सोचा मैंने बनाऊँ माटी की मूरत ऐसी
डूबूँ जिसको ढ़ालते-बनाते मैं ऐसे कि
दिखे मुझे वह सपनों की दुनिया जैसी
पर जरा सम्भलकरकहीं माटी न गिर जाय
गिरकर फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
माटी संग पढ़ा, खेला-कूदा बड़ा हुआ मैं
गूँथ-गूँथ मैंने उसे इस तरह तैयार किया
जब वह न था अधिक तरल और सख्त
गूँथ-गूँथ मैंने उसे इस तरह तैयार किया
जब वह न था अधिक तरल और सख्त
तब मैंने उसे नरम आटा सा बना दिया
पर जरा सम्भलकर
कहीं देर न हो जाय
गूँथी माटी फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
पर जरा सम्भलकर
कहीं हंस न गिर जाय
गिरकर फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
पर जरा सम्भलकर
कहीं देर न हो जाय
गूँथी माटी फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
सोचने लगा आखिर अब बनाऊँ तो क्या?
तितली, मोर, शेर, भालू या फिर घोड़ा?
तब थोड़ा सोच-विचार बाद मन में आया
क्यों न बनाऊँ एक हंस-परिवार का जोड़ा
कहीं हंस न गिर जाय
गिरकर फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
बना हंस-परिवार तो विविध रंग मैं लाया
श्वेत वर्ण से मैंने फिर हंसों को नहलाया
अम्बर से रंग चुरा के मैंने सरोवर बनाया
मांग के धरती से फूल-पत्ती उसे सजाया
पर जरा सम्भलकर
कहीं रंग-फूल बिखर न जायबिखर कर फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
पहले जैसे न रह पाए
उमड़-घुमड़ उठे मन में खुशी के बदरा
जब देखी मैंने हो गई मूरत बन के तैयार
पर आह! पल में फिसली वह हाथों जो मेरे
टूटी-चटकी सारी मेहनत हुई मेरी बेकार
तभी तो कहता संभल जरा
हाथों मूरत न फिसल जाय
टूट-चटक फिर वापस
पहले जैसे न रह पाए
..अर्जित रावत