कच्ची कलियों को चटकते हुए
कड़ाके की घूप में
कुछ कलियों को देखा है
खिलखिलाते हुए
बेमौसम में!
वे कलियाँ जो भ्रमित होकर
अपने को पूर्ण खिला
समझ बैठती है
पड़ जाती है
कुछ असामाजिक तत्वों के हाथ
उनका इस कदर खिल जाना
बन जाता है अभिशाप
दूसरी कलियों के लिए भी
फलस्वरूप वे भी
तनिक ताप से ही
मुरझाने लगती हैं
न रसयुक्त
न सुगंधयुक्त
और न आकर्षक ही बन पाती हैं
उनमें व्यर्थ का विखराव
नज़र आता है
जो न किसी के
मन भाता न रमता है
भले ही ये खिले-खिले दिखें
किन्तु बेरुखे, बेजान बन जाते हैं
एक हल्का हवा का झौंका
गुजरे जब भी पास इनके
ये पतझड़ सा गिरते हैं
फिर गिरकर
पददलित
उपेक्षित बन जाती हैं
न हार बनकर
किसी के गले में सज पाती हैं
और न कभी कहीं
पूजा के ही काम आती हैं
-कविता रावत