सावन के झूले और उफनते नदी-नाले - Kavita Rawat Blog, Kahani, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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शनिवार, 17 अगस्त 2013

सावन के झूले और उफनते नदी-नाले

ग्रीष्मकाल आया तो धरती पर रहने वाले प्राणी ही नहीं अपितु धरती भी झुलसने लगी। खेत-खलियान मुरझाये तो फसल कुम्हालाने लगी। घास सूखी तो फूलों का सौन्दर्य-सुगंध तिरोहित हुआ। बड़े-बड़े पेड़-पौधे दोपहर की तपन में अपनी आत्मजा पत्तियों को पीले पड़ते देख निरीहता से आसमान की ओर टकटकी लगा बैठे। काल के कराल गाल में समाती पत्तियाँ खड़-खड़ के शब्द से धरती को अपना अंतिम प्रणाम कर एक के बाद एक विदा होने लगे। आसमान पसीजा तो वर्षा ऋतु आई। धरती शीतल हुई, उसके धूल-मिट्टी से लिपटे-झुलसे तन पर रोमकूप फूट पड़े। पेड़-पौधे, वन-उपवन, बाग-बगीचे हरी-भरी घास की चादर ओढ़े लहलहा उठे। सूखे ताल-तलैया, नदी-नालों की रौनक लौट आई। गरजते-चमकते बादलों ने बारिश की झड़ी लगाकर धरती को झूले का रूप दिया तो आसमान से सावन उतर आया। 
          सावन के मेलों की गूंज कानों में गूंज उठी तो शहरी भाग-दौड़ भरी जिन्दगी कदमताल करती सावन की
मनमावनी फुहारों और धीमी-धीमी बहती हवाओं में डूबने-उतरने लगी। सावनी मेले में पेड़ की टहनी से बंधे झूले में झूलते लोगों को देख मन मयूर नाच उठा। लेकिन जब भीड़-भाड़ भरे माहौल में झूला झूलने के लिए रस्सा-कसी करते लोगों का हुजूम देखा तो मुझे बरगद का वह पेड़ याद आया जिसकी लटकती जड़ों को पकड़कर हम बच्चे कभी स्कूल आते-जाते मिलजुल कर जी भर झूलते और अपनी पुस्तक की कविता भी जोर-जोर से दुहराते चले जाते- 
"आओ हम सब झूला झूलें
पेंग बढ़ाकर नभ को छूलें
है बहार सावन की आयी
देखो श्याम घटा नभ छायी
अब फुहार पड़ती सुखदायी
ठंडी-ठंडी अति मन भायी।"

सावन में प्राकृतिक सौन्दर्य अनन्त, असीम है। चारों ओर पेड़-पौधे हरियाली में डूबे नजर आते हैं। हर छोटे-बड़े पेड़-पौधों का अपना-अपना निराला रंग है, ढंग है, ऐसी दुर्लभ शिल्पकारी मानव द्वारा संभव नहीं! प्रकृति के इन रंगों में डूब जाना जिसने भी सीखा उसे मानव सौन्दर्य फीका लगा है। ऐसी ही निराली प्राकृतिक छटा देख प्रकृति के चतुर चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत कहते हैं- 
"छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन।।"

सावन में कभी धूप तो कभी मूसलाधार वर्षा भी कम सुहावनी नहीं होती। झमाझम बरसते बदरा को देख हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच छुपी कोयल की मधुर कूक, आसमान से जमीं तक पहुंचती इन्द्रधनुषी सप्तरंगी छटा, जलपूरित नदी-नालों, ताल-तलैयों में मेंढ़कों का टर्रटर्राना मन विस्मित कर लेता है। शहरी नालों को विकराल रूप में नदी सदृश बनता देख मेरा मन भी प्रसाद जी के ‘प्रकृति सौन्दर्य’ की तरह उनमें डूबने-उतरने लगता है- ‘सघन वृक्षाच्छादित हरित पर्वत श्रेणी, सुन्दर निर्मल जलपूरित नदियों की हरियाली में छिपते हुए बहना, कई स्थानों में प्रकट रूप से वेग सहित प्रवाह हृदय की चंचलता को अपने साथ बहाए लिए जाता है।' 
सारी ऋतुएं बारी-बारी से पृथ्वी पर आती जाती रहती है। जिस प्रकार पृथ्वी उनका समान रूप से स्वागत करती है हम मनुष्य नहीं कर पाते। धरती शीत और गर्मी को तो सहन करती ही है लेकिन वह हमारे घरों-बाजारों के कूड़ा-करकट, गंदगी को भी ढोने वर्षा को माध्यम बनाकर चली आती है। वह अपनी परम्परा को समान भाव से निभाती रहती है। धरती के समान ही हम मनुष्यों को भी सुख-दुःख, मान-सम्मान, सर्दी-गर्मी में समान रहना चाहिए, इस बात को रहीम ने बड़े ही सटीक दोहे के माध्यम से समझाया है-
"धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्यों ‘रहीम’ यह देह।।"


....कविता रावत



23 टिप्‍पणियां:

  1. "धरती की सी रीत है,सीत घाम औ मेह।
    जैसी परे सो सहि रहै,त्यों‘रहीम’यह देह।।"
    यह दोहा ही पूरे आलेख का सार है ,,,
    बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति,,,,
    RECENT POST: आज़ादी की वर्षगांठ.

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  2. "आओ हम सब झूला झूलें
    पेंग बढ़ाकर नभ को छूलें
    है बहार सावन की आयी
    देखो श्याम घटा नभ छायी
    अब फुहार पड़ती सुखदायी
    ठंडी-ठंडी अति मन भायी।"
    .........
    वाह! बहुत सुन्दर ..यह तो मुझे भी बहुत पसंद था स्कूल के दिनों में कुछ भूल रहा था .....आज याद आ गए वे दिन ...

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  3. सबको पोषित करती है यह ऋतु, शारीरिक और मानसिक रूप से।

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  4. सावन होता ही है मनभावन
    धरती सच में सबके लिए सम भाव रखती है तभी तो हम उसे धरती माता कहते हैं
    साभार!

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  5. इस लेख में आपने छोटे-छोटे वाक्‍यों से शुरुआत की वह अच्‍छा रहा। अच्‍छी मनभावन पोस्‍ट बन पड़ी है।

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  6. अति सुन्दर सावन के जैसे ही मनभावनी पोस्ट ...

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल रविवार (18-08-2013) को "नाग ने आदमी को डसा" (रविवासरीय चर्चा-अंकः1341) पर भी होगा!
    स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!

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  9. प्यारी सी पोस्ट....सुन्दर तस्वीरें....
    आखिर हमारे शहर की हैं <3

    अनु

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  10. "धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
    जैसी परे सो सहि रहै, त्यों ‘रहीम’ यह देह।।"..

    रहीम के इस दोहे के साथ जीव और प्राकृति की समरसता को बाखूबी शब्दों में उतारा है आपने ... सावन की प्राकृति क्षटा को बस अनुभव किया जा सकता है ... जो सहज ही अपनी पोस्ट में उतारा है आपने ...

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  11. प्रकृति मनोरम दृश्यों और चपल वर्णन ने मन को मोह लिया।

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  12. वर्षा ऋतु के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन उपयुक्त शब्दों द्वारा... सुन्दर आलेख

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  13. सुन्दर ऋतु वर्णन बधाई

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  14. " सावन के का बात हे भाई सावन तो मनभावन ए । सबो महीना आथे जाथे फेर सावन तो सावन ए ।

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  15. एक ललित निबन्ध सा ....

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  16. बेनामी14:41

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} के शुभारंभ पर आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट को हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल में शामिल किया गया है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा {रविवार} (25-08-2013) को हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar

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  17. वाह क्या बात है सावन के आशिकों की कमी नहीं...हमें तो लगा हम ही अकेले हैं ब्लॉग की दुनिया में सावन के पुजारी...पर आप तो लगता है कि पूर्णरुपेन पुजारिन हैं...हम तो अभी आरती उतारने की थाल ही पकड़ना सीख रहे हैं...बहुत खूबसूरत ललित रचना...

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  18. sundar post.prakriti ka manohari chitran.
    परती परिकथा : कोसी की
    http://dehatrkj.blogspot.com/2013/08/blog-post_25.html

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  19. कविता जी
    बहुत सुन्‍दर रचना प्रस्‍तुत की है आपने आभार
    माइ बिग गाइड की इस नई कडी का अवलोकित कर टिप्‍पणी के माध्‍यम से उत्‍साहवर्धन करने का कष्‍ट करें,
    My Big Guide Idea Wall माइ बिग गाइड आइडिया वाल
    Turn the wireless electricity वायरलेस हो जाये बिजली

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  20. बहुत सुन्‍दर प्रस्तुति!

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  21. सुन्दर पोस्ट...सुन्दर तस्वीरें :)

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