देश की स्वतंत्रता के लिए 1857 से लेकर 1947 तक क्रान्तिकारियों व आंदोलनकारियों के साथ ही लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय खूब लिखा गया। खूब पढ़ा गया। आज की तरह तब सम्प्रेषण के संसाधन बिलकुल न होते हुए भी वह सृजन आम आदमी तक पहुँचता था। हर देशवासी उस सृजन का सहयोग पाता था। यह भी विचारणीय है कि उस समय का भारतीय भूगोल बहुत बड़ा था। लाहौर से लेकर गुवाहाटी तक, कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक, यदि कहीं भी राष्ट्रचेतना शब्दांकित हुई तो चंद लम्हों में ही वह चेतना स्वर बनकर पूरे भारत में गूँजती थी। देश तो संसाधनहीन था ही, जो लिख रहे थे वे खुद संसाधन से रहित सृजनकार थे, लेकिन उनकी शब्दों में इतनी क्षमता थी कि हर रचना पूरे भारत में प्रवाहित हो रही थी। देश जाग रहा था। अंग्रेजी हुकूमत परेशां हो रही थी।
प्रेमचंद की 'रंगभूमि, कर्मभूमि' उपन्यास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का 'भारत -दर्शन' नाटक, जयशंकर प्रसाद का 'चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त' नाटक आज भी उठाकर पढि़ए देशप्रेम की भावना जगाने के लिए बड़े कारगर सिद्ध होंगे। वीर सावरकर की "1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" हो या पंडित नेहरू की 'भारत एक खोज' या फिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की 'गीता रहस्य' या शरद बाबू का उपन्यास 'पथ के दावेदार' जिसने भी इन्हें पढ़ा, उसे घर-परिवार की चिन्ता छोड़ देश की खातिर अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए स्वतंत्रता के महासमर में कूदते देर नहीं लगी। राष्ट्रीयता के विकास के लिए जयशंकर प्रसाद ने अतीत की ओर दृष्टि दौड़ाई। अपनी कविताओं तथा नाटकों में इन्होनें भारत के स्वर्णिम इतिहास को चित्रित किया। स्कंदगुप्त , चन्द्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी आदि नाटकों के माध्यम से वर्तमान सामाजिक चुनौतियों के सामने अपना प्रतिरोध दर्ज कराया। प्रादेशिक और विभिन्न विचारधाराओं के तनाव से गुजर रहे भारतीय स्वाधीनता संघर्ष को इससे अधिक प्रेरक संदेश कौन दे सकता है, जो चन्द्रगुप्त नाटक के माध्यम से चाणक्य कहता है कि-
‘मालवा और मगघ को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी तो मिलेगा।’
अर्थात आर्यावर्त की स्थापना विभिन्नता को छोड़कर स्वाधीनता के केन्द्रीय लक्ष्य की ओर प्रयत्न करके ही मिलेगा। यहां आर्यावर्त अखंड भारत का प्रतीक है। इस नाटक में अनेक गीत प्राचीन भारत के गौरव से युक्त हैं। नारी जागरण से सशक्त स्वर लेकर संपूर्ण राष्ट्र के युवकों का ललकार भरा आह्वान करती है-
हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्वला, स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्यवीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञा सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है-बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
निराला परंपरा के गहरे बोध के कवि हैं। उन्होंने सांस्कृतिक धरातल पर तुलसीदास कविता में नवजागरण के मूल आशय स्वतंत्रता को अभिव्यक्त किया है-
जागो जागो आया प्रभात, बीती वह बीता अंध रात,
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वांचल बांधो बांधो किरणें चेतन,
तेजस्वी, हे तम जिज्जीवन। आती भारत की ज्योतिर्धन महिमाबल।।
यहां पराधीनता के अंधकार से स्वाधीनता का प्रभात है। जागरण का स्वर भारतेन्दु के प्रबोधनी शीर्षक कविता का आधुनिक संस्करण है। वहां भारतनाथ को जगाने की चेष्टा है यह भारत के महिमा, बल और सांस्कृतिक पंरम्परा के माध्यम से आत्मगौरव के प्रसार का प्रयत्न। लोगजागरण के दौर में तुलसी की कविता ने सामंती बंधनों को तोड़कर लोकमंगल का प्रकाश फैलाया था। नवजागरण के दौर में वही प्रकाश तुलसी की प्रेरणा से साम्राज्यवाद के बंधनों को झटककर स्वाधीन भारत के सूर्य के अवतरण का उत्सव बन जाता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्ता ने “भारत-भारती“ में देशप्रेम की भावना को सर्वोपरि मानते हुए आह्वान किया-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।“
देश पर मर मिटने वाले वीर शहीदों के कटे सिरों के बीच अपना सिर मिलाने की तीव्र चाहत लिए सोहन लाल द्विवेदी ने कहा-
“हो जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।“
वहीं आगे उन्होंने “पुष्प की अभिलाषा“ में देश पर मर मिटने वाले सैनिकों के मार्ग में बिछ जाने की अदम्य इच्छा व्यक्त की-
“मुझे तोड़ लेना बनमाली! उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेक।।“
सुभद्रा कुमारी चौहान की “झांसी की रानी" कविता को कौन भूल सकता है, जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला कर रख दी। वीर सैनिकों में देशप्रेम का अगाध संचार कर जोश भरने वाली अनूठी कृति आज भी प्रासंगिक है-
“सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढे़ भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहिचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तनवार पुरानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी की रानी थी।“
“पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं“ का मर्म स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहे वीर सैनिक ही नहीं वफादार प्राणी भी जान गये तभी तो पं. श्याम नारायण पाण्डेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ के लिए "हल्दी घाटी" में लिखा-
“रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था,
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था,
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।“
स्वाधीनता आंदोलन में लेखकों की भूमिका। केवल राष्ट्र के लिए था यह सृजन । स्वतंत्रता दिवस विशेष।
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14 टिप्पणियां:
आदरणीय दीदी
प्रस्तुति शिड्यूल कर दी हई थी
अभी प्रस्तुति को रिव्हर्ट कर के जोड़ दी हूँ
सादर
राष्ट्रीय पर्व की हार्दिक शुभकामनायें.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-08-2017) को "भारत को करता हूँ शत्-शत् नमन" चर्चामंच 2697 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
स्वतन्त्रता दिवस और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर ।
Aise Rashtrabhakti abb bhi aaye toh sabb sudhre. Bahut Achchhi Prastuti.
आज़ादी में अनगिनत अनाम लोगों का बलिदान भी है कलम के सिपाहियों और तलवार के शूरवीरों के अलावा ... ये किसी एक परिवार या एक संस्था की बपोत न कभी थी न रहेगी ... सबको बराबर का श्रेय मिलना ज़रूरी है ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, श्री कृष्ण, गीता और व्हाट्सअप “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सत्य ही है इतिहास को याद करना ,वर्तमान की प्रगति हेतु अति आवश्यक है उम्दा ! आभार ,"एकलव्य"
कविता जी,संग्रहणीय है आपका यह आलेख । महान रचनाकारों की काव्यपंक्तियों को पढ़ना बहुत जोश भर से भर जाता है। सच में, वही थी असली सृजनशीलता तो !
बेहतरीन लेख ... तारीफ-ए-काबिल ... Share करने के लिए धन्यवाद। :)
इन कविताओं के अंश पढ़ते ही मन में सिहरन दौड़ पड़ती है।
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बहुत सुन्दर आलेख
बहुत सुन्दर ।
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