ढपली और झुनझुने का गणित | हिन्‍दी कहानी | - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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रविवार, 19 दिसंबर 2021

ढपली और झुनझुने का गणित | हिन्‍दी कहानी |

गर्मियों के दिन थे। सुबह-सुबह सेठ जी अपने बगीचे में घूमते-घामते ताजी-ताजी हवा का आनन्द उठा रहा थे। फल-फूलों से भरा बगीचा माली की मेहनत की रंगत बयां कर रहा था। हवा में फूलों की भीनी-भीनी खुशबू बह रही थी। सेठ जी फल-फूलों का बारीकी से निरीक्षण कर रहे थे। विभिन्न प्रकार के पौधे और उन पर लदे फूल, पत्तियों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट हो रहा था। तभी उनकी पत्नी आयी और नौकर को चाय लाने को कहती हुए उनके साथ-साथ टहलने लगी। अभी कुछ ही समय बीता होगा कि उन्हें गेट से “जय शिव शम्भू, भोलेनाथ“ की आवाज सुनाई दी। सेठ जी ने  फौरन अपने नौकर को देखने भेजा तो नौकर ने आकर बताया कि दो युवा भिखमंगे आए हैं। यद्यपि सेठ-सेठानी दोनों को भिखमंगों से बहुत चिढ़ मचती थी, फिर भी सुबह-सुबह का समय होने से सेठ जी ने नौकर को थोड़ा आटा देकर चलता करने को कहा तो सेठानी ने “ज्यादा नहीं थोड़ा देना“ की हिदायत साथ में मिला दी। वह एक कटोरी में आटा लेकर उनके पास गया, लेकिन उन भिखारियों ने “आटा नहीं, पैसे चाहिए“ कहते हुए उसे वापस लौटा दिया। नौकर को आटा वापस लाते देख सेठ जी बोले-“ क्यों दिया क्यों नहीं“ तो नौकर ने जबाव दिया, “ जी, वे आटा नहीं ले रहे हैं कहते हैं कि पैसे लाओ।“

          पैसे का नाम सुनकर सेठ जी सेठानी के ओर तिरछी नजरों से देखते हुए बोले- “देखा, आज के भिखमंगों को भीख भी उनकी मर्जी का चाहिए।“

        “कोई बात नहीं, पैसा दे दो, पुण्य मिलेगा।“ सेठानी बोली तो सेठ जी फटाक से बोले- “क्यों दे दें, वे ऊपर वाले से लिखा के लाए हैं क्या?“ यह सुनकर सेठानी ने समझाया कि- “अरे भई सुबह-सुबह का समय है, किसी को नाराज करना ठीक नहीं।“ , यद्यपि सेठ जी का मन एक भी पैसा देने को नहीं था, लेकिन बात न बिगड़े इसलिए उन्होंने पत्नी धर्म का पालन करना उचित समझा। वे गेट की ओर बढ़े और कड़कते हुए गुर्राए- “क्यों बे, क्या चाहिए तुम्हें।“ 

          “दो-चार पैसे साब“ दोनों युवा भिखारियों ने साहस जुटाकर उत्तर दिया तो सेठ तमतमाया-“ पैसे चाहिए, सालो इतने हट्ठे-कट्ठे हो, फिर भी भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती तुम्हें? भागो यहाँ से, हरामखोर कहीं के। चुल्लू भर पानी में डूब मरो।“ यह सुनते ही दोनों से वहाँ से सरपट भागने में ही अपनी भलाई समझी। वे अभी आगे बढ़े ही थे कि पीछे से सेठ जी ने थोड़ा नरमी से आवाज लगाई- “ ऐ छोकरो, इधर आओ।“ यह सुनकर दोनों आपस में कानाफूसी करने लगे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें कि तभी सेठ चिल्लाया-“अबे बहरे हो गए हो क्या, पास आते क्यों नहीं।“

           दोनों ‘जी सेठ जी‘, कहते हुए धीरे-धीरे सिर झुकाए उनके सामने आए तो सेठ ने अपनी जेब से 50 रुपए  का नोट निकालकर एक भिखारी के हाथ में पकड़ाते हुए दोनों को समझाईश के साथ हिदायत दी- “कल से तुम मुझे इधर-उधर कहीं नजर आए तो सीधे थाने में बंद करवा दूंगा। मुझे निकम्मों से सख्त नफरत है। कुछ काम-धंधा करो, भीख मांगना बुरी बात है, समझे?“ वे ‘जी सेठ जी‘ ‘जी सेठ जी‘  कहते हुए वहाँ से भाग खड़े हुए। रास्ते में जिस भिखारी के हाथ सेठ ने पचास का नोट पकड़ाया था, वह दूसरे को दिखाते हुए मजाक करते बोला- “अरे यार मैं तो पहले सेठ जी से बहुत डर गया था, लेकिन जैसे ही ये पचास का नोट पकड़या तो समझ आ गया कि सेठ जी नाम ही नहीं काम के भी हैं।“   

सुबह-सुबह पचास का नोट मिलने के बाद दोनों ने आज बड़े-बड़े बंगलों की खाक छानने का मन बनाया। इसलिए वे बड़े-बड़े बंगलों में भीख मांगने निकले जरूर लेकिन उन्हें गेटकीपरों ने ही बंगले में घुसने से पहले से दुत्कार कर भगा दिया। इस दौरान कुछ बंगला मालिकों से वे टकराये भी लेकिन उनसे उन्हें उनकी हिकारत भरी नजरों के साथ दो-चार गालियों से स्वागत-सत्कार ही मिल पाया। निराश होकर जब शाम ढलने को आयी तो उन्हें रास्ते में एक नेताजी का बंगला नजर आया तो उन्हें एक उम्मीद की किरण नजर आई, वे वहीं ठिठक गए। उन्होंने देखा कि नेताजी कुछ हैरान-परेशान होकर अपने अमचे-चम्मचों के साथ  इधर से उधर टहल रहे है। नेताजी उनके गांव के करीब के हैं, यह बात वे जानते थे, इसलिए उन्होंने सोचा आज इनकी थाह ले ली जाए।  थोड़ी देर दोनों ने आपस में खुसुर-फुसर की और फिर एक ने अपना झुनझुना और दूसरे ने अपनी ढपली बजाते हुए गाना शुरू किया तो नेताजी का ध्यान उनकी ओर बसबस ही खिंचा चला आया। यह देखते हुए जैसे ही उनके अमचे-चम्मचों ने उन्हें वहां से भागने के लिए कहा तो नेताजी ने आगे आकर उनसे उनका गाना-बजाना जारी रखने को कहा और वहीं एक कुर्सी पर बैठकर आराम से उन्हें सुनने बैठ गए। दोनों युवा भिखारियों ने झुनझुने और ढपली की थाप के साथ  गाना-बजाना जारी किया-

संयुक्त    कुछ तो दया करो, इन बन्दों पर। 

              कुछ तो दया करो, इन बन्दों पर।  

पहला      ये बन्दे हैं दुःखियारे, हाय! किस्मत के मारे

दोनों        आ पड़ा है बोझ इनके कंधों पर

               कुछ तो दया करो, इन .............................

पहला हाय! किस्मत का है, ये कैसा खेल निराला

दूसरा पीते हम हर दिन जहर का प्याला

संयुक्त है दुनिया में वही बड़ा जो

       पर भार उठाये कंधों पर 

               कुछ तो दया करो इन बन्दों पर

                कुछ तो दया करो ..........................

पहला गांव छोड़ शहर को धावै

        करने अपने सपने साकार

दूसरा खो चुके हैं भीड़-भाड़ में

        आकर बन बैठे हैं लाचार

संयुक्त      ये लाचारी है बड़ी दुःखदायी

        न फेंको जाल परिन्दों पर

                कुछ तो दया करो इन बन्दों पर

                कुछ तो दया करो .............................

पहला    मारे-मारे फिर रहे हैं

    मुफ्त में मिलती है दुत्कार

दूसरा    खाक छाना शहर भर का 

            पर मिला न कोई रोजगार

संयुक्त  हाल बुरा है शहर भर का

            जाने कितने झूलते फन्दों पर

    कुछ तो दया करो इन बंदों पर

    कुछ तो दया करो ............


          ढपली की थाप और झुनझुने की झुनझुनाहट और युवा भिखारियों की बुलन्द आवाज में नेताजी अपनी पुरानी यादों में डूबते-उतराते रहे। जैसे ही गाना-बजाना समाप्त हुआ तो नेताजी को चेहरे पर एक खुशी की लहर दौड़ पड़ी। उन्होंने दोनों को अपने पास बैठने को कहा। यह देखकर पहले तो वे डर गए लेकिन जैसे ही नेताजी ने फिर अनुरोध किया तो वे उनका अनुरोध ठुकरा न सके। 

           नेताजी ने सबसे पहले उनके गांव के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे नेताजी के गांव के करीब के हैं, तो नेताजी की आत्मीयता जाग उठी। आत्मीय होकर नेताजी ने उनके घर-परिवार, उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में जानकारी ली और फिर उनके बुलन्द आवाज में गाने-बजाने की बहुत तारीफ की तो दोनों का खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने जब नेताजी को बताया कि वे खुद ही गीत लिखते और गाते हैं, तो यह बात नेताजी के दिल को छू गई। अब चूंकि चुनाव सिर पर थे और नेताजी इसी चिन्ता में कुछ नया-नया करने की सोच रहे थे, तो उन्हें इन युवा भिखारियों से एक उम्मीद जगी। चूंकि वेयुवा बेरोजगारी  उनके गांव के करीबी के थे, इसलिए उन्होंने उन्हें भीख मांगना बंद कर उनके लिए काम करने के रोजगार का प्रस्ताव रखा। नेताजी ने उन्हें समझाया  कि उन्हें बस चुनाव में उनके लिए गा-बजाकर चुनाव प्रचार-प्रसार कर जिताना है। यह सुनते ही पहले तो दोनों युवा भिखारियों को लगा कि कहीं नेताजी उनके साथ मसखरी तो नहीं कर रहे हैं, लेकिन जैसे ही नेताजी ने अपने अमचे-चम्मचों से उनको खिलाने-पिलाने का हुक्म देते हुए उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करने को कहा तो उन्हें विश्वास हो चला कि उनके दिन फिरने वाले हैं। आखिर उन्हें भी उनका कोई माईबाप मिल गया है। 

          चुनाव का समय निकट आया तो प्रचार-प्रसार के दौरान उनके लिखे और गाये गाने जनता की जुबां पर इस कदर चढ़े कि नेताजी ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। नेताजी की जीत के बाद वे उनके खासमखास लोगों में शुमार हो गए और देखते-देखते अपने बुलन्द इरादों के बल पर एक दिन पार्टी प्रवक्ता बनकर बड़े नेताओं की पंक्ति में आ खड़े हुए। आजकल सुना है कि उन्हें राजनीति के दाव-पेंचों में महारत हासिल है और उनका भीख में मिला रोजगार बेरोजगारों की एक बहुत बड़ी फौज को ढपली और झुनझुने का गणित समझाकर रोजगार दिलाने में अहम भूमिका निभा रहा है। 

...कविता रावत   




16 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बेरोज़गारी से पार्टी प्रवक्ता तक का सफ़र ज़बरदस्त रहा ....

जितेन्द्र माथुर ने कहा…

क्या कहने हैं इस व्यंग्य रचना के! बहुत ख़ूब कविता जी!

yashoda Agrawal ने कहा…

हा हा हा हा
दो नए नेताओं का जनम
सादर..

Sweta sinha ने कहा…

ढपली और झुनझुना और न जाने कितनो को पकड़ायेगे ये लोग।
अनेक तथ्यों को समेटे सारगर्भित कहानी।
सादर।

anita _sudhir ने कहा…

बहुत खूब कविता जी
हुनर की पहचान

सी. बी. मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

क्‍या बात

सदा ने कहा…

बहुत ही शानदार लिखा आपने

मन की वीणा ने कहा…

वाह! तीक्ष्ण धारदार गहन व्यंग्य समेटे सुंदर प्रस्तुति।

Sudha Devrani ने कहा…

वाह!!!
बहुत ही जबरदस्त धारदार व्यंग।

रेणु ने कहा…

रोचक कथा है कविता है | कब किसके दिन कहाँ फिर जाएँ पता नहीं चलता |

MANOJ KAYAL ने कहा…

बहुत उम्दा रचना

अभिव्यक्ति मेरी ने कहा…

वेहतरीन लेखनी है आपकी।

Meena Bhardwaj ने कहा…

बहुत सुन्दर व्यंग्यात्मक कहानी ।

रेणु ने कहा…

*कविता जी 🙏

Jyoti Dehliwal ने कहा…

ढपली और झुनझुना थमा कर ही तो नेता अपने लिए चमचो की फौज खड़ी करते है। बहुत ही सटिक व्यंग, कविता दी।

Anuradha chauhan ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति।