अब उसके सामने दो विकल्प थे। पहला यह कि वह अपने सपने को तिलांजलि देकर सरकारी डेंटल कॉलेज ले ले और दूसरा प्रायवेट कॉलेज से एमबीबीएस कर अपने डॉक्टर बनने के सपने को साकार कर दिखाए। उसने दूसरा विकल्प चुना और काउंसलिंग में भाग लिया। जहाँ उसकी माली हालत देखकर कई अधिकारी/कर्मचारियों ने उसे डराया कि वह अपनी सीट की जिद्द छोड़ दे। क्योँकि प्राइवेट काॅलेज की हर वर्ष की फीस ६ लाख के लगभग होती है, जो उसके बूते से बाहर की बात है। उसे अपनी व्यर्थ की जिद्द छोड़कर कोई छोटा-मोटा काम करके गुजर-बसर कर लेना चाहिए। लेकिन उसे उनकी बातें सुनकर बहुत रोना आया फिर भी वह अपने पक्के इरादे पर डटा रहा। उसने दृढ़तापूर्वक उनसे साफ़ कह दिया कि वह किसी भी हालत में अपनी सीट नहीं छोड़ने वाला, वह एडमिशन लेकर ही मानेगा। उसे प्राइवेट कॉलेज के रूप में चिरायु मेडिकल कॉलेज में मिला, जिसकी फीस लगभग 6 लाख के लगभग थी। अब फटेहाली में इतनी बड़ी रकम कहाँ से भरे, किससे माँगे और कितना मांगे, कैसे भरे, बड़ी उलझन थी।
आज तक तो वह माँग-मांग कर अपना गुजारा करता रहा, फिर कौन इतनी बड़ी रकम उसे क्यों और कहाँ से देगा। उसके सामने फिर बहुत बड़ी विकट समस्या खड़ी हो गई। बहुत सोच-विचार कर उसने भगवान का नाम लिया और अपने गाँव पहुँच गया। वहाँ पहुंचकर उसने अपने माता-पिता और अपनी दो बड़ी विवाहित बहिनों और एक बड़े विवाहित भाई को अपने सामने बुलाया और उनके सामने बुरी तरह से रोते हुए पैसे का इंतज़ाम करने को कहने कहा। वह कहता कि यदि उन्होंने उसे पैसे लाकर नहीं दिए तो वह अपनी जान पर खेल जाएगा। उसके ऐसे जीवन मरण के कठोर बोल सुनकर उसके बूढ़े माँ -बाप और भाई-बहिनों के तो होश ही उड़ गए। वे उसका जुनून बचपन से जानते थे कि कैसे वह बचपन से ही 'मैं तो डॉक्टर ही बनूँगा' कहता था और कैसे फिर वह अपने गांव से दूर दूसरे गाँव में पढ़ने चला गया और फिर घर से सबके मना करने पर चुपके से भोपाल भी भाग गया था। वे भी उसके माता-पिता की तरह सब्जी-भाजी और फल-फूलों के ठेले लगाकर जैसे-तैसे अपना घर चला रहे थे, फिर इतने पैसे कहाँ से लाकर देंगे और अगर न दिए तो वह सचमुच अपनी जान न दे दे। इसलिए उसकी माँ और बहिनों ने उनके पास जो भी थोड़े-बहुत जमा पूंजी, जेवर आदि थे, सब गिरवी रख दिए। उसके पिता, भाई और दोनों जीजाओं ने भी इधर-उधर से पैसा ब्याज पर लेकर ६ लाख का बदोबस्त कर दिया, तो वह फ़ौरन भोपाल आया और उसने पहले वर्ष की पूरी फीस भर दी।
पहले वर्ष का पैसे का जुगाड़ हुआ तो उसके मन को शांति मिली। वह बहुत खुश था कि आखिर वह डॉक्टर बनने की पहली सीढ़ी तक पहुँच गया है। अब वह किसी स्कूल का छात्र नहीं था जहाँ उसे साल भर में केवल एक बार बोर्ड की परीक्षा देकर सर्टिफिकेट मिल जाता है। अब वह मेडिकल कॉलेज का छात्र था, जिसकी डिग्री पाने के लिए अच्छे-खासे पढ़े-लिखे घरों के टॉपर बच्चों का भी पसीना छूट जाता है। फिर वह कौन से खेत की मूली थी। उसकी असली पढ़ाई और परीक्षा तो अब होनी बाकी रह गई थी। जहाँ उसे पग-पग परीक्षा देनी थी और पास होकर आगे भी बढ़ना था। नीट में तो उसने अच्छे अंक अर्जित कर लिए थे, लेकिन यहाँ उसके सामने बड़ी समस्या अंग्रेजी की थी। क्योंकि अब उसे हर वर्ष यूनिवर्सिटी के एक्जाम में इंग्लिश में पेपर देना होगा, तभी उसे पास होकर अगली क्लास में जाने का अवसर मिलेगा। अपनी पहली क्लास में पहुंचकर उसने देखा कि उसे छोड़ सभी बच्चे इंग्लिश बहुत अच्छे से जानते हैं। क्लास में टीचर आया तो इंग्लिश में लेक्चर देकर चला गया। उन्होंने क्या पढ़ाया उसे कुछ समझ नहीं आया। इसी तरह कई दिन चलता रहा। सभी बच्चे टीचर जब पढ़ाता तो कुछ नोट कर लेते, लेकिन उसे कुछ भी समझ नहीं आता कि वह क्या पढ़ा के गए हैं और वह क्या लिखेगा। यह समय भी उसके लिए बहुत कठिन था। लेक्चर भी अंग्रेजी में, प्रैक्टिकल भी अंग्रेजी में और सेमीनार भी अंग्रेजी में, चारों ओर अंग्रेजी का साम्राज्य फैला देख वह बहुत घबराया। सोचता क्यों उसे हर काम a b c d से शुरू करने पड़ते हैं।
इससे पहले कि वह कॉलेज में पढ़ने लिए a b c d सीखता एक दिन उसे स्कूल के कमरे से भगा दिया गया। उसके सामने फिर रहने की समस्या खड़ी हुई तो वह दौड़ा-दौड़ा 'दादू सर' के घर गया, जहाँ उन्होंने 74 बंगले के पास बने एक हनुमान मंदिर में वहां के महंत जी से बात कर एक कमरा किराये से दिला दिया। उस मंदिर में रहने के लिए अलग-अलग बहुत से कमरे बने हैं, जहाँ वे बच्चों को किराये से कमरे देते हैं। उसे पढ़ने लिए जैसी शांतिपूर्ण जगह की जरूरत थी, मिली तो वह खुश हुआ। उसका किराया भी दादू सर आकर दे जाते थे, तो वह किराये की चिंता से मुक्त था। अब उसकी यदि कोई बहुत बड़ी चिंता थी तो अंग्रेजी पढ़ने-लिखने की। वह बड़ा हैरान-परेशान रहता। क्लास में कुछ छात्र उसका मजाक उड़ाते तो वह दुःखी होता लेकिन एक दिन ऐसा भी आया जब क्लास में उसे दो छात्र अमित और गोविन्द मिले, जिन्होंने उसकी परेशानी समझी और उसे अपना मित्र बनाया। वे उसके सबसे अच्छे मित्र थे। वे उसकी अंग्रेजी लिखने-पढ़ने में हर समय सहायता करते। उसे अपना काफी समय देते। वे उसे बहुत मदद करते थे। उसे अकेला नहीं रहने देते थे। वे उसके हर कदम पर उसके साथ खड़े रहते थे। वे फायनल ईयर तक साथ रहे। प्रथम वर्ष उसके लिए एमबीबीएस का बहुत ही कठिन समय रहा।
प्रथम वर्ष में तीन-तीन विषय थे- एनाटॉमी, फिजियोलॉजी, बायोकेमिस्ट्री इनमें से एनाटोमी तो उसके दिमाग में ही नहीं घुसती थी। उसे पूरा का पूरा पढ़ना पड़ता था। क्योंकि युनिवर्सिटी वाले कुछ भी और कहीं से भी पूछ लेते थे। उसे इंग्लिश लिखने की बड़ी दिक्कत थी। उसे चिंता हरदम यह चिंता सताती कि यदि वह सही-सही नहीं लिख पाया तो युनिवर्सिटी वाले उसे अंक नहीं देंगे तो वह फेल हो जाएगा। यह पहला साल ही उसके लिए एवरेस्ट की चोटी चढ़ने से भी कठिन लगने लगा। उसे लगता वह कहीं वह गलत जगह तो नहीं पहुँच गया। उसे desecration हॉल में जहाँ १० डेड बॉडी रखी रहती है, उनके बीच पढ़ना, रहना, फिर उन्हें काटना-पीटना पड़ता था। खाना भी वही खाना पड़ता था। एक सप्ताह में ५ दिन वहीँ गुजरना पड़ता था। कभी-कभी तो डेड बॉडी का फ्लूइड मुंह में भर जाता और फिर कुछ तो पेट में चला जाता। लेकिन पढाई और सीखना जो था। कभी उसके मन में आता कि सबकुछ छोड़ छाड़ कर भाग जाऊँ। लेकिन भागकर कहाँ जाता, फिर सोचता भागकर ही आया था। क्या-क्या नहीं किया यहाँ तक पहुँचने के लिए। और अब छोड़ हूँ, नहीं, नहीं। उसके लिए यहाँ सब कुछ नया-नया था, जो उसके लिए समझ से परे था, लेकिन एक नया अनुभव था, उसके कौतुहल का विषय था। मनुष्य शरीर के सभी अंगों को उन्हें अपने हाथों से काटने पड़ते और उनके बारे में एक-एक जानकारी सीखनी पड़ती थी। पूरे एक साल इनको देखते-देखते और पढ़ते-पढ़ते वह बहुत रोता भी था। क्योंकि उसे इंग्लिश के कठिन शब्द न याद होते न समझ आते थे। ऊपर से अंग्रेजी में ही कॉलेज में सेशनल होते थे, तो वह सभी में फेल हो जाता था। उसे भरी चिंता सता रही थी कि युनिवर्सिटी की परीक्षा नज़दीक है, पेपर का टाइम टेबल आ गया है। परीक्षा फॉर्म भी 800 रुपये का था, जेब में पैसे नहीं थे, बड़ी ,मुश्किल से मांग कर फॉर्म भरा।
एक पल को वह यह सोचकर दुःखी हो जाता कि उसके कॉलेज में सभी बच्चे अच्छे अच्छे कपड़े पहन कर कर गाड़ी-घोड़े में सज-धज के आते और एक वह है, जिसके पास न पैसा, न अच्छे कपडे और नहीं आने-जाने के लिए कोई साधन ही है, लेकिन दूसरे पल वह सोचता कि उसके पास जितना भी है उतने में ही वह खुश है, उसकी असली दौलत तो उसका अपना धैर्य है। उसके पास पहनने के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े नहीं थे तो वह कॉलेज के बड़े-बड़े फंक्शन में नहीं जाता था। प्रथम वर्ष की परीक्षा का समय आया। २० दिन प्रैक्टिकल चले और १० दिन लिखित परीक्षा। उसे पता था कि प्रथम वर्ष का ऐसा नियम है कि यदि कोई किसी भी विषय में फेल होता है तो वह फिर पूरे एक साल पीछे हो जाता है। उसने बहुत परिश्रम किया। परीक्षा हुई और प्रैक्टिकल हुए। लेकिन ये परीक्षा उसे इतनी कठिन लगती थी कि उसे हर पेपर में रोना पड़ता था। पेपर में बहुत कठिन प्रश्न पूछे जाते थे और प्रैक्टिकल में ३ घंटे तक खड़े-खड़े रहना पड़ता था तो उसे अंदर ही अंदर बहुत रोना आता था। लेकिन क्या करता, किससे कहता। सोचता यही तो वह घडी थी, जब उसका अंदर का डर बाहर निकलकर उसे मजबूती देगा, धैर्य से सबकुछ सीखने को हिम्मत देगा। अपना पूरी ताकत लगाकर उसने परीक्षा दी और बहुत अच्छे अंक से पास हो गया तो उसे अपार ख़ुशी हुई। लेकिन उसने इस दौरान अनुभव किया कि हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए एमबीबीएस का कोर्स बना ही नहीं हैं।
शेष अगले अंक में .......
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