सुना होगा आपने कभी एक कल्पतरु हुआ करता था
तले बैठ जिसके मानव इच्छित फल को पाता था
इच्छा उसकी पूरी पूर्ण होती, वह सुख-चैन से रहता
जो भी इसके तले बैठता, खुशियों से भर जाता
आप कहोगे कल्पतरु अब कहां? जो हर सपना करे साकार
मैं कहती हूँ वह वृक्ष व्याप्त है, नाम है उसका भ्रष्टाचार
यह ऐसा वृक्ष है जिसकी शीतल घनेरी छाया
जो भी तले बैठा इसके, उसी ने पायी माया
इसकी जड़ें होती गहरी, यह उखड़ नहीं पाता
जो भी कोशिश करके देखता हरदम वह पछताता
जो भी जड़ें जकड़ता इसकी, इच्छित फल वह पाता
जो विमुख रहता इससे, वह खाली ढोल बजता
कामधेनु है यह जिसका दूध सफ़ेद नहीं है काला
जो सर्व प्रचलित है, उसी का नाम है घोटाला
आत्मा तन से निकलती, यह धर्मशास्त्र है कहता
भ्रष्टाचार आत्मा में व्याप्त है, यह मानव शास्त्र कहता
विराट कल्पतरु का रूप ले चुका है भ्रष्टाचार
इसीलिए यही बन बैठा है आज का शिष्टाचार।
copyright@Kavita Rawat
मैं कहती हूँ वह वृक्ष व्याप्त है, नाम है उसका भ्रष्टाचार
यह ऐसा वृक्ष है जिसकी शीतल घनेरी छाया
जो भी तले बैठा इसके, उसी ने पायी माया
इसकी जड़ें होती गहरी, यह उखड़ नहीं पाता
जो भी कोशिश करके देखता हरदम वह पछताता
जो भी जड़ें जकड़ता इसकी, इच्छित फल वह पाता
जो विमुख रहता इससे, वह खाली ढोल बजता
कामधेनु है यह जिसका दूध सफ़ेद नहीं है काला
जो सर्व प्रचलित है, उसी का नाम है घोटाला
आत्मा तन से निकलती, यह धर्मशास्त्र है कहता
भ्रष्टाचार आत्मा में व्याप्त है, यह मानव शास्त्र कहता
विराट कल्पतरु का रूप ले चुका है भ्रष्टाचार
इसीलिए यही बन बैठा है आज का शिष्टाचार।
वर्तमान समय की उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते नैतिक मूल्यों के गिरावट के परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार ने जिस तेजी से अपनी जड़ें गहरी जमा ली हैं, उससे सबको लगने लगा हैं कि इसे समूल नष्ट कर पाना बहुत टेढ़ी खीर है. देश में व्याप्त कुटिल राजनीति, नौकरशाही, बेरोजगारी, भुखमरी, अल्प वेतन कि समस्या, दंड विधान की ढिलाई, पूँजी संग्रह और अर्थोन्माद की प्रवृति ने लोगों की मानसिकता, सोच-विचार और व्यवहार की स्वच्छता के मूल्य को ही कुंद कर दिया है.
वर्तमान समय में व्याप्त भ्रष्टाचार के स्वरुप को उदघाटित करने का मेरा यह लघु प्रयास कहाँ तक सफल हो पाया है, यह आपकी प्रतिक्रियाओं पर निर्भर होगा ................
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