा सामान सीधे बगीचे में रखकर पहले सैनिटाईज हुआ और फिर सीधे बाथरूम में जाकर मन भर स्नान किया तो दिल को बड़ी राहत मिली। डाॅक्टरी परामर्श अनुसार यहाँ भी चार दिन के लिए एक अलग कमरे में अपनी दुनिया बसानी पड़ी। लेकिन मेरे लिए राहत की बात यह रही कि मुझे सुबह-शाम बगीचे की सैर करने को मिलती रही। इस दौरान घर-परिवार के सदस्यों से तो बातचीत जरूर होती रही, लेकिन आस-पड़ोस एवं नाते-रिश्तेदारों का हमारे घर हाल चाल पूछने तक न आना मन में जरूर खटकन पैदा करता करता रहा। यह देख मन पुरानी यादों में डूबता-उतरता रहा। सोचता एक समय था जब अस्पताल से कोई भी घर लौटकर आता तो कुशलक्षेम पूछने के लिए आस-पड़ोस से लेकर नाते-रिश्तेदारों का हुजूम लग जाया करता था। जहाँ हाल-चाल पूछने वालो के लिए चाय-पानी तो कभी-कभी नाश्ते का इंतजाम भी करना पड़ता था। कई घर-परिवार और करीबी रिश्तेदार तो मिलते ही लिपट-लिपट कर इतने जोर-जोर से बिलख उठते थे कि आस-पड़ोस वाले घबराकर अपना कामधाम छोड़-छाड़ कर दौड़े चले आते कि अचानक क्या हो गया! मानवीय आपसी गहरी संवेदनाओं का ऐसा नजारा जो भी देखता उसकी भी आंँखे नम हुए बिना नहीं रहती। लेकिन अब तो लगता है इस विदेशी बीमारी कोरोना ने तो मानवीय संवेदनाओं के अथाह समुन्दर को उल्टा बहाते हुए धीरे-धीरे नदियों में परिवर्तित कर उन्हें पूरी तरह सुखाने का मन बना लिया है। मानवीय संवेदनाएं वैसे भी दम तोड़ने की कगार पर खड़ी थी कि ऐसे में लगता है कोरोना ने जैसे पूरा दम निकालने का बीड़ा उठा लिया हो। नाते रिश्तेदारों की छोड़िए अपनों से भी दूर करके रख छोड़ा है। सम्पूर्ण संसार इस कटु अनुभव से गुजर रहा है।          
         मार्च माह के आखिरी सप्ताह में एक शाम तेज बुखार आने के बाद पूरे शरीर में बदन दर्द होने से रात भर नींद नहीं आयी तो सुबह-सुबह एक प्रायवेट हाॅस्पिटल जाकर डाॅक्टर को दिखाया तो उन्होंने तुरन्त सीटी स्कैन और आरटीपीसीआर करने को कहा। दोनों रिपार्ट दूसरे दिन दोपहर बाद आने थी। सुबह घर में बैठे-बैठे मन में बैचेनी और घबराहट होने लगी तो आॅफिस निकल गया जहांँ मेरा एक सहकर्मी मुझे सरकारी हाॅस्पिटल में कोरोना रैपिट टेस्ट करवाने ले गया। रैपिट टेस्ट में कोरोना पाॅजिटिव निकला तो वह मुझे उसी हाल में छोड़कर आॅफिस बढ़ लिया, जिसे देख एक पल को मेरे दिल का बड़ा धक्का लगा।  सोचता रहा जो व्यक्ति अभी-अभी मुझे गाड़ी में बिठाकर अपने साथ लाया था, वह पॉजिटिव नाम सुनकर क्यों मुझे आधे रास्ते में छोड़ गया, क्या उसे ऐसा करना चाहिए था?  खैर मैंने खुद को सम्हाला और मैं वहाँ से 200-300 मीटर दूर उस प्रायवेट हाॅस्पिटल की ओर निकल पड़ा जहाँ मैंने सीटी स्कैन और आरटीपीसीआर कराया था। रिपोर्ट आने में काफी समय था, इसलिए हाॅस्पिटल में बैठे-ठाले जाने कितने ही विचार दिमाग में घूम रहे थे। जैसे ही सीटी स्कैन की रिपोर्ट आई तो उसमें 7 प्वांइट फेफड़ों में इंफेक्शन निकला, और फिर आरटीपीसीआर भी पाॅजिटिव आयी तो बड़ी घबराहट हुई। फ़ौरन डाॅक्टर से परामर्श किया तो उन्होंने भर्ती होने की बात कही। एक-दो घंटे इधर-उधर से पूछताछ के बाद चिरायु हाॅस्पिटल में भर्ती होने का मन बनाते ही मैंने पत्नी को बुलाकर प्रायवेट टैक्सी बुक कराई और हम दोनों हाॅस्पिटल को निकल पड़े। वहाँ पहुंचकर उन्होंने भी हमारी रिपोर्ट्स को दरकिनार कर फिर से सीटी स्कैन कराया और तुरन्त भर्ती कर लिया। इधर-उधर से पैसों का इंतजाम और भर्ती सम्बन्धी तमाम औपचारिकताएं पूर्ण कर पत्नी घर वापस लौट गई, क्योँकि उसे भी हल्के बुखार के साथ बहुत खांसी हो रही थी तो डाॅक्टर ने कुछ दवाईयां लिखकर होम क्वांर्टाइन में रहने की सलाह दी तो उसने जैसे-तैसे कर काढ़ा, गिलोय और दवाईयां खाकर अपने को हाॅस्पिटलाईज होने से बचाया रखा। 
यूँ तो हाॅस्पिटल में घर-परिवार से लेकर निकट-सम्बन्धियों और परिचितों के बीमार होने पर कई बार आने-जाने से लेकर कभी कभार उनके साथ हाॅस्पिटल में भी कभी दिन तो कभी रात गुजारनी पड़ी थी, लेकिन यह मेरे लिए स्वयं हाॅस्पिटल में भर्ती होने का पहला अनुभव था। दो दिन तक बड़ा अकेलापन महसूस हुआ। लम्बी-लम्बी सांस लेते, जोर-जोर से खांसते, उबकाई करते कोरोना पीड़ित लोगों और आॅक्सीजन सप्लाई के लिए लगे कंटेनरों में पानी की आती खदबुदाहट के चलते न दिन और न रात में नींद आयी। इस दौरान मैंने प्रायवेट रूम के लिए बहुत कोशिश की लेकिन यहाँ तो हालात ऐसे बन गए थे कि वार्ड में भी जगह मिलनी बंद हो गई थी, इसलिए हालात देख चुपचाप समझौता करने में ही मैंने अपनी भलाई समझी। हाॅस्पिटल में कोरोना मरीजों के लिए बीमारी के हिसाब से 3 श्रेणियां माइल्ड, मॉडरेट और सीवियर रखे गए थे। उसी हिसाब वार्ड भी बनाये गए थे। मेरे लिए यह अच्छा रहा कि मैं जिस वार्ड में था, वहाँ पहली और दूसरी श्रेणी के लगभग 30-35  मरीज भर्ती थे, जहाँ 10-12 को छोड़ बाकी सभी को ज्यादा परेशानी न थी, जिनका कभी मोबाइल में तो कभी आपस में बतियाना और घूमना-फिरना बराबर चल रहा था, जिन्हे देखकर मुझे तसल्ली हुई कि मैं खामख्वाह ही अपने आप को अकेला महसूस कर रहा हूँ। मैंने सोचा जब मैं ज्यादा तकलीफ में हूँ नहीं तो फिर क्यों न मैं भी हाॅस्पिटल की दुनिया की रंगत देखता चलूँ। बस इसी धुन में मैंने देखा कि जिस तरह से कुछ लोगों के लिए देश-दुनिया में 'मास्क पहनो, सैनिटाईजर करो, साबुन से बार-बार हाथ धोओ’ की समझाईश चीखने-चिल्लाने जैसा है, ठीक वैसा ही कुछ-कुछ हाल यहाँ का भी देखने को मिला। यहाँ भी बाथरूम में न हाथ धोने का साबुन न सैनिटाईजर रखा था, मरीज खुद ही जैसे-तैसे कर अपनी व्यवस्था कर रहे थे। कई मरीज तो हरदम बिना मास्क के बड़ी बेफिक्र से इधर से उधर टहल रहे थे। मास्क की बात तो छोड़ो, इस महामारी में भी तलब की हद तो देखो- एक बुजुर्ग तो मुझसे हर दिन सुबह टहलते समय ’गुटखा है क्या’ पूछना नहीं भूलते तो दूसरे महाशय बीड़ी के कश की तलाश में इधर से उधर फिरते रहते।  इसके साथ ही यहाँ एक बात मुझे बड़ी हैरान करने वाले लगी कि जहाँ सीनियर डाॅक्टर, नर्सेस और दूसरे स्टाफ वाले पीपीई किट पहनकर अपनी ड्यूटी कर रहे थे, वहीं एक जूनियर डाॅक्टर ऐसे भी मिले, जिन्हें पीपीई किट तो दूर मास्क पहनना भी गँवारा  न था। वे हरदम बस सिर पर एक जालीनुमा टोपी पहने मिलते। भले ही उनके इस रवैये को घोर लापरवाही समझ लीजिए, लेकिन उनका मरीजों के साथ दो मिनट अपनेपन से पास बैठकर मित्रवत् व्यवहार कर हाल-चाल पूछना, बातें करना लाजवाब था, जो सबकी सेहत के लिए किसी टॉनिक से कम न था।  हर दिन जब भी वे मेरे पास बैठकर हँसते-मुस्कुराते हाल-चाल पूछते तो मुझे ऐसा लगता जैसे वे मेरे अपने परिवार के कोई सदस्य हैं। मैं सोचता काश सभी हॉस्पिटल में ऐसे ही डॉक्टर्स सबको मिलते तो कितना अच्छा होता।            
हाॅस्पिटल में हमारे वार्ड में दो ऐसे भी बुजुर्ग थे, जो भोपाल से बाहर से आए थे, जिनकी देखरेख के लिए परिवार के सदस्य बेड लेकर उनकी देखरेख कर रहे थे। उनमें से एक बुजुर्ग तो लगभग 90 वर्ष के आसपास रहे होंगे, जिनकी सेवा में उनका नाती पूरे दस दिन तक लगा रहा। अच्छी बात यह रही कि उनके नाती को इस दौरान कोरोना संक्रमण नहीं हुआ। दूसरे बुजुर्ग जो लगभग 70 वर्ष के रहे होंगे, वे मेरे सामने वाले बेड पर थे, जिन्हें शुगर के साथ-साथ चलने-फिरने में काफी दिक्कत थी, जिस कारण उनकी सेवा में उनकी बुजुर्ग पत्नी भी साथ थी, लेकिन उन्हें चार दिन बाद जब कोरोना संक्रमण हुआ तो, वे भी काफी परेशान हो गई थी। शुक्र है रेमडेसिविर इंजेक्शन के जिनके लगते ही वे भी स्वस्थ हो गई। चूंकि वे मेरे पडोसी थे और भोपाल से बाहर से आए थे, जिससे उनकी भोपाल में जान-पहचान न थी, इसलिए मैंने उनकी परेशानी भांपते हुए उनके लिए भी जरूरी सामान घर से मंगवाया तो उन्हें लगा उनको जैसे कोई अच्छा पड़ोसी मिल गया, जिसे देख मुझे ख़ुशी मिली। भले ही बहुत मरीज तो अपने मोबाइल से बातें कर न अघाते रहे, लेकिन मुझे तो हर दिन इन बुजुर्ग दम्पत्ति के साथ कुछ उनकी और कुछ अपनी बातें कह-सुनकर घर-परिवार का माहौल सा महसूस होता रहा। मैंने यहाँ यह भी अनुभव किया कि यदि बीमारी गंभीर न हो और जेब में पैसा हो तो हाॅस्पिटल जैसी जगह भी कोई बुरी जगह नहीं, वरन् इसे यदि खाने-पीने से लेकर घूमने-फिरने, योगा-व्यायाम करने और तरह-तरह के फल-मेवे खाकर स्वास्थ्य लाभ लिया जाने का अड्डा समझ लिया जाए तो इसमें कैसे बुराई हो सकती है। भले ही शुरूआत के दो दिन मुझे भूख भी नहीं लगी, लेकिन उसके बाद तो मुझे इतनी भूख लगने लगी कि यहाँ मिलने वाली थाली भी कम पड़ जाती थी। मैं फिर से थाली लगाने वाले को देखता लेकिन तब तक वह दूसरे वार्ड में पहुंच गया होता तो मैं चुपचाप अपनी थाली उठाकर बाथरूम के पास रखने चला जाता। लेकिन वहाँ मुझे यह देखकर बहुत बुरा लगता कि कई मरीजों की थाली जैसी की तैसी खाने से भरी मिलती। खाने की इस तरह की बर्बादी न हो इसके लिए मैंने खाने परोसने वाले से हर बेड के पास पूछकर उनकी पसंद का खाना लगाने का परामर्श दिया तो वे वैसा ही करने लगे, जिससे खाने की बर्बादी रूकी तो मुझे बड़ी आत्मसंतुष्टि मिली।  
        हाॅस्पिटल का अनुभव सबका अलग-अलग हो सकता है। यह बीमारी की गंभीरता पर निर्भर करता है। जितनी बड़ी बीमारी उतनी बड़ी मानसिक और शारीरिक परेशानियाँ के साथ खर्चा ही खर्चा। लेकिन यदि किसी भी हाॅस्पिटल में डाॅक्टर्स के साथ ही पैरामेडिकल स्टाफ का व्यवहार मित्रवत् और पारिवारिक हो तो, फिर भले ही बीमारी की प्रवृत्ति गंभीर क्यों न हो, बीमारी से जल्दी निजात मिलना तय हो जाता है और एक नई सुबह जरूर होती है।  

...इनकी जुबां से कविता रावत