मगर, रुकना मुमकिन नहीं,
ये हक़ की जंग आसान नहीं।
हर आँसू बने अब मशाल,
हर पीड़ा बने एक सवाल।
उठो! कि अब भी वक्त है,
बदलाव की यह दस्तक है!
जब आगे बढ़ने का हक़ छिने,
तब धड़कनें भी रो उठती हैं।
सपनों का बोझ कागज़ों में,
ज़मीं पर गहरे घाव करती है।
न्याय-चौखट आज सूनी है,
सत्ता की भाषा पैसे की है।
सवाल उठाना बेमानी है,
सर उठाने की मनाही है। ....मगर, रुकना .....
सच लिखती थी जो कलम,
वो डर के साये में थमी है।
जो गूँजती थीं आवाज़ें,
वो खामोशी में डूबी हैं।
अधिकारों की लौ जलानी है,
इंसाफ़ की राह बनानी है।
मगर, रुकना मुमकिन नहीं,
ये हक़ की जंग आसान नहीं।
हर आँसू बने अब मशाल,
हर पीड़ा बने एक सवाल।
उठो! कि अब भी वक्त है,
बदलाव की यह दस्तक है!
ये हक़ की जंग आसान नहीं।
हर आँसू बने अब मशाल,
हर पीड़ा बने एक सवाल।
उठो! कि अब भी वक्त है,
बदलाव की यह दस्तक है!
.... कविता रावत

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