बच्चों के सिर से परीक्षा का बोझ उतरा तो उन्होंने चैन की बंसी बजाई तो मैंने भी कुछ राहत पायी। पिंजरे में बंद रटन्तु तोते की तरह एक ही राग अलापने की बोरियत से निजात दिलाने उन्मुक्त हवा में सांस लेने का विचार आया तो पहली फुरसत में हम थोड़ी मौज-मस्ती के बहाने भोपाल से 25 कि.मी. दूर खुरचनी गांव की ओर निकल पड़े। जहां लहलहाते गेहूं और चने से भरे-लदे खेतों को मुस्कराते देखा तो सभी खुशी से उछल पड़े, सबके मुरझाये चेहरों पर खुशी छलक उठी जिसे देख मुझे लगा बसन्त खिल गया है। कई वर्ष बाद खेतों में लहलहाते गेहूं की फसल का मनोमुग्धकारी दृश्य देखा तो मन आत्मविभोर हो उठा। वहीं दो पल बैठ आंख मूंद सुकूं भरी जो राहत मिली उसे शहर की दौड़-धूप के बीच कभी महसूस नहीं कर सकी।
एक तरफ गेहूं के भरे खेतों को देखकर मन खुशी से उछल रहा था तो दूसरी ओर चनों की हरी-भरी लहलहाती फसल दिखी तो मन ललचा उठा और कदम तेजी से उसी ओर भागने लगे। बच्चे तो देखते ही चनों (होलों) पर टिट्डी दल की तरह टूट पड़े। पहले जहां छोटे-छोटे दानों वाले चने बोए जाते थे वहीं अब उसकी जगह बड़े-बड़े दानों वाले चने बोए जाने लगे हैं, जिन्हें लोग आजकल काबुली चना के स्थान पर “डालर चना“ के नाम से बुलाना पंसद करते हैं। हमारी तो जैसे लाटरी लग गई। वहीं खेत में बैठे-ठाले ताबड़-तोड़ ढंग से भूखे बंदरों के तरह खाने में तल्लीन हो गए पर घर का ख्याल आया तो थैले में भी भरते चले गए। कच्चे चनों से जब मन उकताने लगा तो फिर वहीँ खेत में सबने मिल-बैठकर चनों के साथ ही गेहूँ के बालियाँ (उम्बी) आग में भूंजकर खायी तो बड़ा मजा आया।
जब बच्चों के पेट में चने-उम्बी पहुंची तब उन्हें पचाने की सूझी तो वे गांव के बच्चों के साथ हिल-मिलकर कभी आम के पेड़ पर तो कभी इस खेत कभी उस खेत पर उछलकूद मचाते खेतों से निकल कर फुर्ती से गांव की ओर निकल पड़े, जहां दाल-बाटी तैयार थी। गांव के लोगों द्वारा बनाई दाल-बाटी और उसके साथ ताजा-ताजा बनाया गुड़ मुझे हमेशा ही बहुत पंसद आता है। जब भी हमारा वहां जाना होता है वे बिना कुछ कहे हमारी पसंद की दाल-बाटी झटपट परोस लेते हैं।
जब बच्चों के पेट में चने-उम्बी पहुंची तब उन्हें पचाने की सूझी तो वे गांव के बच्चों के साथ हिल-मिलकर कभी आम के पेड़ पर तो कभी इस खेत कभी उस खेत पर उछलकूद मचाते खेतों से निकल कर फुर्ती से गांव की ओर निकल पड़े, जहां दाल-बाटी तैयार थी। गांव के लोगों द्वारा बनाई दाल-बाटी और उसके साथ ताजा-ताजा बनाया गुड़ मुझे हमेशा ही बहुत पंसद आता है। जब भी हमारा वहां जाना होता है वे बिना कुछ कहे हमारी पसंद की दाल-बाटी झटपट परोस लेते हैं।
गेहूं के लदे खेतों की संकरी पगडंडियों के बीच प्याज की निराई-गुडाई करते परिचित दिखे तो दो घड़ी उनके पास बैठ कुछ उनकी सुनना तो कुछ अपनी सुनाना मन को बहुत अच्छा लगा। उसके बाद जब आगे निकली तो गेहूं की कटाई करते लोगों को देख मेरे मन में भी उत्सुकता जगी तो मै भी उनसे दंराती लेकर गेहूं काटने बैठ गई। वहां कटाई करते लोगों का अनुमान था कि शायद दूसरे शहरी हो चले लोगों के तरह मैं भी अब तक यह सब भूल चुकी होंगी। लेकिन जब मैंने 10-15 मिनट तक लगातार गेहूं काटे तो उनका यह भ्रम टूट गया और वे बड़े अचरज के साथ ही बड़ी उत्सुकतापूर्वक मुझे देखते रह गए। मेरे इस कारनामे से वे सभी बहुत खुश हुए तो मुझे भी कई वर्ष बाद खेत में काम करना बहुत भला लगा।
गांव जाकर अक्सर यही लगता है कि यहीं दो-चार दिन घूमते-फिरते, मौज मस्ती करते रहे, लेकिन यह हसरत अब चाहकर भी पूरी नहीं हो पाती। एक तरफ तो बच्चों को गांव में दो-चार दिन भी तक रोके रखना बहुत मुश्किल है तो वहीँ दूसरी आजकल के शहरी माहौल को देख घर को सूना रख छोड़ना खतरे की घंटी लगती है।
गांव से शहर की ओर लौटते समय खेती-बाड़ी के अलग-अलग कामों में जुटे किसानों को देखते रही और सोचती रही कि यदि सृष्टि के पालन का दायित्व विष्णु भगवान का है तो हमारे ये किसान जो सच्चे कर्मयोगी की तरह मिट्टी से सोना उत्पन्न करने की साधना में दिन-रात जुटे रहते हैं, जो न चिलचिलाती धूप, न मूसलाधार बारिश, न कड़ाकी की ठण्ड की परवाह करते हैं, यदि इन्हें मानव समाज के सच्चे पालक कहें तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं!
बच्चों के साथ यूँ तो मुझे भोपाल के आस-पास समय के अनुसार बहुत से दर्शनीय स्थलों जैसे बड़ा तालाब, छोटा तालाब, शाहपुरा तालाब, केरवा डैम, मनुभावन की टेकरी, मानव संग्रहालय, चिडि़या घर, मछली घर, बिडला मंदिर आदि जगहों पर घूमने-घामने या पिकनिक मनाने से शहरी तनावभरी जिन्दगी से कुछ पल राहत मिल जाती है। बाबजूद इसके जो सुकून प्रकृति की गोद में बसे गांव के भरे-पूरे खेत-खलिहान और हंसते-मुस्कुराते भोले-भाले गांव वालों के साथ मिल बैठकर मिलती है, उसे मैं शहर की भीड़-भाड़ में कभी भी नहीं तलाश पाती हूँ। अब तो मैं शहरी थकी-हारी, भागदौड़ भरी जिन्दगी को देखते हुए कुछ पल सुकूं के लिए हंसी-खुशी, मौज-मस्ती के निमित्त ऐसे प्राकृतिक स्थलों को तन-मन में ताजगी भरने के लिए जरुरी समझने लगी हूँ।
36 टिप्पणियां:
वाह, मॉल आदि जाने से कहीं अच्छा लगता है, इस तरह घूमना।
सच में ऐसे ही कभी खेत खलिहानों की सैर भी हो.....
शहर की थकाऊ जीवनचर्या में थोड़ा बदलाव लाने के लिए फुर्सत पर गाँवों का भ्रमण अत्यंत आवशयक भी है।
खेतों में भरा हो अन्न तो क्यों न भागे वहां मन!!
वाह ...हमें भी बड़ा अच्छा लगा गेहूं से भरे खेत ...और यू ट्यूब पर शिव ने परीक्षा के बाद ख़ुशी में बड़ी सुरीली बंसी बजाई है।
आपने मेरे मन की कह भी दी और कर भी दी। बहुत ही बढ़िया लगा आपका यह संस्मरण पढ़कर। जय जवान जय किसान।
रोज की दिनचर्या से हटकर इस तरह की यात्रायें एक नवीन और सुखद अनुभव प्रदान करती है.
इस प्रकार का सैर सपाटे मनोरंजक भी है स्फूर्तिदायक भी .
latest postउड़ान
teeno kist eksath"अहम् का गुलाम "
पर शायद फोटो मोबाईल से लिये हैं । वैसे ये कम रोमांचक अनुभव नही था
बहुत सुन्दर चित्रमयी प्रस्तुति!
बढ़िया गाँव में पहुंची हैं आप वरना अब ये भी उजाड़ पर हैं .शहर और गाँव के बीच एक दुराव घर बनाने लगा है अलबत्ता गाँव प्रकृति से जुड़ा है वहां न काम में आई पोड ठुसा है न हेड फोन .प्रकृति के रंग बिखरे पड़े हैं समेटे तो कोई .
आपने तो बचपन के उस दौर की याद दिला दी जब हम गाँव में जाकर अपनी छुट्टियाँ बिताते थे....
बहुत ही सजीव वर्णन किया है आपने, आपके साथ घूमकर आनन्द आया! बधाई और शुभकामनाएँ!
बचपन याद दिला दिया आपने तो कविता जी ,
गर्मी की छुट्टियां ,नानी का घर और भी न जाने क्या-क्या .
आभार ......बचपन याद दिलाने के लिए....
मुझे तो गाँव-खेत देखे सात साल होने को आया है. अब, ये खेतों के दृश्य देखकर मन हो रहा है उड़कर गाँव पहुँचने का, लेकिन अभी तो ये संभव नहीं है.
ग्रामीण परिवेश पर आधारित बहुत ही सुन्दर चित्रमय प्रस्तुति.
सच,खेत खलिहानों की सैर में ही असली आनन्द है.....
सचमुच बचपन में नानी के घर जाना याद आ गया.सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई!
nc :)
आप खुशकिस्मत हैं ...
मंगल कामनाएं !
हम भी होली में गांव जाने वाले हैं..
शहरी जिंदगी में सुकून कहाँ ,,,
किसान सच में सच्चे पालक है
चैन की बंसी सुनकर अच्छा लगा :-)
सादर आभार !
वाह! सच में इस ज़िंदगी के लिए शहरों में तरस जाते हैं..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
यह हुआ आपका जोरदार जोरदार ग्राम्य पर्यटन -हमें तो यह देखकर ही आनंद आ गया
कांक्रीट के जंगल को ईर्ष्या से देखने की तुलना में मुझे गाँवों में लहलहाती फसल को देखना ज्यादा सुखकर लगता है। छुट्टियों की आपने सही शुरुआत की।
लेकिन मुझे लगता है कि ब्लागर बड़े प्रतिभाशाली लोग होते हैं और उन्हें अपने बच्चों को रट्टू तोते बनने की प्रवृति से मुक्त करना चाहिए। यह काफी मुश्किल है क्योंकि शिक्षा पद्धति तो ऐसी ही है कि कोई विकल्प नहीं है लेकिन कहीं न कहीं तो हमें शुरूआत करनी पड़ेगी।
बहुत ही मन से लिखी मन की अनुभूतियाँ, शब्द-शब्द में गाँव की खुश्बू पाठकों को महका गई है...
जो बात गाँव में है वह शहर में हो ही नहीं सकती ..पर क्या करें भागना पड़ता है शहर की ओर रोजी रोटी के लिए ...
गाँव में बीती बहुत सी यादें ताज़ी हो उठी मन में ....पढ़कर गाँव जाने का मन है ...गर्मी में तो जाते ही है ....पर तब ऐसे बात कहाँ रहती हैं ...
prakriti se ek chauthai bhag loot liya aapne. anand maya
लहलहाते गेहूं और चने से भरे-लदे खेतों को मुस्कराते देखा तो सभी खुशी से उछल पड़े, सबके मुरझाये चेहरों पर खुशी छलक उठी जिसे देख मुझे लगा बसन्त खिल गया है। कई वर्ष बाद खेतों में लहलहाते गेहूं की फसल का मनोमुग्धकारी दृश्य देखा तो मन आत्मविभोर हो उठा। वहीं दो पल बैठ आंख मूंद सुकूं भरी जो राहत मिली उसे शहर की दौड़-धूप के बीच कभी महसूस नहीं कर सकी......वाह!! वाह!!!
मुझे भी ऐसा ही कुछ बार बार महसूस होता है ...आप खुशनसीब वाली हैं जो आपको गाँव जाने का मौका मिल जाता हैं यहाँ तो फुर्सत नहीं मिलती है कभी .......शिव की बंसी भी खूब पसंद आयी हैं ...
परीक्षा का बोझ उतरने के बाद गाँव में पिकनिक .चने -गेहूं की बालियाँ भूंज कर खाना और दाल बाटी ....भरे पुरे खेतों में बच्चों के साथ पिकनिक का मजा दूना हो गया होगा ........
.आपकी लेखनी और तस्वीरों ने गाँव में रमा दिया तो आपके बेटे शिव की बंसी ने बचपन में पढ़ी सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना याद करा दी .................
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।
ले देतीं यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।
..................................................
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
कविता जी बडा मजा आया आपके इस गांव प्रवास और खेतों का वर्णन पढ कर । छोड और उम्बी वह भी भुने हुए वाह मुंह में पान भर आया । पर किसी भी तरह मै दरांती तो नही चला पाउंगी आपकी जितनी तारीफ करूं वह थोडी है ।
Very good discription nice photos. In Punjab from so many years people not cultivate $ Chane, but reading your blog I rememberd my childhood when we did same.
Thanks
चने के खेत देखकर बचपन की याद आ गयी ..सभी फोटो उम्दा आलेख बेहतरीन सादर
थैंक यू आंटी, मेले ब्लॉग पर आने और मुझे अपना प्यार देने के लिए, बस इस प्यार को यूँ ही बनाये रखियेगा. देखिये मैं तो आपके ब्लॉग का मेम्बर बन गया आप भी बनो...मुझे अच्छा लगेगा.
और हाँ स्पेसली खेतों में घूमने का यह प्लान बहुत अच्छा लगा.....मुझे तो नया आइडिया मिल गया .......हा---हा--हा--
lekhnee ke isharon par goan ko jee diyaa aapne aa. Kvitaa Rawat ji Sadhoo
उत्कृष्ट यात्रा वर्णन। पूरा वर्णन पढने के बाद मैंने महसूस किया कि आपको जितना बच्चों से लगाव है उतना ही प्रकृति के साथ भी है। आजकल यह सजगता और प्रेम बहुत कम दिखाई देती है। सब अपने अपने कामों व्यस्त है। प्राकृतिक जुडाव कम रहा है।
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