आज वर्ष 1984 में भोपाल में हुई विश्व की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी की 38वीं बरसी है। इस त्रासदी में हज़ारोँ की संख्या में जान गँवाने वाले मृतकों की याद में लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 2 दिसंबर को 'राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस' (National Pollution Control Day) मनाया जाता है। जिसका उद्देश्य वर्तमान समय में बढ़ती जनसँख्या के कारण निरंतर मानव निर्मित औद्योगिक गतिविधियों, रसायनों के प्रयोग, खनिज तेल का उपयोग एवं प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण उत्पन्न सम्पूर्ण जीव जगत के लिए खतरे की घंटी बने अनेक प्रकार के प्रदूषण यथा- जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि के प्रति जनजागरण कर पर्यावरण प्रदूषण के बारे में जनता को जागरूक करना है। इस दिन राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस के माध्यम से सरकार एवं विभिन्न गैर-सरकारी संगठन कई कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, ताकि पर्यावरण प्रदूषण के कारकों, इसके नियंत्रण एवं निस्तारण में लोगों की सहभागिता के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण हेतु प्रभावी कार्ययोजना को लागू किया जा सके। इसके साथ ही जन-सहभागिता द्वारा विभिन्न नियमों एवं कानूनों के बारे में भी लोगों को जागरूक किया जाता है।
इस भीषण त्रासदी की बरसी आते ही आज भी मन में उथल-पुथल मचने लगती है। मुझे आज भी अच्छे से याद है कि जब 2-3 दिसंबर की आधी रात को आँखों में अचानक जलन और खांसी से हमारे पूरे परिवार का बुरा हाल होने लगा। तब पिताजी ने जब उठकर बाहर देखा तो देखते ही रह गई। चारों ओर हो-हल्ला मचा के बीच भागने की अफरा-तफरी मची थी। हमारे घर के सामने श्यामला हिल्स की सड़क पर कुछ लोग गाड़ी-मोटर और कुछ पैदल इधर-उधर भाग रहे थे। जो चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे कि गैस रिस गई है-भागो-भागो। भारी शोरगुल देख हम सभी घरवाले जब बाहर निकले तो ऐसा मंजर देख कुछ समझ नहीं आ रहा था। हमारे मोहल्ले के सामने एक जीप में लोग ठूस-ठूस कर भरे थे, लेकिन जैसे-तैसे जान बचे इसलिए पिताजी ने हम सभी को जबरदस्ती ठेल-ठेल कर उसमें ठुसा दिया और वे अपनी सायकिल लेकर हमारे पीछे-पीछे चल दिए। जीप जैसे-तैसे धीरे-धीरे जब 5-6 किलोमीटर दूर नीलबड़ पहुँची तो कुछ राहत मिली। वहां पहले से ही एक मैदान में हज़ारों की संख्या में लोग हैरान-परेशान बैठे हुए थे। सभी भारी चिंता में अपने घर और रिश्तेदारों की खैर खबर के लिए चिंतित थे। पुलिस प्रशासन भी भगदड़ से बचने के लिए लोगों को सचेत कर रहे थे। इसी दौरान जैसे ही माइक पर घोषणा हुई कि सब ठीक हो गया है, तो सुबह 5 बजे हम वापस घर लौटे। लेकिन अभी घर के अंदर घुसे भी न थे कि फिर से अफवाह फैली कि गैस फिर से रिस गई है, तो हमें फिर वहीँ भागना पड़ा। उसके बाद जब दिन में घोषणा हुई कि सब ठीक है तो हम सभी आँखों में जलन और श्वास की तकलीफ के चलते सीधे हमीदिया हॉस्पिटल पहुंचे, जहाँ रास्ते में सैकड़ों मवेशी इधर-उधर मरे पड़े दिखे। हर तरफ भ्रांतियों और आतंक से घोर सन्नाटा पसरा था। लोग ट्रकों से भर-भर कर इलाज के लिए आ रहे थे। कई लोग उल्टियाँ तो कई आँखों को मलते लम्बी-लम्बी सांस लेकर सिसकियाँ भर रहे थे। कई बेहोश पड़े थे जिन्हें ग्लूकोस और इंजेक्शन दिया जा रहा था। अस्पताल के वार्डों के फर्श पर शवों के बीच इंजेक्शन के फूटे एम्म्युल और आँखों में लगाने की मलहम की खाली ट्यूबें बिखरी पड़ी थी। मरने वालों में सबसे ज्यादा बच्चे थे, जिन्हें देखकर हर किसी के आँखों से आँसूं रुके नहीं रुकते थे। इस त्रासदी में लोगों का असहनीय दुःख देख मेरा मन कराह उठा,सोचने बैठ गयी-
मैं ही नहीं अकेली कहाँ इस जग में दुखियारीआँख खुली जब दिखी दुःख में डूबी दुनिया सारी
एक तरफ कांटे दिखे पर दूजी तरफ दिखी फुलवारी
समझ गयी मैं गहन तम पर उगता सूरज है भारी
गहन तम में नहीं जब दिल को कुछ सूझ पाया
तब परदुःख देख मैंने अक्सर यह दुःख भुलाया
इस विभाीषिका से एक साथ कई गंभीर सवाल सामने आये। जिसमें सबसे बड़ा सवाल यह उठा कि आखिर ऐसे जोखिम पैदा करने वाले कारखाने को घनी आबादी के बीच लगाने की अनुमति क्यों और कैसे मिल गई, जहाँ विषाक्त गैसों का भंडारण और उत्पादों में खतरनाक रसायन प्रयोग होता था। यह मध्यप्रदेश ही नहीं देश का सबसे विशाल कारखाना था, जिसमें हुई दुर्घटना ने सुरक्षा व्यवस्था और राजनीतिक सांठ-गांठ की पोल खोलकर रख दी। यह विश्व में एक अलग तरह का पहला हादसा था। यद्यपि इस विभीषिका से पहले भी संयंत्र में कई बार गैस रिसाव की घटनायें घट चुकी थी, जिसमें कम से कम दस श्रमिक मारे गए थे, जिसे साधारण घटना मानकर इस दिशा में कोई गंभीर कदम नहीं उठाये गए। 2-3 दिसम्बर 1984 की दुर्घटना मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस से हुई, जिसे बनाने के लिए फोस जेन नामक गैस का प्रयोग होता है। फोसजेन गैस भयावह रूप से विषाक्त और खतरनाक होता है। माना जाता है कि हिटलर ने यहूदियों के सामूहिक संहार के लिए इसी फोस्जेन नमक गैस के चेम्बर बनाये थे।ऐसे खतरनाक एवं प्राणघातक उत्पादनों के साथ संभावित खतरों का पूर्व आकलन और समुचित उपाय किए जाते हैं। यदि मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अगर समय रहते सुरक्षा उपाय के लिए कोई ठोस कदम उठाए होते तो इस विभीषिका से बचा जा सकता था। पूर्व की दुर्घटनाओं के बाद कारखाने के प्रबंधन ने उचित कदम नहीं उठाए और शासन प्रशासन भी कर्त्तव्यपालन से विमुख व उदासीन बना रहा। 38 बरस बीत जाने पर भी दुर्घटना स्थल पर पड़े रासायनिक कचरे को ठिकाने न लगा पाना और गैस पीडि़तों को समुचित न्याय न मिल पाना आज भी यह शासन प्रशासन की कई कमजोरियों को उजागर करता है।
...कविता रावत