गरीबी में डॉक्टरी : कहानी (भाग- 8) एक और मांझी की डॉक्टर बनने से संघर्ष गाथा - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
ब्लॉग के माध्यम से मेरा प्रयास है कि मैं अपनी कविता, कहानी, गीत, गजल, लेख, यात्रा संस्मरण और संस्मरण द्वारा अपने विचारों व भावनाओं को अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन के साथ-साथ सरलतम अभिव्यक्ति के माध्यम से लिपिबद्ध करते हुए अधिकाधिक जनमानस के निकट पहुँच सकूँ। इसके लिए आपके सुझाव, आलोचना, समालोचना आदि का हार्दिक स्वागत है।

शनिवार, 10 अगस्त 2024

गरीबी में डॉक्टरी : कहानी (भाग- 8) एक और मांझी की डॉक्टर बनने से संघर्ष गाथा

गतांक से निरंतर ..... 

एक हफ्ते बाद जब वह अपने दादू सर को साथ लेकर सतपुड़ा भवन स्थित ओबीसी ऑफिस में आवेदन की स्थिति पूछने गए तो, वहाँ एक सहायक संचालक महोदय ने उन्हें जवाहर चौक स्थित उनके सहायक संचालक ऑफिस में यह कहकर भेज दिया कि वहीं से उन्हें इस योजना का लाभ मिल पायेगा और जब उनके यहाँ से उसका आवेदन और जरुरी कागजात उनके पास आएंगे तो वे तभी आगे की कार्यवाई कर पाएँगे। यह सुनकर वे वहाँ से सीधे चलकर जवाहर चौक स्थित सहायक संचालक के ओबीसी कार्यालय पहुँचे। जहाँ उन्हें सुबह से शाम तक सहायक संचालक महोदय का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऑफिस बंद होने तक उनके दर्शन नहीं हो पाए, अलबत्ता उनके पीए ने थोड़ी सी हमदर्दी दिखाई और उसका आवेदन लेकर साहब की सीट पर रखते हुए कहा कि साहब किसी दूसरे काम में व्यस्त रहे, इसलिए आज नहीं आ सके, आप लोग कल आ जाना। तब तक वह साहब से बात कर लेगा। दूसरे दिन वह दादू सर को लेकर फिर ओबीसी ऑफिस गया तो उन्होंने उससे बॉन्ड भरवाए और कुछ जरुरी कागजात मांगकर खाना पूर्ति की और कहा कि कुछ दिन में उसके बैंक खाते में पैसे आ जाएँगे। वह बहुत खुश हुआ कि उसके सिर से अब तो समझो बला टल ही गई लेकिन दादू सर यह बात अच्छे से जानते थे कि कहाँ उसकी ऐसी किस्मत? उसकी यहाँ भी इतनी सरलता से दाल नहीं गलने वाली, जाने कितने और पापड़ बेलने पड़ेंगे। इसलिए उन्होंने पीए से उसका और साहब का मोबाइल नंबर लिया और वापस लौट आये। अब जब एक सप्ताह गुजर गया और उसके बैंक खाते में पैसे नहीं आये तो उसे फिर भारी चिंता सताने लगी। वह बहुत अच्छे से जानता था कि अब एकमात्र इसी योजना के सहारे उसकी डूबती नैया पार लग सकती है। लेकिन कैसे, वह बार-बार सोचता कि कौन अब इस चक्रव्यूह को भेदने का गुर उसे बताएगा। वह रात भर गहरी सोच में डूबा रहा, उसके आँखों से नींद उड़ चुकी थी। 

वह दूसरे दिन सुबह-सुबह हैरान-परेशान होकर अपने संकटमोचक 'दादू सर' के घर पहुँच गया, क्योंकि वह उन्हें अच्छे से जान गया था कि इस संकट से एकमात्र वे ही उसे बाहर निकालने में  मददगार हो सकते हैं। उसकी हालत और हालात से 'दादू सर' भी अच्छे से वाकिफ थे। उसने दादू सर को बताया कि कॉलेज वाले उस पर फीस भरने का दवाब बना रहें हैं, अभी तक उसके बैंक खाते में पैसे नहीं आये हैं। कब तक और कैसे उसे इसका लाभ मिल पायेगा? उसका दु:खड़ा सुनकर दादू सर ने उसे समझाया कि 'बेटा यह भी तेरी तरह ही अन्य दूसरे गरीब माँ-बाप के बच्चों की पढाई के लिए बनाई गई सरकारी 'सम्बल योजना' की तरह ही दूसरी योजना है और तू तो सम्बल योजना का क्या हश्र हुआ, देख ही चुका है। सरकारी योजना का लाभ उठाना उतना आसान नहीं हैं, जितना बड़े-बड़े पोस्टर, समाचार पत्रों और मीडिया आदि में उसका प्रचार-प्रसार कर दुनिया भर के गरीबों को ढिंढोरा पीटकर बता दिया जाना है। इसका लाभ वही ले सकता है जिसका बहुत बड़ा जिगरा होगा, मगर तू चिंता मत कर,  तू तो वैसे भी बहुत बड़ा जिगरा वाला है ही इसलिए सब्र रख, मैं तेरे लिए सारे हथकंडे आजमाकर कर देखूँगा और तुझे इस संकट से बाहर निकाल कर ही दम लूँगा। बस तू एक काम करना कि कुछ दिन हर दिन ओबीसी ऑफिस के चक्कर लगाते रहना और कभी-कभी साथ में अपने मित्रों को भी लेकर जाना और बार-बार ऑफिस वालों से पूछते रहना और जब सहायक संचालक महोदय 

आएं तो उन्हें भी बार-बार जाकर अपना दु:खड़ा सुनाते रहना। अब तो उसे इस योजना का चक्रव्यूह भेदने का दादू सर का बताया गुर मिला तो वह हर दिन सुबह-सुबह जाकर ओबीसी ऑफिस में तब तक बैठा रहता जब तक साहब नहीं आ जाते, साहब आते तो वह उनके पास जाने के लिए अपनी स्लिप भेजता। साहब तो साहब ठहरे, कभी मूढ़ हुआ तो बुला लेता और नहीं हुआ तो घंटों बाद भी नहीं बुलाता। कभी-कभी वह उसके केबिन के बाहर बैठे-बैठे इंतज़ार कर रहा होता, लेकिन साहब केबिन से तेजी से बाहर निकलते और सरपट अपनी गाड़ी से कहीं भाग खड़े होते, तो वह यह दृश्य देखते ही रह जाता और निराश हो उठता। उसके दोनों ख़ास दोस्त भी उसका साथ देते, वे भी कभी-कभी उसके साथ ओबीसी ऑफिस में घंटों बैठे रहते। उन्हें हर दिन इस तरह कुंडली मारकर बैठे देख कई बार तो ऑफिस का स्टाफ झिड़की मारकर भगा भी देते लेकिन वे फिर भी डटे रहते। वह प्रतिदिन रात को दादू सर को नियमित रूप से ओबीसी ऑफिस की रिपोर्ट देता। बीच-बीच में दादू सर भी ऑफिस के चक्कर काट के आ जाते।  कभी कभार इधर- उधर से ऊपर से जुगाड़ कर फ़ोन भी करा लेते। एक माह तक यही सब चलता रहा, वह हर दिन निराश होता रहा तो उसके सब्र का बांध टूटने लगा यह देख दादू सर ने पूरी तरह मोर्चा अपने हाथों में लेने मन बनाया। अब पूरी तरह मोर्चा दादू सर के हाथ में था। उनकी सरकारी तंत्र में थोड़ी-बहुत पकड़ थी। इसलिए वे उसे साथ लेकर विभागीय मंत्री से मिलाने ले गए, जहाँ विभागीय मंत्री महोदय जी को उसकी व्यथा-कथा सुनने का समय तो था नहीं, इसलिए उन्होंने आवदेन माँगा और आश्वासन देकर लौटा दिया।

दूसरे दिन जब वे फिर मंत्री जी से मिले तो उन्होंने उनके कार्यालय के एक बाबू से मिलने को कहा तो उससे मिलकर पता चला कि उन्होंने उसका आवदेन मंत्री जी की तरफ से चिट्ठी बनाकर संलग्न करते हुए सतपुड़ा स्थित आयुक्त कार्यालय भेज दिया है। वे वहां से सीधे आयुक्त कार्यालय पहुँचे। जहाँ वे बड़ी मुश्किल से आयुक्त महोदय से मिले। लेकिन जब आयुक्त महोदय ने साफ़ शब्दों में कहा कि यह योजना केवल सरकारी कॉलेज के लिए है, इसलिए उसे इसका लाभ नहीं मिल सकता, जिसे सुनकर उसका सिर चकराया। उसे ऐसे लगा जैसे आसमान से गिरे और खजूर में अटक गए । अब क्या होगा? तभी दादू सर ने आयुक्त महोदय को इस योजना के सर्कुलर दिखाते हुए कहा कि सर देखिए इसमें स्पष्ट लिखा है, तो उन्होंने बिना देखे ही आवेश में आकर कह दिया कि जाइए, मुझे सब पता है। मैंने कह दिया कि नहीं मिलेगा तो नहीं मिलेगा।' विभाग के मुखिया बने एक बहुत बड़े पद पर बैठे अफसर से ऐसे बर्ताव की उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी। उसे जोर का धक्का लगा। अब योजना की पुष्टि हेतु दादू सर उसे लेकर उनके ऑफिस के उस सहायक संचालक महोदय के पास ले गए, जिन्होंने जवाहर चौक स्थित सहायक संचालक महोदय के ऑफिस भेजा था, उनसे मिले तो उन्होंने पूरी तरह आश्वस्त किया कि उन्हें इस योजना का लाभ उनके जवाहर चौक स्थित सहायक संचालक के ऑफिस से ही मिलेगा, भले ही देर से मिलेगा लेकिन जरूर मिलेगा, तो उसके मन को शांति मिली। लेकिन फिर गाड़ी वहीँ सहायक संचालक के ऑफिस पर जाकर रुक गई। फिर वही कुछ दिन चक्करधनी चलती रही। एक दिन दादू सर ने सहायक संचालक महोदय के कार्यालय में ओबीसी वर्ग के बहुत से बच्चों को वहां से स्कालरशिप न मिलने के कारण हैरान-परेशान होते देखा तो उन्होंने उनसे सहायक संचालक की शिकायत करने को कहा तो वे तुरन्त मान गए। अब दादू सर ने वही ऑफिस के बाहर सबके लिए शिकायती आवेदन बनाया और उसे सीएम, विभागीय मंत्री और आयुक्त को भेज भिजवा दिया। साथ ही सीएम हेल्पलाइन में सबको कंप्लेंट करने को कहा। एक साथ बहुत से शिकायती आवेदन सब जगह पहुंचे तो आयुक्त ने उसका ट्रांसफर कर दिया। अब वहां इंदौर से ट्रांसफर होकर नए सहायक संचालक आ गए। नए साहब बहुत अच्छे थे उन्होंने आश्वस्त किया कि वे वहां की बिखरी व्यवस्थाएं ठीक कर उन्हें जल्दी ही इस योजना का लाभ दिला देंगे। लेकिन फिर जब कुछ दिन बाद पता किया तो वे कहने लगे कि हमारी ओर से सब कुछ तैयार है, लेकिन इतनी बड़ी रकम देने के लिए उनके पास बजट नहीं है। अब जब सतपुड़ा भवन मुख्यालय से बजट मिलेगा, तभी उसे दे पाएँगे। अब फिर वे बजट के लिए सतपुड़ा भवन के चक्कर लगाने लगे लेकिन आज कल, आज कल करते-करते पूरे 6 माह बाद जब बजट मिला तो तब इस पिंड से छुटकारा मिला। 

आखिर दादू सर ने यह चक्रव्यूह भेद ही लिया तो उसे अपार प्रसन्नता हुईं। योजना से उसे 18 लाख रुपये का लाभ मिला, तो उसने फीस भरकर अपने दादू सर और सरकार को भी धन्यवाद दिया। जब उसे इस योजना का लाभ मिल गया तो वहां आर्थिक तंगी झेल रहे ओबीसी के अन्य गरीब छात्रों को भी एक मार्ग मिल गया, उन्होंने ने भी आवेदन कर इसका लाभ लिया, तो उसे भी ख़ुशी मिली। अब उसका एक ही काम बचा था कि जी जान से पढ़ना और पेपर देना और प्रैक्टिकल करना। वह जुनूनी तो था ही बस भिड़ गया और बिना बैक लगाए उसने निर्धारित समय में अपना एमबीएस करके डॉक्टर बनने से सपने को साकार कर दिखाया। मैं जानती हूँ एक गरीब का संघर्ष कभी ख़त्म नहीं होता। डॉक्टर धर्मेंद्र मांझी का आगे क्या जीवन संघर्ष रहेगा उसे आगे भी लिखने की करते रहेंगे।  

...कविता रावत   

1 टिप्पणी:

गिरधारी खंकरियाल ने कहा…

सरकारी तंत्र की नाकामियों के कारण जनता परेशान रहती है। चक्कर का चक्रव्यूह बन जा ता है । सार्थक प्रयास।