मध्यप्रदेश स्थित रायसेन जिले के नर्मदा नदी किनारे स्थित एक छोटे से ग्राम भारकच्छ कला में धर्मेन्द्र मांझी का जन्म हुआ। जिसके गाँव में न तो कोई ढंग का स्कूल था और नहीं कोई कोचिंग व्यवस्था थी। अपने पारिवारिक दुर्दशा और सामाजिक परिवेश को देखते हुए उसने बचपन से ही मन में ठान लिया कि उसे डाॅक्टर बन के दिखाना है। इसके लिए उसने अपने गाँव से दूर एक अन्य शासकीय शाला में प्रवेश लिया। लेकिन वह स्कूल भी नाम का था और वहाँ अध्यापक भी केवल नाम भर के थे। फिर भी उसने जैसे-तैसे कर पहले १०वीं और फिर 12वीं पास कर ली। 12वीं पास होने के बाद उसे ज्ञात हुआ कि डाॅक्टर बनने के लिए तो पीएमटी की परीक्षा पास करनी होती है, जिसकी कोचिंग के लिए बहुत पैसा लगता है। इसके साथ ही उसके घरवालों और अन्य नाते-रिश्तेदारों ने भी उसे उसकी घर की माली हालत और कमजोर पढाई के कारण डॉक्टरी की कठिन पढाई के बारे भी कई दिल बिठा देने वाली बातें बताई। उससे अपने घर की माली हालत छुपी नहीं थी। घर का खर्चा ही बमुश्किल चलता था। ऐसे में कोचिंग की बात करना भी उनके लिए कोसों दूर की बात थी। उसके माँ-बाप मेहनत-मजदूरी करते थे। घर हरदम बड़ी कड़की से जैसे-तैसे चलता था। ऐसी स्थिति में उसके लिए कोचिंग के लिए पैसा जुटाना रेत में से पानी निकालने से कम न था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे?
एक दिन उसके मन में भोपाल आने का विचार आया। उसके पास किराये तक के लिए पैसे न थे और उसे घर से एक पैसा भी मिलने की उम्मीद न थी। इसलिए वह कुछ पैसों की व्यवस्था के लिए अपने गाँव से पैदल चलकर एक दूसरे गाँव पहुँचा, जहाँ वह शादी-ब्याह के कार्यक्रमों में हेल्पर का काम करने लगा। जहाँ उसके नंगे पाँवों में कांटे चुभते, सूजन आती, चलने- फिरने में भारी परेशानी आती, लेकिन वह उसी अवस्था में अपने काम में जुटा रहता रहता, हार नहीं मानता। कुछ दिन काम करने पर थोड़े-बहुत पैसे जमा हुए तो वह वहीँ से सीधे भोपाल पहुँच गया। जहाँ आकर उसे मालूम हुआ कि यदि कोई एससी/एसटी कोटे में आता है, तो कोचिंग वाले उसे निःशुल्क पढ़ाते हैं, जिसका पूरा खर्चा सरकार उठाती है। वह जानता था कि अन्य दूसरे राज्यों में मांझी जाति एसटी कोटे में आते हैं और मध्यप्रदेश में ओबीसी वर्ग में आते हैं, तो वह अपनी जाति को ओबीसी से एससी कोटे में बदलने के लिए भोपाल से वापस रायसेन लौटा और कलेक्टर ऑफिस में अर्जी लगाकर उसके चक्कर काटने बैठ गया। इस चक्करघनी में उसके कमाए पैसे भी खत्म हो गए। जब उसके पास बस में सफर करने तक के लिए पैसे नहीं बचे, तो वह इधर-उधर पैदल ही मारा-मारा भटकता फिरता। कभी-कभी चोरी-छुपे चुपके से बस में सफर भी कर लेता। उसके पास खाने के लिए भी पैसे नहीं थे। ऐसी हालत में वह किसी रिश्तेदार के घर जाना भी ठीक नहीं समझता और किसी बस स्टैंड या मंदिर में रात गुजार लेता। जहाँ उसके पास ओढ़ने -बिछाने के लिए कुछ भी नहीं था। ठंड में ऐसे ही ठिठुरता-सुकुड़ता रहता। पेट भरना भी उसके लिए एक तरह की मजबूरी थी, इसलिए उसे मांग-मांग कर खाना पड़ता था। अगर कभी कुछ खाने को नहीं मिला तो वह खाली पेट ही सो जाता। उसे निःशुल्क कोचिंग की खोज भी करनी थी, इसके लिए उसे किसी के साथ बात करने के लिए कोई मोबाईल भी न था, होता भी कहाँ से, घर में तो कुछ भी नहीं था, फिर कहाँ से लाता। करीब एक माह तक कलेक्टर कार्यालय के कई बाबू और अधिकारियों के चक्कर काटने के बाद उसे पता चल पाया कि मध्यप्रदेश में मांझी जाति के लोग ओबीसी में ही रहेंगे, एसटी में नहीं आ सकते हैं।
रायसेन से निराश होकर वह एक दिन बस की छत पर चुपके से चढ़कर भोपाल आ पहुंचा। भोपाल आकर इधर-उधर, मारे-मारे भटकते-भटकते उसे एक दिन किसी ने बताया कि सीएम से मिलने पर उसे मदद मिल सकती है तो उसने जैसे-तैसे एक आवेदन पहुँचाया। जिसके जवाब के लिए वह सीएम हाउस के कई दिन चक्कर पर चक्कर लगता रहा। जब उसे आवेदन दिए एक माह से भी अधिक समय हो गया और उसकी गुहार सीएम तक नहीं पहुँच सकी, तो वह वहाँ से निराश होकर लौट आया। वह भोपाल में अकेला था, जिसके पास न पैसा था और नहीं खाने-रहने की कोई व्यवस्था थी। वह दिन भर इधर-उधर निःशुल्क कोचिंग पढ़ाने वाली किसी संस्था को तलाशता फिरता और रात को कभी रेलवे स्टेशन तो कभी बस स्टैंड पर ही सो जाता। इधर-उधर कोचिंग के आस-पास भटकते-भटकते उसे समझ आ गया कि कोई उसे बिना पैसों के कोचिंग नहीं पढ़ायेगा, इसलिए उसे किसी सहारे की जरूरत महसूस हुई। घर से तो वह भागकर आया था, इसलिए उसे उनसे कोई उम्मीद नहीं थी। वह क्या करें क्या नहीं इसी उधेड़बुन में एक दिन अचानक बस स्टैंड में उसे उसके गांव का एक आदमी मिला, जिसने उसे भोपाल में रह रहे उसके बुआ के लड़के का घर का पता बताया, तो वह बड़ी उम्मीद से जैसे-तैसे उसके घर पहुँच गया। जहाँ उसे लगा कि चलो उसे आखिर कोई तो सहारा मिल गया, लेकिन उसकी ऐसी किस्मत कहाँ थी कि कोई उसका सहारा बनता। वह उनके घर क्या आया कि उन्हें लगा फ़ोकट का नौकर मिल गया। वह उससे घर का सारा काम करवाते। झाड़ू-पोछा, बर्तन-भांडे घीसने के लेकर खाना पकाने तक सारा काम उसके माथे मढ़ देते। वह मन में सोचता कि यही ठिकाना है। बाहर उसका कोई तो है नहीं। काफी दिनों तक ऐसे ही चलता रहा। उसने कोचिंग के लिए पैसे मांगे तो उन्होंने उसे कुछ सामान दिलाया, जिसे वह घूम-घूम कर बेचता था। जब थोड़े पैसे हुए तो वह कोचिंग की बात करने निकल पड़ा। यद्यपि उसे डर था कि बिना पैसों के कोई फ्री में नहीं पढ़ायेगा। तथापि उसने हिम्मत जुटाई और भोपाल के कोचिंग हब एमपी नगर पहुँच गया। जहाँ सबसे पहले बोर्ड ऑफिस के सामने वाली एक बहुमंजिला नामी-गिरामी कोचिंग संस्था में पहुंचा। जहाँ कोचिंग में उससे टीचर ने कुछ साइंस के प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर वह नहीं दे पाया तो उन्होंने उसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि मेडिकल की पढ़ाई उसके बूते से बाहर की बात नहीं है। वह सपने में भी डॉक्टर नहीं बन सकता है इसलिए उसे कोई दियाड़ी- मजदूरी का काम देखना चाहिए। यह सुनकर उसके दिल में ऐसी चोट लगी कि उसे लगा जैसे किसी ने उसे उस बहुमंजिला इमारत की छत से धक्का मारकर नीचे जमीन पर पटक दिया हो और वह वहां अपनी 'गरीबी में डॉक्टरी ' का सपना पहले ही पायदान पर आकर टूटता-बिखरता देख कराह रहा हो। वह खट्टे मन से सोचते-विचारते अपने ठिकाने पर लौटकर चित लेट गया।
शेष अगले अंक में ...
2 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 28 जुलाई 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
किसी किसी की जिंदगी संघर्षों से भरी होती और उस संघर्ष में किए गए परिश्रम से तरक्की के द्वार खुलते...अगले अंक की प्रतीक्षा..
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