ग्रीष्मकाल आया तो धरती पर रहने वाले प्राणी ही नहीं अपितु धरती भी झुलसने लगी। खेत-खलियान मुरझाये तो फसल कुम्हालाने लगी। घास सूखी तो फूलों का सौन्दर्य-सुगंध तिरोहित हुआ। बड़े-बड़े पेड़-पौधे दोपहर की तपन में अपनी आत्मजा पत्तियों को पीले पड़ते देख निरीहता से आसमान की ओर टकटकी लगा बैठे। काल के कराल गाल में समाती पत्तियाँ खड़-खड़ के शब्द से धरती को अपना अंतिम प्रणाम कर एक के बाद एक विदा होने लगे। आसमान पसीजा तो वर्षा ऋतु आई। धरती शीतल हुई, उसके धूल-मिट्टी से लिपटे-झुलसे तन पर रोमकूप फूट पड़े। पेड़-पौधे, वन-उपवन, बाग-बगीचे हरी-भरी घास की चादर ओढ़े लहलहा उठे। सूखे ताल-तलैया, नदी-नालों की रौनक लौट आई। गरजते-चमकते बादलों ने बारिश की झड़ी लगाकर धरती को झूले का रूप दिया तो आसमान से सावन उतर आया।
सावन के मेलों की गूंज कानों में गूंज उठी तो शहरी भाग-दौड़ भरी जिन्दगी कदमताल करती सावन की
मनमावनी फुहारों और धीमी-धीमी बहती हवाओं में डूबने-उतरने लगी। सावनी मेले में पेड़ की टहनी से बंधे झूले में झूलते लोगों को देख मन मयूर नाच उठा। लेकिन जब भीड़-भाड़ भरे माहौल में झूला झूलने के लिए रस्सा-कसी करते लोगों का हुजूम देखा तो मुझे बरगद का वह पेड़ याद आया जिसकी लटकती जड़ों को पकड़कर हम बच्चे कभी स्कूल आते-जाते मिलजुल कर जी भर झूलते और अपनी पुस्तक की कविता भी जोर-जोर से दुहराते चले जाते-
"आओ हम सब झूला झूलेंमनमावनी फुहारों और धीमी-धीमी बहती हवाओं में डूबने-उतरने लगी। सावनी मेले में पेड़ की टहनी से बंधे झूले में झूलते लोगों को देख मन मयूर नाच उठा। लेकिन जब भीड़-भाड़ भरे माहौल में झूला झूलने के लिए रस्सा-कसी करते लोगों का हुजूम देखा तो मुझे बरगद का वह पेड़ याद आया जिसकी लटकती जड़ों को पकड़कर हम बच्चे कभी स्कूल आते-जाते मिलजुल कर जी भर झूलते और अपनी पुस्तक की कविता भी जोर-जोर से दुहराते चले जाते-
पेंग बढ़ाकर नभ को छूलें
है बहार सावन की आयी
देखो श्याम घटा नभ छायी
अब फुहार पड़ती सुखदायी
ठंडी-ठंडी अति मन भायी।"
सावन में प्राकृतिक सौन्दर्य अनन्त, असीम है। चारों ओर पेड़-पौधे हरियाली में डूबे नजर आते हैं। हर छोटे-बड़े पेड़-पौधों का अपना-अपना निराला रंग है, ढंग है, ऐसी दुर्लभ शिल्पकारी मानव द्वारा संभव नहीं! प्रकृति के इन रंगों में डूब जाना जिसने भी सीखा उसे मानव सौन्दर्य फीका लगा है। ऐसी ही निराली प्राकृतिक छटा देख प्रकृति के चतुर चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत कहते हैं-
"छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन।।"
सारी ऋतुएं बारी-बारी से पृथ्वी पर आती जाती रहती है। जिस प्रकार पृथ्वी उनका समान रूप से स्वागत करती है हम मनुष्य नहीं कर पाते। धरती शीत और गर्मी को तो सहन करती ही है लेकिन वह हमारे घरों-बाजारों के कूड़ा-करकट, गंदगी को भी ढोने वर्षा को माध्यम बनाकर चली आती है। वह अपनी परम्परा को समान भाव से निभाती रहती है। धरती के समान ही हम मनुष्यों को भी सुख-दुःख, मान-सम्मान, सर्दी-गर्मी में समान रहना चाहिए, इस बात को रहीम ने बड़े ही सटीक दोहे के माध्यम से समझाया है-
"धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।जैसी परे सो सहि रहै, त्यों ‘रहीम’ यह देह।।"
....कविता रावत