गरीबी में डॉक्टरी : कहानी (भाग-3) एक और मांझी की डॉक्टर बनने की संघर्ष गाथा - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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बुधवार, 31 जुलाई 2024

गरीबी में डॉक्टरी : कहानी (भाग-3) एक और मांझी की डॉक्टर बनने की संघर्ष गाथा

पूर्व से निरन्तर........ 

पहले वर्ष जब उसने पीएमटी की परीक्षा दी तो उसे 200 में से 30 अंक मिले। उसके पास न पैसे थे न खाने-पीने और रहने का कोई ठिकाना ही था, ऊपर से परीक्षा का परिणाम भी निराशाजनक रहा।  अब वह आगे क्या करे? उसके सामने बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी थी। वह हिम्मत कर फिर कोचिंग वाले सर से मिला और उसने आगे फिर से आगे की तैयारी करने की बात कही तो उन्होंने उसे 'हाँ' कहा तो वह दूसरे वर्ष होने वाली परीक्षा की तैयारी में जुट गया। वह सुबह से कोचिंग के लिए निकल जाता और रात 8 बजे आकर कभी खाना बनाकर खाता तो कभी यूँ ही भूखे पेट सो जाता। दूसरे वर्ष की तैयारी करते समय वह क्लास में अच्छे से लिख भी नहीं पाता था, कारण उसकी इंग्लिश बहुत ही कमजोर थी और होती क्यों नहीं उसने तो शुरू से ही हिंदी मीडियम से जैसे-तैसे पढ़ाई जो की थी। चूँकि मेडिकल की सारी किताबें अंग्रेजी माध्यम की थी, इसलिए उन्हें पढ़ पाना उसके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही थी। उससे इंग्लिश लिखते बनती न पढ़ते, ऐसे दशा में वह क्लास के नोट्स बनाये तो कैसे, यह उसके सामने एक बहुत बड़ी चुनौती थी। क्लास में टीचर क्या पढ़ाते, क्या बोलते, उसे कुछ समझ नहीं आता। यह देख उसको बहुत रोना आता लेकिन रोकर भी क्या करता। यह उसकी बचपन से पढ़ी अधकचरी शिक्षा का परिणाम जो था। वह सोचता उसे अगर स्कूल में किसी ने अच्छे से पढ़ाया होता तो उसे आज ये दिन नहीं देखने पड़ते। कुछ समय वह निराश जरूर हुआ लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। वह आगे बढ़ा। वह क्लास में भी बहुत कमजोर था। टेस्ट होता तो वह सबसे नीचे के पायदान में अपने को पाता तो उसे बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती कि सर  और बच्चे उसे क्या कहेंगे। खैर उसे इसकी आदत हो चली तो वह बहुत सोच विचार नहीं करता। 

उसने दूसरी बार पीएमटी की परीक्षा दी तो उसे अबकी बार 200 में से उसे 70 अंक मिले। पिछले वर्ष की तुलना में उसे अंक दुगुने भले ही मिले लेकिन यह नाकाफी था तो वह फिर से निराश हुआ। उसके सामने रहने-खाने, पहनने-ओढ़ने की समस्याएँ तो जस की तस खड़ी थी, ऊपर से रिजल्ड भी अनुकूल नहीं आया तो वह खूब रोता-कलपता रहा। लेकिन उसे सुनने वाला कोई नहीं था तो फिर उसने आपने आप को वह खुद ही संभाला।  मन को ढाढंस बंधाया कि पहले वर्ष की तुलना में वह अच्छे अंक लाया है तो फिर उसने मन में ठान लिया कि चाहे जो कुछ भी हो जाए, वह एक दिन जरूर पीएमटी की परीक्षा निकाल के रहेगा। उसके मनोबल को देखकर टीचर्स ने भी उसका हौंसला बढ़ाया तो उसका मन टूटकर बिखरने से बच गया। 

टीचर्स उसके हौसले देख उसे समझाते कि कोई बात नहीं फिर जुट जाओ, आखिर बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को भी कई असफलताओं के बाद सफल हुए हैं, कर्मवीर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते हैं। पढ़ने के लिए उसे हौंसला तो मिल जाता लेकिन उसको आर्थिक तंगी सता रही थी। एक-एक दिन उसका बड़ी मुश्किल से गुजरता था, लेकिन वह आगे बढ़ता रहा, उसने अपनी हिम्मत नहीं हारने दी। उसे मन में एक दृढ विश्वास था। इसलिए वह भगवान का नाम लेता और फिर जुट जाता। उसके सौभाग्य से विजय सिंह क्लासेस में उसे धीरे-धीरे मददगार लोग मिलने लगे। जिन्होंने  उसका मनोबल बढ़ाया। वह एक-एक पल को बहुत कीमती समझता था। एक दिन उसने सोचा कि नादरा बस स्टैंड बहुत दूर है, जिस कारण उसका काफी समय आने-जाने में ही निकल जाता है। इसलिए उसने वहाँ से अपना बोरी-बिस्तर उठाकर बस की छत पर रखा और बस में बैठकर एमपी नगर निकल पड़ा। बस जैसे-जैसे एमपी नगर की ओर बढ़ी उसमें बड़ी भीड़-भाड़ हो चुकी थी। एमपी नगर बस रुकी तो वह बड़ी मशकत के बाद हाथ में एक पन्नी लिए नीचे उतरा और जैसे ही वह अपना सामान बस की छत से उतारने के लिए पीछे से चढ़ने लगा, बस चल दी, वह चिल्लाता रहा लेकिन शोर-गुल की मारे किसी ने उसकी आवाज नहीं सुनी। उसका सारा सामान बस के साथ ही चला गया। फिर वह वहीं बस स्टैंड में पन्नी बिछाकर सो गया। उसने ऐसे ही रहकर एमपी नगर बस स्टाप पर करीब ३ माह तक अपना डेरा जमाये रखा। 

एक दिन वह भीमनगर नाम की झुग्गी-झोपड़ी बस्ती में गया और वहां एक झोपड़ी देख आया। जिसका किराया 700 रूपए महीना था। वह कमरा क्या था एक ऐसी कच्ची झोपड़ी थी, जो चारों से पन्नियों से बंधी थी। दरवाजे के नाम पर उस पर एक पन्नी लटका रखी थी। उस समय वह तीसरे वर्ष की तैयारी कर रहा था। पैसों की कोई व्यवस्था न होने से उसने एक किराने की दुकान में काम किया ताकि वह कमरे का किराया और खाने-पीने का खर्चा निकाल सके। दुकान से उसे 1200 रूपए मिलते, जिसमें से वह 700 रुपए किराये देता और बाकी के पैसों से अपना गुजारा करता। सुबह-सुबह बिना खाये-पिए वह कोचिंग जाता और जब 3 बजे कोचिंग छूटती, तब वह आते समय इधर-उधर से कुछ लकड़ी इकठ्ठा कर अपने साथ लाता और झोपड़ी में आकर मिट्टी के चूल्हे में आग सुलगाकर अपने पेट की आग बुझाता। उसके पास नाश्ता-पानी तक के लिए भी पैसे नहीं रहते थे। वह भीम नगर से कोचिंग तक पैदल ही आना-जाना करता था। इस बीच उसकी कोचिंग की पढ़ाई भी ठीक-ठाक चलने लगी। इतना कि वह समझ लेता था कि टीचर क्या पढ़ा रहे हैं और क्या परीक्षा में पूछा जा सकता है। वह समझ न आने वाली कुछ बातों को तो टीचर से पूछ लेता और कुछ को याद कर लेता। वह सोचता कभी तो उसकी समझ में आ ही आएगा। वह कोचिंग में जो भी पढ़ाते उसे बार-बार पढ़ता-रटता। वह जानता था कि वह हिंदी माध्यम का एक कमजोर विद्याथी है, जहाँ उसे मेडिकल की अंग्रेजी में लिखी किताबें पढ़नी है। 

भले ही उसे अंग्रेजी बिल्कुल भी नहीं आती थी, फिर भी वह 'करत-करत अभ्यास के, जड़मति हो सुजान' की तर्ज पर निरंतर अभ्यास करता रहा और धीरे-धीरे अंग्रेजी सीखता चला गया। वह धीरे-धीरे इंग्लिश पढ़ने का भी अभ्यास करता रहा, जहाँ उसे बड़ी कठिनाई महसूस होती थी। उसके सामने गँभीर समस्या थी कि वह क्या-क्या सीखें और क्या-क्या पढ़े-लिखे। उससे साइंस भी नहीं बनता, इंग्लिश भी नहीं और आर्थिक परेशानी अलग थी, जो उसे विरासत में मिली थी। वह कभी थोड़ा रुकता और फिर हिम्मत करके आगे बढ़ने लगता। वह पढ़ाई करने बैठता तो एक ही शब्द को कई बार पढ़ता और लिखता चला जाता। वह दिन भर कोचिंग में रहता और अपनी झोपड़ी में आकर बहुत देर रात तक पढ़ता रहता। ऐसे ही एक दिन बहुत देर रात जब वह पढ़ रहा था तो उसका मकान मालिक और मालकिन दोनों दारू के नशे में धुत होकर अस्त-व्यस्त हालत में उसके दरवाजे की पन्नी फाड़कर उसके कमरे में घुस आये और वहां आकर एक-दूसरे को गन्दी-गन्दी गालियाँ देकर लड़ने-झगड़ने और मार-पीट करने लगे। बड़ी मुश्किल से उसने जैसे-तैसे उन्हें अपनी झोपड़ी से बाहर कर तो लिए लेकिन वह वह बुरी तरह घबरा गया। उसे फिर रात भर नींद नहीं आई। उसे समझ में आ गया कि यहाँ का माहौल किसी भी हालात में पढ़ने लायक नहीं तो वह सुबह-सुबह वहाँ से अपना झोला-टंडा लेकर फिर सड़क पर आ गया। 

दो दिन तक ऐसे ही चलता रहा। फिर तीसरे दिन जब विजय सर ने उसे पूछा कि कहाँ रहते हो तो उसने अपना हाल उन्हें सुनाया। वे बोले तुम अगर चाहो तो हमारे स्कूल में रह सकते हो। अंधे को क्या चाहिए दो ऑंखें, उसने 'हां' कहा और उसने अपना झोला-टंडा समेटा और स्कूल पहुंच गया। स्कूल में उसे कमरे की जगह एक छोटा सा किचन मिला, जहाँ उसने अपना चूल्हा चौका रखा और बच्चों के क्लास के पीछे एक कोने में अपना बाकी का सामान रखा और भगवान का धन्यवाद किया कि उन्होंने उसे ठिकाना दिया है। सुबह वह जब स्कूल के बच्चे आते तो उस समय कोचिंग चला जाता और जब वह शाम को स्कूल आता तो तब तक बच्चे घर चले गए होते, तो वह फिर खाना बनाता और रात को बच्चों के बेंच जोड़कर उनके ऊपर सो जाता। उसे थोड़ा सुकून था और खुशी इस बात कि रहने को जगह मिल गयी है।  विजय सर उससे कोई पैसे नहीं लेते थे। पूरे स्कूल में वह अकेला ही रहता था। रात को उसे बहुत डर लगता था। लेकिन उसके पास कोई चारा नहीं था। धीरे-धीरे उसका डर जाता रहा और उसे अकेले रहने की आदत हो गई। कभी-कभी विजय सर जब स्कूल आते तो उसे अपने साथ कार में बिठाकर कोचिंग ले आते और कभी-कभी अपने घर पर ले जाते। जहाँ उसे विजय सर के परिवार से सभी सदस्यों से मिलकर बहुत अच्छा लगता।वह जब भी घर आता तो दादा-दादी उसे खाना खिलाये बिना वापस नहीं भेजते तो, उसे बड़ी ख़ुशी मिलते, उसे लगता अब सब कुछ ठीक-ठाक है।  

निरंतर .............

निरंतर ---